शनिवार, 30 अगस्त 2014

मैं मुस्कराऊँगा

एक दिन मैं मुस्कराऊँगा
(मंद और स्मित मुस्कान)
तुम्हारी  उपलब्धियों पर
और सम भाव से
अपनी नाकामियों पर भी
मैं मुस्कराऊँगा
अपने जीवन पर
ईश्वर की योजनाओं पर
तुम्हारी उपेक्षाओं पर
अपने समर्पण पर
बीत गए समय पर
भविष्य के सपनों पर
अपने सभी अपनों पर ,

मैं निश्चित मुस्कराऊँगा
अपने पागलपन पर
दुनिया की बदक़िस्मती पर
अपने प्रेम पर
दोस्तों की दोस्ती पर
अपनी सभी चालाकियों पर
पहाड़ से दर्द पर
राई से सुकून पर
बेवज़ह जूनून पर
पिता की फटकार पर
माँ के दुलार पर ,

मैं निश्चित ही मुस्कराऊँगा
मंज़िलों की झूठ पर
रास्तों की लूट पर
ताज़े खिले गुलाब पर
अपने सबसे अच्छे ख़्वाब पर
फालतू शिष्टाचार पर
बहनों के प्यार पर
अपने हर कर्म पर
दुनिया के हर धर्म पर
अपनी हर बात पर
जो कभी नहीं हुई उस मुलाकात पर

इनमें से एक भी  नहीं है
मेरे मुस्कराने की वज़ह
मैं तो बस मुस्कराऊँगा
क्योंकि मुस्कराने के लिए नहीं चाहिए
ग़मों की तरह कोई वज़ह !

- आनंद

बुधवार, 27 अगस्त 2014

मौन विदाई का चुप्पा गीत

ये विदाई की तैयारियों वाली एक औसत शाम थी, जिसमें बातें कम थीं, ख़ामोशी ज्यादा; दर्द उससे  भी ज्यादा
दो सच्चे दिल, मगर अलहदा रास्तों के मुसाफ़िर ....
एक ने नज़रें उठाकर कहा
अपना ख़याल रखना
दूसरे ने नज़रें झुकाकर पूछा … "मगर किसके लिए"
अपने लिए …और किसके लिए (पहले ने लगभग डाँटने वाले अंदाज में कहा )
जैसे तुम रखते हो ?
(दूसरे ने पूछना चाहा था मगर पूछ नहीं सका )
हालाँकि वो जिंदगी भर बक बक करता रहा मगर ये बात नहीं पूछ पाया कि
अपना ख्याल रखना इतना जरूरी क्यों होता है
क्यों लोग अपना ख्याल रखने के लिए दूसरों का ख्याल ही नहीं रखते
मगर वह ....
बस इतना ही कह सका
कभी मन करे तो बात कर लेना
मैं अब बहुत परेशान नहीं करूँगा ...
_________________________


- आनंद






शुक्रवार, 22 अगस्त 2014

प्रेम, पदार्थ और पत्थर

हर चीज़ की एक सीमा होती है
हर चीज़ नहीं....  सीमा केवल पदार्थ की होती है

और दर्द  ?

अगर पदार्थ के लिए है तो सीमा है
प्रिय के लिए है तो निस्सीम,

शरीर और उसके कर्म
धरती और दिखाई देने वाला जगत
सब पदार्थ हैं इसीलिए इनकी है एक सीमा,

आकाश
मन
और प्रेम... ये हैं अपदार्थ और असीम
......
अच्छा एक बात बताओ ;
मुझमे जो पदार्थ है वो ख़तम हो जायेगा जब
तो क्या मैं निस्सीम हो जाउँगा ?

तुम पदार्थ के चिंतन से मुक्त होकर अभी निस्सीम हो सकते हो
.......
हम्म्म्म
अच्छा बस एक आख़िरी बात ...
वह कौन सी क्रिया है जिससे इन्सान पत्थर में बदल जाता है

प्रेम
.....
क्याआआआआ ??

हाँ
जो शक्ति पत्थर को इंसान बनाती है
उसी का असंतुलित व्यवहार इन्सान को पत्थर भी बना सकता है
बस एक फर्क है ...

क्या ?

ऐसे लोग दुबारा इंसान नहीं बन पाते फिर ,
भीतर ही भीतर तरसते हैं प्रेम को
मगर अपनाने से डरते हैं,
ठोकर खाए लोग
ठोकरें ही देते हैं बदले में .... !

