रविवार, 10 अप्रैल 2011

मुझको अक्सर भड़काते है ये सपने


क्या क्या सपने दिखलाते हैं ये सपने,
एकदम पीछे पड़ जाते हैं,  ये सपने   !

मैंने हर खिड़की दरवाजा बंद किया था,
जाने किस रस्ते आते हैं,  ये सपने    !

इनको मालूम है मैं इनसे डरता हूँ,
मुझे डराने आ जाते हैं,   ये सपने !

इनको अक्सर मैं समझाकर चुप करता हूँ,
मुझको अक्सर भड़काते  हैं,   ये सपने  !

जब-जब इनके डर से नींद नहीं आती है,
तब-तब दिन में आ जाते हैं,  ये सपने !

वैसे तो ये अक्सर,  झूठे  ही  होते  हैं,
कभी-कभी सच दिखलाते हैं, ये सपने !

जब-जब  मेरी हार, मुझे  तडपाती   है ,
तब-तब आकर  समझाते  हैं, ये सपने !

ये 'आनंद' गया तो , लौटे   न  लौटे ,
इसी बात से  घबराते  हैं, ये सपने ! 

--आनंद द्विवेदी ०९-०४-२०११