सोमवार, 31 दिसंबर 2012

पीर पराई ...


एक पखवारा
बहुत होता है किसी अनुष्ठान के लिये
बहुत दिन हो गए
तुम्हें समाज सुधारक बने हुए
जाओ
नकाबें उतार दो अब
रात के जश्न में मिलते हैं  बाय !

- आनंद  

शनिवार, 29 दिसंबर 2012

हमें आशीर्वाद दे .... !

देख तो ...
क्या कर गयी तू  !
फूंक दिया प्राण
सोई हुई चेतना में सारे देश की
प्राण देने से पहले,
बात अब केवल तेरे गुनहगारों की कहाँ रही
तेरे रक्त की एक-एक बूँद ने
अनगिनत सुप्त हृदयों में भी
क्रांति को जन्म दे दिया है
देश को अब तक तुम्हारा नाम नहीं पता
पर आज फूट फूट कर रोया है
वह तेरे लिए !

मेरी बेटी
जरा देख तो
तेरी रक्षा न कर पाने का कलंक
धोना चाहता है यह देश
हमें आशीर्वाद दे
कि हम सब कामयाब हों !

- आनंद



गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

अमन की बातें न कर तू


अमन की बातें न कर तू, भले चिंगारी न देख 
पूरा गुलशन देख भाई, एक ही क्यारी न देख

नज़र में मंज़िल है तो फिर, राह दुश्वारी न देख 
हौसले भी देख अपने, सिर्फ लाचारी न देख

मशवरा करके कभी तूफ़ान भी आये  हैं क्या
बाजुओं पर भी यकीं कर, सारी तैयारी न देख

ऐ मेरे शायर हक़े-माशूक़ की खातिर ही लड़
इल्तज़ा है वक़्त की तू खौफ़ सरकारी न देख

आग भरदे ग़ज़ल में, अशआर को बारूद कर
भूल जा काली घटा अब आँख कजरारी न देख

देखना ही ख्वाब हो तो जुल्म से लड़ने के देख
अपनी दुनिया खुद बदल 'आनंद' की बारी न देख

- आनंद


मंगलवार, 25 दिसंबर 2012

लाठियाँ खा-खा के बच्चों ने हमें दिखला दिया

कहूँ मैं कैसे मोहब्बत की कहानी दोस्तों
दाँव पर जब लग गयी है जिंदगानी दोस्तों

साफ कहता हूँ कि मैं अपने लिये चिल्ला रहा
मेरे घर में भी तो  है बेटी सयानी दोस्तों

जुल्म खुद हैरान है इस जुल्म का ढंग देखकर
पर नहीं सरकार की आँखों में पानी दोस्तों

लाठियाँ खा-खा के बच्चों ने हमें दिखला दिया
कम नहीं है आज भी जोशो-जवानी दोस्तों

हम बदलकर ही रहेंगे सोच को, माहौल को,
हो गयी कमज़ोर दहशत हुक्मरानी दोस्तों

झांक ले 'आनंद' तू अपने गरेबाँ में भी अब
वरना रह जायेंगी सब बातें जुबानी दोस्तों

 - आनंद



गुरुवार, 20 दिसंबर 2012

आज हर मर्द ही शक़ में शुमार है यारों .

इस क़दर गिर गया अपना मयार है यारों
आज हर मर्द ही शक़ में शुमार है यारों

शाम होते ही सहम जाती है बेटी मेरी
शहर है  या कोई  ख़ूनी दयार  है यारों

कौन जाने किधर से चीख उठेगी अगली
ज़ेहन में आजकल दहशत सवार है यारों

गुनाहगार के संग सोच भी सूली पाए
मेरा जरा सा अलहदा विचार है यारों

हर तरफ शोर है गुस्सा है भले लोगों में
गोया सागर में शराफत का ज्वार है यारों 

आइये कर सकें भरपाई तो करदें उसकी 
क़र्ज़ बहनों का अभी तक उधार है यारों

 - आनंद

मंगलवार, 18 दिसंबर 2012

हादसों की दिल्ली ... सितम की राजधानी

जीवन रक्षक मशीन के सहारे
सफदरजंग अस्पताल की आई सी यू में
कुछ घंटे या फिर कुछ दिन और जियेगी एक लड़की
फिर या तो वह 'ठीक' हो जायेगी
या मर जायेगी


एक लड़की जो इस महान देश की ऐतहासिक राजधानी के
सबसे समृद्द इलाकों में से एक में
निकल पड़ी रात को घर से
बिना सायरन बजाती हुई गाड़ियों के काफिले के,
अकेले निकल पड़ी
केवल एक अपने पुरुष साथी के साथ
जुर्रत तो देखिये उस लड़की की
उसने समझा इस देश की राजधानी को शायद अपने गांव अपने घर की तरह सुरक्षित 
हर कोने हर नुक्कड़ हर संभव जगह पर घात लगाये बैठे  रहने वाले नर पिसाच
शायद छः थे वो
पैरामेडिकल कोर्स कर चुकी वह बहादुर लड़की जरूर लड़ी होगी
जी जान से किया होगा उसने विरोध
पर पहले उसे अधमरा कर दिया गया उसके साथी को भी लहूलुहान कर दिया गया
फिर एक -एक करके सब ने सिद्ध किया अपना पुरुष होना
और फिर जब दोनों हो गए अचेत
नहीं सह पाये अत्याचार
तो उन्हें मरा समझकर , चलती बस से ही
फेंक दिया गया एक फ्लाईओवर से नीचे ।

