शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

ढंग से मिलता भी नहीं, और बिछुड़ता भी नहीं




आजकल 'वो', मेरी पलकों से उतरता भी नहीं ,
लाख समझाऊँ , वो अंजाम से डरता भी  नहीं  !

आँख जो बंद करूँ,     ख्वाब में आ जाता है,
इतना जिद्दी है के फिर, ख्वाब से टरता भी नहीं !

उसको यूँ,  मुझको सताने की जरूरत क्या है ?
तंग करता है महज़ , प्यार तो करता भी नहीं  !

यूँ तो कहता है, ....चलो चाँद सितारों पे चलें ,
रहगुजर बनके, मेरे साथ गुजरता भी नहीं  !

कभी कातिल,  कभी मासूम नज़र आता है ,
ढंग से मिलता भी नहीं, और बिछुड़ता भी नहीं !

कह नहीं सकता,  उसे प्यार है मुझसे या नहीं, 
हाँ वो कहता भी नहीं , साफ़ मुकरता भी नहीं  !

हाल 'आनंद' का,  ...मुझसे नहीं देखा जाता  ,
ठीक से जीता नहीं ,  ठीक से मरता भी नहीं !

    --आनंद द्विवेदी २९-०४-२०११     

गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

सोच समझकर करना



किसी को प्यार करो सोंच समझकर करना
दिल-ए-बेजार करो, सोच समझकर करना 

इश्क सुनता है भला कब नसीहतें किसकी
हज़ार बार करो,   सोच समझ कर करना  

एक लम्हा है जो गुजरा तो फिर न आएगा 
जो इंतजार करो,   सोच समझ कर करना   

प्यार की हद से गुजरने की बात करते हो 
हदें  जो पार करो, सोच समझ कर करना  

जानलेवा तेरी नज़रों को,   लोग कहते हैं 
जो कोई  वार करो,  सोच समझ कर करना  

मैंने 'आनंद' के देखे हैं,   अनगिनत चेहरे 
जो ऐतबार करो , सोच समझ कर करना  

        --आनंद द्विवेदी २८-०४-२०११

सोमवार, 25 अप्रैल 2011

कोई शिकवा ही नहीं उसको मुकद्दर के लिये




दो घड़ी भी न मयस्सर हुई ,.. बसर के लिए 
ख्वाब लेकर के मैं आया था उम्र भर के लिए !

कौन जाने कहाँ से, ...  राह दिखादे  दे कोई,
रोज बन-ठन के निकलता हूँ तेरे दर के लिए !

तेरी महफ़िल को,  उजालों की दुआ देता हूँ , 
मैं ही  माकूल नहीं हूँ, ....तेरे शहर के लिए  !

रास्ते  भर,   तेरी यादें ही  काम  आनी  हैं ,
घर में माँ होती तो देती भी कुछ सफ़र के लिए !

दिल को समझाना भी मुस्किल का सबब होता है 
आज फिर जोर से धड़का है  इक नज़र के लिए  !

सिर्फ अहसास  नहीं  हूँ,  वजूद  है  मेरा  ,
मैं बड़े काम का बंदा हूँ किसी घर के लिए  !

अजीब शख्स है 'आनंद', ...फकीरों की तरह ,
कोई शिकवा ही नहीं  उसको मुकद्दर के लिए !

    ---आनंद द्विवेदी २५-०४-२०११

शनिवार, 23 अप्रैल 2011

ख़त लिख रहा हूँ तुमको.....



न दर्द,   ... न दुनिया के सरोकार लिखूंगा,
ख़त लिख रहा हूँ तुमको, सिर्फ प्यार लिखूंगा !

तुम गुनगुना सको जिसे , वो गीत लिखूंगा ,
हर ख्वाब लिखूंगा,  .. हर ऐतबार लिखूंगा  !

पत्थर को  भी भगवान,  बनाते रहे हैं जो , 
वो भाव ही लिक्खूंगा , वही प्यार लिखूंगा !  

दुनिया से छिपा लूँगा, तुम्हें कुछ न कहूँगा ,
गर नाम भी लूँगा, तो  'यादगार' लिखूंगा  !

सौ चाँद भी देखूं जो,   तुझे देखने के बाद ,
मैं एक - एक  कर, ...उन्हें बेकार लिखूंगा !

अपने लिए भी सोंचना है मुझको कुछ अभी,
'आनंद' लिखूंगा,... या  अदाकार  लिखूंगा  !

     --आनंद द्विवेदी , २३-०४-२०११

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011

रह रह के अपनी हद से गुजरने लगा हूँ मैं






बेख़ौफ़ होके, .. सजने संवरने लगा हूँ मैं,
जब से तेरी गली से गुजरने लगा हूँ मैं !

कुछ काम, जो सच्चाइयों को नागवार थे ,
वो झूठ बोल बोल कर, करने लगा हूँ मैं  !

गज़लों में आगया कोई सोंचों से निकल कर,
शेर-ओ-शुखन से प्यार सा करने लगा हूँ मैं !

वो एक नज़र हाय क्या वो एक नज़र थी ,
रह रह के अपनी हद से गुजरने लगा हूँ मैं!