- आनंद




बुधवार, 20 अगस्त 2014

भरोसा

अब … जबकि
दिन ब दिन
तुम्हें 'तुम' कहना मुस्किल होता जा रहा है
मैं समेट रहा हूँ
धीरे धीरे
अपने सारे शोक गीत
और उनके साथ लिपटी अपनी परछाइयाँ
रखूँगा सहेज कर
इन सबको
एक ही कपड़े में बाँधकर
अपने इस भरोसे के साथ
कि एक न एक दिन प्रेम
ज्यादा जरूरी होगा
सुविधा और सुक़ून से  !

- आनंद


मंगलवार, 19 अगस्त 2014

तुम्हारा वज़्न

ग़ज़ल के मिसरे में
एक वज़्न ज्यादा तो हो सकता है
पर हरगिज़ नहीं चल सकता एक वज़्न कम

इसीलिए जब तुम नहीं होते
नहीं होती हैं मुझसे ग़ज़लें
नहीं बनते हैं मिसरे

तब मैं रहता हूँ
केवल
अतुकांत  
तुम...
मेरा तुक भी हो
अंत भी !

- आनंद 

बुधवार, 13 अगस्त 2014

शिकायतें

जब देखो
मेरे आसपास  बिखरी पड़ी रहती हैं
मेरी ही अनगिनत शिकायतें
ज्यादातर तुमसे
कुछ ईश्वर से
और कुछ अपने आप से 

असल में वो मेरी

उम्मीदें हैं 
जो शिकायतों का भेष बनाकर
उन उनसे मिलती हैं
जिनसे वो हैं

- आनंद 

शनिवार, 9 अगस्त 2014

शब्दों में धड़कन ले आओ

शब्दों में धड़कन ले आओ
बातों में जीवन ले आओ

धरती पर आकाश न लाओ
जन तक गण का मन ले आओ

बच्चे फिर गुड़ियों से खेलें
जाकर उनसे 'गन' ले आओ

थोड़ा कम विकास लाओ पर
बच्चों में बचपन ले आओ

जंग असलहों में लग जाए
ग़ज़लों में वो फ़न ले आओ

शहर बसाने वालों उसमें
अम्मा का आँगन ले आओ

मत ढूंढो आनंद कहीं पर
केवल सच्चा मन ले आओ

- आनंद

शुक्रवार, 8 अगस्त 2014

उसकी बातें

गाढ़े वक़्त के लिए बचाए गए धन की तरह
वह खर्च करती है
एक एक शब्द ;
न कम न ज्यादा,

और मुझे ....
उतने से ही चलानी होती है
अपने प्रेम की गृहस्थी,

महीने के उन दिनों में भी
जब वह नहीं खर्चती एक भी शब्द ...!

- आनंद

सोमवार, 4 अगस्त 2014

तेरा होना

दुनिया के सारे अभावों
सारी कमियों पर भारी पड़ता है
एक तेरा होना
तेरा होना हूबहू तो नहीं पर
कुछ कुछ वैसा ही है
जैसे एक सैनिक ने पहन रखा हो कवच
और ले रखी हो ढाल जीवन की सबसे कठिन लड़ाई में,
जैसे भाई की बीमारी की ख़बर सुन
झट से आ गया हो
परदेश गया भाई,
जैसे निराशा भरे समय में चुपचाप रख दे
कोई दोस्त कंधे पर अपना हाथ,
जैसे पिता के होते बच्चों के जीवन में बनी रहे
एक अनजान लापरवाही,

तेरा होना कुछ कुछ वैसा ही है
जैसे सरहद पर किसी फौजी को मिल जाए
घर से आई चिट्ठी,
जैसे जेठ की किसी बेहद गर्म शाम में
हल्के हल्के झोकों से चल पड़े पुरवाई,
जैसे हवनकुंड हो जाये यह सारी देह
दूर तक हवा की दिशा में जाए
गूगर धूप और चंदन के जलने की महक,
जैसे जीवन की राहों पर मिल जाए
अपना मनचाहा साथ,
जैसे तारों भरी आधी रात में
नाच उठे कोई फ़कीर,

असल में तेरा होना
कुछ कुछ वैसा ही है
जैसे मुकम्मल हो जायें
जीवन के लाखों आधे अधूरे ख्वाब !

- आनंद