कैसी लगी यह कहानी
दर्दनाक है न ?
तो एक काम करो अपन-अपना कंप्यूटर ऑन करो
एक जगह है फेसबुक
वहाँ अपनी छवि चमकाते हैं हम सब मिलकर
देखते हैं कौन महिलाओं का सबसे बड़ा हितैषी साबित होता है
सामने रखी गरमागरम चाय सिप करते हुए
मुद्दे की गंभीरता से परचित कराते हैं 
देश और समाज को
आखिर हम जागरूक इंसान हैं भई !

जे एन यू के लड़के हैं न 
वो कर तो रहे हैं विरोध प्रदर्शन
"अब क्या करें जान दे दें क्या"
"और फिर मेरे जान देने से मसला हल हो जाए जान भी दे दें"

जान तो देती रहेंगी 
बच्चियां
औरतें 
अभी और न जाने कब तक ...
‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः’

आक्क थू
हाँ थूकता हूँ मैं
हम सबके ऊपर
अपने ऊपर भी !

-आनंद  

सोमवार, 17 दिसंबर 2012

गैर को गैर समझ

गैर को गैर समझ यार को यार समझ
रब किसी को न बना प्यार को प्यार समझ

वक़्त वो और था जब हम थे कद्रदानों में
ये दौर और है इसमें मुझे  बेकार समझ

तू जो क़ातिल हो भला कौन जिंदगी माँगे
जिस तरह चाहे मिटा, मुझको तैयार समझ

बावरे मन ! तेरी दुनिया में कहाँ निपटेगी
वक्त को देख जरा इसकी रफ़्तार समझ

तेरा निज़ाम है, मज़लूम को  भी जीने दे
देर से ही सही इस बात की दरकार समझ

धूप या छाँव तो  नज़रों का खेल है प्यारे
दर्द का गाँव ही 'आनंद' का घर-बार समझ

- आनंद







रविवार, 16 दिसंबर 2012

हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी ...


किसी की हँसी में शामिल हो जाऊं
याकि उदास हो जाऊं किसी को उदास जानकार,
ढेर सारी वो बातें सुनूं बैठकर
जिन में मैं कहीं नहीं रहूँ
याकि शामिल हो जाऊं एक लम्बी चुप्पी में,
रो पडू किसी को नाराज करके
याकि हंस दूं जब कोई मुझे नाराज़ समझे,
छुट्टी के दिन भी फोन को दिन भर चिपकाए घूमूं,
यह जानते हुए भी कि कोई फोन या मैसेज नहीं आएगा,
हज़ार उपाय करूँ किसी की नज़र में अच्छा होने के लिए
याकि बुरा हो जाऊं किसी की नज़र में
मगर उसका बुरा न होने दूं,
इतना पास रहूँ किसी के कि आदत बन जाऊं
याकि इतना दूर हो जाऊं कि बन जाऊं याद,
 
ऐसी ही अनगिनत छोटी-छोटी चाहतें लिए एक दिन
मर जाऊंगा
किसी बेहद आम इंसान की तरह 
ख़ामोशी से बिलकुल गुमनाम....! 

-आनंद  

सोमवार, 10 दिसंबर 2012

मेरी हार


तुम्हारी जीत
हो सकती है
पर मेरा हारना नहीं है
कोई इत्तेफ़ाक,

हारना मेरा चुनाव है
बचपन में हारा साथ खेलने वालों से
स्कूल में ट्यूशन पढ़ने वाले साथियों से
घर में जब तक और कोई नहीं था तब तक माँ से ही हारता रहा
कभी कभार दिल भी हारा गाँव-गली में,
जरूरतों से हारकर बार-बार विस्थापित हुआ
मालिक से हारा
मकान मालिक से हारा
सरकार से हारा
चाटुकार से हारा
साहूकार से हारा
सच्चों से हारा
लुच्चों से हारा
बच्चों से हारा
मंहगाई से हारा
जग हंसाई से हारा  ...
एक लंबा इतिहास है मेरे हारने का
तुम न भी जीतते
तो भी मैं हारता
बस फर्क यही है कि इस बार खुद को ही हार गया मैं...

क्योंकि जब तुम मिले
कुछ और नहीं बचा था मेरे पास सिवाय
मेरे अपने होने के अहसास के... !