मुझको  कोई पहचान न बैठे  , इसी डर से  ,
अब गाँव को भी,  शहर सा करने लगा हूँ मैं !

'आनंद' फंस गया है,  फरिश्तों के फेर में ,
अब जाँच परख खुद की भी करने लगा हूँ मैं! 

   --आनंद द्विवेदी  २२-०४-२०११ 

सोमवार, 18 अप्रैल 2011

वादा कर लूँगा मगर साफ़ मुकर जाऊँगा






तेरे नजदीक से होकर..... जो गुजर जाऊँगा ,
कह नहीं सकता जियूँगा, कि मैं मर  जाऊंगा !

उनका आगाज़ ही लगता है क़यामत मुझको, 
उनको डर था कि मैं,  अंजाम से डर जाऊँगा  !

मुझको मयख्वार बनाती हुई, नज़रों वाले ..,
मैक़दे बंद ना  करना  , मैं  किधर जाऊँगा  !

तेरे दर से मुझे ,  .मंजिल का गुमाँ होता है ,
मैं जरा देर भी ठहरा,... तो ठहर जाऊँगा  !

इक  हसीं ख्वाब के जैसा,  वजूद है मेरा ,
दो घडी पलकों पे रह लूँगा उतर  जाऊँगा !

मुझपे 'आनंद' की सोहबत का असर है यारों,
वादा कर लूँगा मगर,  साफ़ मुकर जाऊँगा !!

   ---आनंद द्विवेदी १८-०४-२०११ 

शनिवार, 16 अप्रैल 2011

इन प्यार की बातों से...




मेरे यार की बातों से, इजहार  की बातों से ,
हंगामा तो होना था, इन प्यार की बातों से !

मैं वो ग़मजदा नहीं हूँ  हैरत न करो यारों,
मैं जरा बदल गया हूँ , इकरार की बातों से !

वो उदास सर्द लम्हे, तनहाई ग़म की किस्से,
मेरा लेना देना क्या है,  बेकार की बातों से !

वो कशिश वो शोखियाँ वो, अंदाजे हुश्न उनका 
फुरसत कहाँ है मुझको , सरकार की बातों से  !

मेरी धडकनों पे काबिज ..मेरी रूह के सिकंदर,
मेरा दम निकल न जाए, इनकार की बातों से !

तेरा  रह गुजर नहीं हूँ,  ...ये  खूब जानता  हूँ
तेरे साथ चल पड़ा हूँ , ..ऐतबार की बातों से  !

'आनंद' मयकदे तक पहुंचा तो कैसे पंहुचा ? 
ये राज खुल न जाए,   तकरार की बातों से !

   --आनंद द्विवेदी १६-०४-२०११ 

शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

ठहरो चाँद ....!




बरसों बाद 
मेरी खिड़की  पर 
आज 
चाँद आकर ठहर गया है
हू-ब-हू  वही चाँद 
वही नाक नक्श, वही चांदनी 
बादलों की ओट में 
वही लुका छिपी  
वही शरारतें ..

इस बार नहीं जाने दूंगा ..
नहीं करूंगा 
रत्ती भर संकोच
बाँहों में भर लूँगा
हर कतरा
चांदनी....तुम्हारी!    

इतने दिन 
कहाँ थे तुम ?
तुम्हें 
मेरे गीत पसंद थे न  
देखो 
मैंने कितने गीत लिखे है
इनका हर लफ्ज़  
कितना तुम्हारा है 
आज सुनाऊंगा तुम्हें 
कम से कम 
एक गीत  मैं !

आज पूनम है 
खूब सारा वक़्त है न तुम्हारे पास 
अब से पहले 
न कभी 
ऐसी पूनम आई 
न कभी 
ऐसा वक़्त 
आज रुकोगे न तुम?
जल्दी मत करना 
आज ही 
जी लेनी है मुझे... 
अपनी सारी उम्र 
मुझे कल पर 
जरा भी ऐतबार नहीं !!

-आनंद द्विवेदी 
१५-०३-२०११

गुरुवार, 14 अप्रैल 2011

उफ्फ् फिर सपने ...



सुबह से.. 
एक सादा पन्ना 
नाच रहा है 
आँखों के सामने
रात में
इसी पर मैंने 
रंग बिरंगी स्याही से
सब कुछ तो लिख दिया था ...

मैंने लिखा था 
तुम्हारी मुस्कान 
तुम्हारी शराफत 
तुम्हारा प्यार 
तुम्हारी लापरवाही 
तुम्हारी इबादत 
तुमको 

मैंने लिखा था 
अपनी आरजू 
अपनी गिड़गिड़ाहटें  
अपनी बेबसी ... 
अपना जुजून 
वो भी सब 
जो आज तक मैंने
तुमको नहीं बताया था 
खुद से भी ..
चुराए हुए था जो राज ...

पर सुबह...
देखा तो... 
पन्ना तो सादा ही था ..

निगोड़े सपने 
रात में भी  तंग करते हैं 
और दिन में भी !