 - आनंद

गुरुवार, 6 दिसंबर 2012

भाव की झंकार ही संगीत है


मौन का साधक तिमिर से क्या डरेगा

मौन है रजनी गहन तम मौन है
मौन है पीड़ा जलन भी मौन है
शब्द से ध्वनि से जगत को क्या रिझाऊं
आत्मा है मौन प्रियतम मौन है

जो अमर है वो मरण से क्या डरेगा
मौन का साधक तिमिर से क्या डरेगा..

शब्द भी है नाद भी है, आत्मा भी
नृत्य करता अहिर्निशि परमात्मा भी
भाव की झंकार ही संगीत है
अब अकेले का जगत ही मीत है

शम्भु कोई विष-वरण से क्या डरेगा
मौन का साधक तिमिर से क्या डरेगा

मैं नही जानूँ कुमारग क्या बला है
कब कोई दरवेश मारग पर चला है
कोई भी मंजिल नहीं इच्छित हमारी
दूरियाँ लगतीं हृदय को बहुत प्यारी

पथिक कोई भी, डगर से क्या डरेगा
मौन का साधक तिमिर से क्या डरेगा

-  आनंद

बुधवार, 5 दिसंबर 2012

डर लग रहा है दोस्तों का प्यार देखकर

इंसान को हर सिम्त से लाचार देखकर
हैराँ हूँ आज वक्त की रफ़्तार देखकर

माँ रो पड़ी ये सोचकर जाए वो किस तरफ
आँगन के बीच आ गयी दीवार देखकर

माली के हाथ में नहीं महफूज़ अब चमन
डाकू भले हैं, मुल्क की सरकार देखकर

दुनिया के सितम का तो खैर कोई ग़म नहीं
डर लग रहा है दोस्तों का प्यार देखकर

'आनंद' शाम तक तो बड़ा खुशमिजाज़ था
सहमा  हुआ है आज  का अख़बार देखकर

- आनंद 

गुरुवार, 29 नवंबर 2012

कोई आवाज़ न आये तो खुशी होती है

शाम तनहा चली जाए तो खुशी होती है
इन दिनों  कोई रुलाये तो खुशी होती है

उम्र भर उसको पुकारा करूँ दीवानों सा
कोई आवाज़ न आये तो खुशी होती है

तेरे आगोश के जंगल में हिना की खुशबू
आजकल याद न आये तो खुशी होती है

दोस्ती दर्द से ऐसी निभी कि पूछो मत
अब खुशी पास न आये तो खुशी होती है

चाहे जीते जी लगाये या बाद मरने के
आग़ अपना ही लगाये तो खुशी होती है

जहाँ में कोई सबक मुफ़्त नहीं मिलता है
जिंदगी फिर भी सिखाए तो खुशी होती है

ख़्वाब 'आनद' के टूटे तो  इस कदर टूटे
अब कोई ख़्वाब न आये तो खुशी होती है

-  आनंद


सोमवार, 26 नवंबर 2012

आना-पाई हिसाब आया है



मेरे हिस्से  अज़ाब  आया  है
और  उनपे  शबाब आया है

एक क़तरा भी धूप न लाया
बेवजह आफ़ताब  आया है

पहले खत में नखत निकलते थे
बारहा   माहताब  आया  है

खुशबुएँ  डायरी से गायब हैं
हाथ, सूखा गुलाब आया है

मुझको इंसान बुलाना उनका
क्या कोई  इंकलाब  आया है

अब वहां कुछ नहीं बचा मेरा
आना-पाई हिसाब आया है

मेरा मुंसिफ  मेरे गुनाहों की
लेके मोटी किताब आया है

पहले 'आनंद' था ज़माने में
धीरे-धीरे हिज़ाब  आया है

- आनंद





रविवार, 25 नवंबर 2012

निजता की राह

अपनी ओर
जाने वाला कोई भी रास्ता
नहीं है
पहले से निर्धारित
इसीलिये होती है बड़ी मुस्किल
अनुसरण करने वालों को
बहुत कठिन है
हर समय
खुद के ही अहंकार द्वारा लगाये गए
दिशा और दूरी सूचक
सूचना पटों से बच पाना

हर पल अनिश्चित,
निपट एकांतिक सफर में
बड़े काम की होती है दीवानगी खुद से मिलने की
और जिद खुद को मिटाने की
जब पाने को कुछ न हो ... इच्छा भी नहीं
तब शुरू होती है अपनी पहली झलक
अगर कुछ पाना शेष है
तो फिर वहीँ ठहरिये
चमकते हुए राजमार्ग पर

क्योंकि निजता की पगडंडी
नहीं देती कुछ भी
सिवाय मुक्ति के !

 - आनंद


शुक्रवार, 23 नवंबर 2012

सूचनार्थ ...

ब्लॉग पर कमेन्ट सभी आमो-खास के लिये बंद (ब्लाक) हैं  कृपया कोई भी इसे व्यक्तिगत न ले ! 

रंगमंच







एक नाटक में 
मुझे पति का किरदार मिला 
तुम्हें पत्नी का 
दोनों खरे नही उतरे 
वैसे तुम
जब भी माँ का किरदार करती हो
गज़ब जान डाल देती हो
और पिता का रोल तो मैं भी ठीक ठाक निभा लेता हूँ 
एक बार प्रेयसी का रोल करो ना 
तुम्हें इस किरदार में देखना
मेरी गिनी चुनी अधूरी इच्छाओं में से एक है !

मैं जानता हूँ 
जिंदगी के इस रंगमंच पर
न तुम्हारी इच्छा कोई मायने रखती है 
और न ही मेरी 
वैसे भी नाटक में पात्रों का निर्धारण 
पात्रों की इच्छा पर नही 
निर्देशक की इच्छा पर होता है 
अब देखो न 
तुम मुझे राम के किरदार में देखना चाहती थी 
मगर मुझे मिला 'रमुआ' का 
ठीक वैसे ही ..जैसे 
मैं तुम्हें गांधारी के किरदार में देखना चाहता था 
पर तुम्हें मिला 
'अम्बा' का |

जब भी नाटक का पटाक्षेप होगा 
पात्र नहीं 
अभिनय याद किया जाएगा 
आओ हम दोनों
अपने अपने किरदारों को जीवंत करे 
क्योंकि 
यही हमें करना है !!

-
आनंद  
२२ मई २०१२ !

बुधवार, 21 नवंबर 2012

विज्ञान आओ करके सीखें !



(एक)

तुम्हारी आँखों की उपरी बरौनियाँ
मुझे लगती हैं स्वर्ग
नीचे वाली धरती
आँख का सफेद हिस्सा
निस्सीम फैला आकाश
और
काली पुतली लगती है
इस अनंत का ब्लैकहोल...

अब कोई जानबूझकर ब्लैकहोल में कूदेगा
तो बचेगा  कैसे भाई !



(दो)

विज्ञान के अनुसार
दिल के धड़कने की गति
गर्भस्थ शिशु में ७० से ११० धड़कन प्रति मिनट
बालक की ७० से ९०
सामान्य आदमी की ६८ से ७५
अच्छे स्वास्थ्य और खिलाड़ियों की ४९ से ६५
आदमी जितना दुर्बल होगा
हृदय गति उतनी ही तेज
महिलाओं के दिलों की धड़कन पुरुषों की तुलना में अधिक होती है
बस यहीं बात समझ नहीं आयी मुझे
जिनके लिये धड़कता है  उनकी धड़कन तेज  ?
बहरहाल
अब ये विज्ञानसम्मत सच है कि
दिल का मामला हमेशा ही विरोधाभाषों से भरा रहता है

काश !
दीवानों और कवियों  की एक अलग श्रेणी होती
आखिर दिल की बात
इनसे बेहतर और कौन जानता है !


(तीन)


विज्ञान ने बताया 
कि 
आँसुओं में 
होता है 
एक भाग आक्सीजन 
दो भाग हाइड्रोजन 
और बाकी का 
सोडियम क्लोराइड 

फिर मैंने धीरे से पूछा ...और वो ?



कोई ज़बाब नहीं...

मुझे पहले ही शक़ था
न तेरा पता मिलना
इतना आसान है

मेरे आँसुओं का हिसाब...




- आनंद
 

बुधवार, 14 नवंबर 2012

टोका ग़ज़ल ने एक दिन


सुनते थे  इश्क से बड़ा मज़हब  नहीं होता
जाना कि इश्क से बड़ा करतब नहीं होता

मैं चाहता था प्यार में थोड़ा वफ़ा का रंग
मालुम हुआ कि आजकल ये सब नहीं होता

वो द्रोपदी की चीर के किस्से का क्या करूँ
बुधिया की आबरू के लिये रब नहीं होता

टोका ग़ज़ल ने एक दिन, जो कह रहे मियां
उससे किसी गरीब का  मतलब नहीं होता

जन्नत की राह होंगी यकीनन तेरी जुल्फें
'आनंद' से जन्नत का सफ़र अब नहीं होता


सोमवार, 12 नवंबर 2012

अभी बहुत दूर है वो दीपावली



जब तक इन घरों में  उजाला नहीं होता
क्या मतलब है मेरे घर में हो रही जगमग का
मैं मान लेता यह बात कि सबका नसीब होता है उसके साथ
यदि
हमने ईमानदारी से इन्हें मौका दिया होता
प्रकृति से आयी निर्बाध रश्मियों को इन तक निर्बाध ही जाने दिया होता
हम मनुष्यों ने किया है मनुष्यों के खिलाफ षड़यंत्र
दोषी हैं हम इनके जीवन के अंधेरों के लिये
और चालाकी की हद तो यह है कि हम आज भी यह बात मानने  को राजी नहीं ....
बुधुआ, कलुआ, रमुआ अभी भी महेसवा ..और न जाने कितने 'आ'
अभी बहुत दूर है वो दीपावली जिसे तुम उमंग से मनाओगे
शायद  मैं तब तक नहीं रहूँगा
काश मैं उस दीपावली का हिस्सा होता
मैं एक बार तुम सबके साथ
छुरछुरिया जलाते हुए नाचना चाहता हूँ
मगर मेरी दिक्कत है कि मैं ढोंग नहीं कर सकता
और इसीलिये शंका में हूँ कि मेरे जीवन में
वैसी दीपावली
शायद ही आये !