-आनंद द्विवेदी  
अप्रैल १४, २०११ 

रविवार, 10 अप्रैल 2011

मुझको अक्सर भड़काते है ये सपने


क्या क्या सपने दिखलाते हैं ये सपने,
एकदम पीछे पड़ जाते हैं,  ये सपने   !

मैंने हर खिड़की दरवाजा बंद किया था,
जाने किस रस्ते आते हैं,  ये सपने    !

इनको मालूम है मैं इनसे डरता हूँ,
मुझे डराने आ जाते हैं,   ये सपने !

इनको अक्सर मैं समझाकर चुप करता हूँ,
मुझको अक्सर भड़काते  हैं,   ये सपने  !

जब-जब इनके डर से नींद नहीं आती है,
तब-तब दिन में आ जाते हैं,  ये सपने !

वैसे तो ये अक्सर,  झूठे  ही  होते  हैं,
कभी-कभी सच दिखलाते हैं, ये सपने !

जब-जब  मेरी हार, मुझे  तडपाती   है ,
तब-तब आकर  समझाते  हैं, ये सपने !

ये 'आनंद' गया तो , लौटे   न  लौटे ,
इसी बात से  घबराते  हैं, ये सपने ! 

--आनंद द्विवेदी ०९-०४-२०११ 

शनिवार, 9 अप्रैल 2011

क़तरा क़तरा एक समंदर सूख गया





लम्हा लम्हा करके लम्हा छूट  गया
क़तरा  क़तरा एक समंदर सूख गया  !

और हादसों के डर से, वो तनहा था  ,
तनहा तनहा रहकर भी तो टूट गया !

मैं कहता था न, ज्यादा सपने मत बुन, 
वही हुआ , सपनों का दर्पण टूट गया  !

फिर कोई मासूम सवाल न कर बैठे ,
बस इस डर से ही, मैं उससे रूठ गया  !

मेरी फाकाकशी  सभी को मालूम थी ,
फिर भी कोई आया  मुझको लूट गया

उसकी बातों से तो ऐसा लगता  था ,  
जैसे कोई दिल का छाला फूट गया !

जो 'आनंद' नज़र आता है, झूठा है ,
उसका सच तो कब का पीछे छूट गया !

  --आनंद द्विवेदी ०९/०४/२०११ 

मंगलवार, 5 अप्रैल 2011

नया ब्लेड




कल देखा है तुम्हें बहुत गौर से
मैने अपनी कविता में
तुम खड़े थे
तुम हंस रहे थे 
तुम मुस्करा रहे थे
तुम कुछ कह रहे थे शायद
मैं केवल सुन रहा था और सोंचे जा रहा था कि
जज्बात तो हैं ....संभालना इन्हें.....खेलना मत
बढ़ते जाना
पैरों के नीचे मत देखना कभी भी
वहां रूकावट होती है ....पैरों के पास
किसी के कुचले जाने का डर भी
दर्द की चादर ओढ़े रहना
दर्द को जीना नही
चादर उतारने में ज्यादा सहूलियत होती है.
जीवन बदलने की बनिस्बत!

फिर बाद में जब  तुमने ठुकराया न 
मुझे... 
तभी अचानक मुझे भी 
समझ में आगया था 
कि विद्वान लोग 'अटैचमेंट ' को 
इतना बुरा क्यूँ कहते हैं
पहली बार  दर्द से जीत गया मैं 
थैंक्स अ लाट आपको
मुझे जरा  भी दर्द नहीं  हुआ 
जैसे एकदम नया ब्लेड निगल लिया हो 
बड़ी सफाई  से अन्दर तक  काटा है
बिना कोई दर्द दिए 
ये कला भी सब के पास कहाँ होती है 
पर एक बात है
मैं भी बहुत ढीठ आदमी हूँ.
देखना फिर पडूंगा अटैचमेंट के चक्कर में
मैंने कब कहा कि...
मैंने  प्यार करना छोड़ दिया है
मैंने कोई चादर थोड़े ओढ़ी थी
जो उतार दूँ
तुम एक  नया ब्लेड लेकर रख लो
मैं जल्दी ही फिर आऊंगा !

      --आनंद द्विवेदी ०६/०४/२०११

मुझे 'आनंद' होना था...




मुझे होशियार लोगों  को कभी ढोना नहीं आया
मुझे उनकी तरह बेशर्म भी होना नहीं आया 

मैं यूँ ही घूमता था नाज़ से, उसकी मोहब्बत पर 
मेरे हिस्से में उसके दिल का इक कोना नहीं आया 

अगर सुनते न वो हालात मेरे,  कितना अच्छा था
ज़माने भर का गम था, पर उन्हें  रोना नहीं आया 

ज़माने   को बहुत ऐतराज़,  है मेरे उसूलों पर
वो  जैसा चाहता है, मुझसे वो होना नहीं आया

नहीं हासिल हुई रौनक, तो उसकी कुछ वजह ये है 
बहुत पाने की चाहत थी मगर  खोना नहीं आया  

मैं अक्सर खिलखिलाता हूँ, मगर ये रंज अब भी है
मुझे  'आनंद' होना था ...मगर होना  नहीं  आया  |

             -आनंद द्विवेदी ०६/०४/२०११