- आनंद

रविवार, 11 नवंबर 2012

तुलसी भीतर बाहरो जो चाहसि उजियार !



अँधेरे का नहीं है कोई अस्तित्व
वो तो बस
अभाव भर है
प्रकाश का
अँधेरा
न काट सकते हैं, नाही धक्का देकर भगा सकते हैं
न जला सकते हैं न मिटा सकते हैं
अँधेरे के साथ कुछ भी करना हो तो
प्रकाश के साथ कुछ करना पड़ता है
इसे मिटाने के लिए जलाना पड़ता है प्रकाश को
इसे लाने के लिए बुझाना पड़ता है प्रकाश को

प्रकाश के साथ सब क्रियाएँ संभव हैं
जलते को बुझायाजा सकता है
बुझते को जलाया
एक कमरे में नहीं तो दूसरे से ले आये
अपने घर में नहीं तो पड़ोसी से ले आये

फिर भी है, अँधेरा .....है !
जो नहीं है वो है
जो है वो नहीं है ....
शायद जो है वो दिखता नहीं हमें अपने अहं के कारण
क्या हमारा खुद को न जानना ही तो इसका कारण नहीं
चालीस साल तक आनंद  साथ रहा बुद्ध के
और नहीं जला दीप
अंत में कहना पड़ा बुद्ध को कि 'अप्प दीपो भव'
महानिर्वाण के दो दिन बाद ही आनंद हो गया था प्रकाशित फिर
आयातित प्रकाश
कोठरी में उजाला तो ला सकता है
पर निज में नहीं
एक युक्ति 'बाबा' भी बता गए हैं
"राम नाम मणि दीप धरु जीह देहरी द्वार
तुलसी भीतर बाहरो जो चाहसि  उजियार "
चुनाव आपका अपना है



प्रकाश की शुभकामनाओं के साथ...
-आनंद






शनिवार, 10 नवंबर 2012

भला शख्स कब का खुदा हो गया

सुना है कि अहले वफ़ा  हो  गया
मेरा यार किस पर फ़िदा हो गया

हमारी  सदाएँ  न  सुन  पायेगा
वो मासूम, कब का खुदा हो गया

मैं मुद्दे की बातें तो करता मगर
मेरा  नाम ही  मुद्दआ हो  गया

दिलों की जहाँ से निभी कब मियाँ
मनाया इसे, वो ख़फा हो गया

किसे चाह तर्के-तआल्लुक की थी
जुदा होने वाला  जुदा हो गया

कसम है जो मुँह में जुबाँ भी मिले
मेरा हाल कैसे  बयाँ  हो  गया  ?

तमाशे दिखाने  लगा  दर ब दर
ये 'आनंद' शायर से क्या हो गया

- आनंद
९-११-१२





मंगलवार, 6 नवंबर 2012

हमारी दुनिया

चित्र साभार : इंदिरा विदी 



मैं सोंचता हूँ
कैसे ...
कैसे जा सकते हो तुम
मेरी दुनिया से बाहर 
मैं पूछता हूँ
क्या जा सकते हो
इस आसमाँ से बाहर 
अलग कर सकते हो अपना सूरज 
बना सकते हो 
एक नया चाँद 
एक नयी आकाशगंगा  ?
जब तक तुम अपना सूरज और चाँद 

अलग नहीं कर लेते 
मैं रहूँगा यहीं
तुम्हारी दुनिया में !

कल सुबह जरा जल्दी उठना
और देखना 
सूरज पूरब से ही निकलेगा 
और मैं ये दावे के साथ कह सकता हूँ कि वो 
लाल ही होगा
अगर 
तुमने अंगडाई न ली तो ....
असल में तुम्हारी इस क्रिया के बाद
प्रकृति में क्या क्या बदलाव आते हैं ..
ये उसे खुद पता नही होता 
मैं कहता हूँ 
कवियों और शायरों के बहकावे में मत आओ
देखो हकीकत यही है कि 
मैं अब भी 
तुम्हारी उसी दुनिया में हूँ
जहाँ दोनों की सुबहें साथ होती हैं 
दिन भी 
शामें भी 
और रात भी !

कसमें ...
दीवानों को रोक सकती हैं 
दीवानापन नही 
दीवारें ...
जिस्मों को रोक सकती है 
अहसास नहीं 
समय ...
मौसम बदल सकता है 
प्रेम नही !!

-आनंद 
१४ मई २०१२

मंगलवार, 30 अक्टूबर 2012

क्यों पराजय लग रहा है प्यार तुझको

दर्द क्यों है, क्या नहीं स्वीकार तुझको ?
क्यों पराजय लग रहा है प्यार तुझको

दैन्य से दुनिया भरी है क्या मिलेगा
ज़ख्म वाला ज़ख्म तेरे क्या सिलेगा
चाहता जो खुद किसी की सरपरस्ती
इन  बुतों में ढूंढता तू  हाय   मस्ती
बंद भी कर खेल अब सारे  अहम के
दे गिरा  तू  आज सब परदे वहम के

सोच तो ! क्यों चाहिए संसार तुझको
क्यों पराजय लग रहा है प्यार तुझको

आये तो मेहमान घर में कैसे आये
तू खड़ा है द्वार पर सांकल चढ़ाये
चाहते-दुनिया बची तो  क्षेम कैसा
शेष है तू जब तलक फिर प्रेम कैसा
बीच से  खुद को  हटाकर  देख ले
आख़िरी  बाधा  मिटाकर  देख ले

कौन है  जो  रोकता  हर बार तुझको
क्यों पराजय लग रहा है प्यार तुझको

एक बाज़ी खेल तू भी संग अपने
देखता चुपचाप रह तू ढंग अपने
एक दिन फिर तू कहीं खो जायेगा
बस उसी दिन तू पिया को पायेगा
नहीं है तेरा यहाँ पर  मेल कोई
खेलने पाये न मन फिर खेल कोई

अब नहीं  कुछ  चाहिए  रे यार तुझको
दर्द क्यों है, क्या नहीं स्वीकार तुझको
क्यों पराजय लग रहा है प्यार तुझको !



- आनंद
30-10-2012










शुक्रवार, 26 अक्टूबर 2012

प्यार औ सरकार दोनों की रवायत एक है

शायरी में भर रहे थे एक मयखाने  को हम
अब ग़ज़लगोई करेंगे होश में आने को हम

कौन चाहे  मुल्क  का चेहरा बदलना दोस्तों
भीड़ में शामिल हुए हैं सिर्फ चिल्लाने को हम

देखिये लबरेज़ हैं दिल इश्क से कितने, मगर
मार देंगे 'जाति' से बाहर के दीवाने को हम

एक भी दामन नहीं जो ज़ख्म से महफूज़ हो
रौनकें लाएँ कहाँ से दिल के बहलाने को हम

प्यार औ सरकार दोनों की रवायत एक  है
रोज खायें चोट पर मज़बूर सहलाने को हम

इन दिनों 'आनंद' की बातें बुरी लगने लगीं
भूल ही जाएंगे इस नाकाम बेगाने  को हम

- आनंद
26/10/2012




गुरुवार, 25 अक्टूबर 2012

"बुरा जो देखन मैं चला "




कल सबको रावण दिखायी दे रहा था
पुतले वाला नहीं
'असली' वाला
मैं दंग था कि कोई एक तो मिले जो भ्रम में हो
मगर नहीं
रावण को लेकर आश्चर्यजनक रूप से सबकी जानकारी असंदिग्ध थी
वो यहीं है जीवित और हमारे बीच में है
मेरे सिवा हम सब में है |

गज़ब के नौटंकीबाज़ हैं हम ...सच में
धरती पर और कोई प्रजाति
चरित्रवान होने के मामले में
हमारा मुकाबला नहीं कर सकती
कुछ को आज सुबह तक भी दिख रहा था रावण
जो छूट गए हैं उनके लिये
आज शाम या रात तक अंतिम समय सीमा है
फटाफट आसपास नज़र दौड़ाइये
दो चार तो ढूंढ ही लेंगे
अब चूके
तो ऐसे दुर्लभ आत्मज्ञान के लिये
अगली विजयदशमी का इंतज़ार कैसे हो पायेगा
एक पंक्ति याद आती है
"पानी केरा बुदबुदा अस मानुष की जाति"  
 एक साल बहुत होते हैं भाई
'कालि करे सो आज कर'

________________ समर्पित : रावण जी को इस नोट के साथ कि आप मुझसे लाख गुने अच्छे थे | आपके जीवन में भी कुछ सिद्धांत तो थे कम से कम |

शनिवार, 20 अक्टूबर 2012

अब जाना है मुझे


अब जाना है मुझे !
कर लिया इंतज़ार
लिख लिया कवितायें और ग़ज़लें
सबको बता दिया कि तुम हो
मेरे शब्दों में साँसों में
और जीवन में भी
प्राण निकलने से ठीक पहले तक
जब कोई मिलने/देखने आता था
हर बार यही लगा कि... इस बार तुम हो
आखिर इस घड़ी तक तो आस थी ही
सारा जीवन यही तो सोचते रहे,  मरने से पहले कम से कम एक बार...
मन का चोर हर बार कहता रहा 'नहीं' 'वो क्यों ऐसा चाहेंगे'
ऐसे में तुम्हारी बात बार-बार याद आती
"मन के उपद्रव में मत पड़ना, ये लाख भटकाने की कोशिश करेगा"
"अपना यकीन बनाये रखना"
बना रहा मैं सारा जीवन
आशा और निराशा की जंग का मैदान
जब तक साँस तब तक आस
अब लगाना तुम कयास
पहले साँस टूटी
कि आस |

पर तुम्हें क्या पड़ी अपना समय जाया करो
ऐसी बेकार की बातों में,
हो सकता है कभी यह कविता
तुम्हारी नज़र से गुज़रे
इस लिये एक बात बता देता हूँ
मैंने तुम्हारे कहे अनुसार ही हमेशा खिड़की दरवाजे खुले रखे
पर कभी कोई नहीं आया
तुम्हारी ये दुनिया भी
एकदम तुम्ही पर गयी है
हाँ एक साथी मिला था, प्यारा सा
मुझे भाया भी बहुत
पर उसके पास मेरे लिये कुछ नहीं था
समय भी नहीं |

इस लिये अब राम राम !
राम ही क्यों ?
दो कारण हैं  एक तो खून में बहती बाबा की ये चौपाई ;
'जन्म जन्म मुनि जतन कराहीं / अंत राम कहि आवत नाहीं'
और दूजा ये कि
तुम्हारा नाम ले लिया तो फिर ख़्वाब जाग जायेंगे
और मैं
सपनों के बीच में नहीं मरना चाहता |

- आनंद
 २०-१०-२०१२

शुक्रवार, 19 अक्टूबर 2012

कब यहाँ दर्द का हाल समझा गया


बे जरूरत इसे ख्याल  समझा गया
कब यहाँ दर्द का हाल समझा गया

बात जब भी हुई मैंने दिल की कही
क्यों उसे शब्द का जाल समझा गया

महफ़िलें  आपकी  जगमगाती  रहें
आम इंसान बदहाल  समझा गया

हमने सौंपा था ये देश चुनकर उन्हें
मेरे चुनने को ही ढाल समझा गया

हालतें इतनी ज्यादा बिगड़ती न पर
देश को मुफ़्त का माल समझा गया

हाल  'आनंद'  के यूँ  बुरे  तो  न  थे
हाँ उसे जी का जंजाल समझा गया


- आनंद
१९-१०-२०१२

मंगलवार, 16 अक्टूबर 2012

आनंद मिल भी जाएगा वो पास ही तो है

ख्वाबों सा टूटकर कभी ढहकर भी देखिये
जीवन में धूपछाँव को सहकर भी  देखिये

माना कि प्रेम जानता है मौन की भाषा
अपने लबों से एकदिन कहकर भी देखिये

धारा के साथ-साथ तो बहता है सब जहाँ
सूखी नदी  के साथ में बहकर भी देखिये

अपना ही कहा था  कभी इस नामुराद को
अपनों की बाँह को कभी गहकर भी देखिये

जन्नत से  देखते हो दुनिया के तमाशे को
कुछ वक्त  मेरे साथ में   रहकर भी देखिये

'आनंद' मिल भी जाएगा  वो  पास ही तो है
अश्कों की तरह आँख से बहकर भी देखिये

-आनंद
१५-१०-२०१२ 

शनिवार, 13 अक्टूबर 2012

आँसू और सुगंध ...



तुम से मिली उपेक्षा से चिढ़कर
बहुत सारी बुराइयाँ आ बैठीं मुझमे
और जितनी भी अच्छाइयाँ हैं मेरे अंदर
वह सब की सब तुम्हारी हैं
बात बात में टोकना तुम्हारा
मैं झुंझला जाता था भले प्रकट नहीं करता था
पर तुम इस सबसे अंजान
बना रही थी
एक इंसान अपनी सोंचो के अनुरूप
आवरण और अहं विहीन
नतीजा आने तक तो रुकते तुम ...
तुम्हें किंचित भय था
इस राह से वापस न लौट जाऊं मैं बिना किसी सहारे के
पाकर खुद को अकेला
मगर
कहाँ जाऊं लौट कर
दुनिया जो पीछे छूट गयी है उसमें ?
अर्थहीन हो चुके संबंधों में ?
या फिर शब्दों और चेहरों की रेलमपेल में ?
आश्वस्त हो जाओ
मुझे अब पीछे मुड़कर देखना भी अजीब लगता है
खो गया है कहीं मेरा होना
जिसे नहीं ढूँढना चाहता मैं दुबारा
मैंने पार कर लिया है
वह चौराहा
जिस पर लाकर छोड़ा था तुमने
छोड़ आया हूँ पीछे वो सब जो मैं जानता था
आगे कुछ भी पहले से जाना हुआ नहीं है
अब तो हालात यह है कि
अगर कोई अगरबत्ती न जलाए
तो मुझे
महीनों तुम्हारी याद भी न आये

आँसू और सुगंध
नहीं नहीं
पानी और हवा
मुझे आज भी चाहिए जीने के लिये |

- आनंद
९/१०/१२

शुक्रवार, 12 अक्टूबर 2012

अजीब शख्स था अपना बना के छोड़ गया


हरेक  रिश्ता सवालों  के  साथ जोड़  गया
अजीब शख्स था, अपना बना के छोड़ गया

कुछ इस तरह से नज़ारों कि बात की उसने
मैं खुद को छोड़ के उसके ही साथ दौड़ गया

तिश्नगी तो न बुझायी गयी दुश्मन से मगर
पकड़ के हाथ  समंदर के पास  छोड़ गया  

मेरी दो बूँद से ज्यादा कि नहीं  कुव्वत थी 
सारे बादल मेरी आँखों में क्यों निचोड़ गया

कहाँ से लाऊं  मुकम्मल वजूद  मैं  अपना 
कहीं से जोड़ गया वो  कहीं से तोड़ गया 

हर घड़ी  कहता था 'आनंद'  जान हो मेरी
कैसा पागल था अपनी जान यहीं छोड़ गया 

-आनंद 
१४ मई २०१२ 

गुरुवार, 11 अक्टूबर 2012

बेशक मैंने दुनिया को चुना




बीते कई दिनों
एक ग़ज़ल ऐसे लटकी है गले से
जैसे तेरी याद
कुछ शेर आये बाकी के नखरे ...
जब कोई चीज़ हलक में फँसी हो तो
दुनिया में कुछ भी अच्छा नहीं लगता
जैसे लंगड़ डाली हुई गाय
कहने को छुट्टा छोड़ दी गयी हो चरने के लिये
पीड़ा को कहना ज्यादा मुश्किल है
बनिस्बत पीड़ा को जीने के
मैंने भी तो कहने का रास्ता चुना
तुम्हारी एक न सुनी
बेशक मैंने दुनिया को चुना
और सींचता रहूँगा अपने लहू से
इस क्यारी को
ताकि तुम इस में मनचाहे रंगों के फूल खिला सको
रोज बदल सको
रस रंग और सुगंध
आत्मा और आध्यात्म के नाम पर

आत्मा और आध्यात्म
सच में मुक्त करता है जीवन को
मगर उनको जिनके पेट भरे हों
जो भूखे हों उन्हें आध्यात्म नहीं
भगवान का ही सहारा होता है
और आत्मा
इसे भी मजदूर की देह से उतनी ही चिढ़ है
जितनी आध्यात्म को अज्ञान और मोह से
आत्मा को भाती है...
सन्सक्रीम, कोल्डक्रीम और माश्चरायज़र लगी त्वचा
गर्व से निवास करती है वो उसमें
और आध्यात्म ...
क्या कहूँ
तुम्हारा जीवन और तुम्हारा प्रेम
काफ़ी है सब कुछ कहने के लिये |


- आनंद
११-१०-२०१२

मंगलवार, 9 अक्टूबर 2012

रहोगे न ?

हजार बार मन किया 
बेवफा कह दूं तुझे पर तेरी आँखें 
देखने लगती हैं मुझे एकटक 
मुझे वो तुम्हारा हिस्सा नहीं लगती 
वो न तो झुकती हैं 
न इधर उधर देखती हैं 
और न ही कोई बहाना करती हैं 
बस ऐसे देखती हैं 
जैसे कोई देखता है खुद को आईने में दिन भर के बाद 
मैं खुश हो जाता हूँ
तुम में कुछ तो है अभी बाकी मेरा
वफ़ा बेवफाई
दूरियाँ नजदीकियाँ
मिलन वियोग
प्रेम और प्रेम भी नहीं
ये तो सब जीवन का हिस्सा हैं
जब तक जीवन रहेगा ये सब रहेंगी ही
मगर तुम तो जीवन के बाद भी रहोगे
रहोगे न ?


चौरासी लाख कम नहीं होते यार
मुझसे अकेले
इतना चक्कर नहीं काटा जाएगा |


-आनंद
8-10-2012 

शनिवार, 6 अक्टूबर 2012

जंग ये जारी नहीं तो और क्या है दोस्तों

भूख लाचारी नहीं तो और क्या है दोस्तों
जंग ये जारी नहीं तो और क्या है दोस्तों

अब कोई मज़लूम न हो हक़ बराबर का मिले
ख़्वाब  सरकारी  नहीं तो और क्या है दोस्तों

चल रहे भाषण महज औरत वहीं की है वहीं 
सिर्फ़ मक्कारी नहीं तो और क्या है दोस्तों

अमन भी हो प्रेम भी हो जिंदगी खुशहाल हो
राग दरबारी नहीं  तो  और  क्या  है  दोस्तों

नदी नाले  कुँए  सूखे,  गाँव  के  धंधे  मरे
अब मेरी बारी नहीं तो और क्या है दोस्तों

इश्क मिट्टी का भुलाकर हम शहर में आ गए
जिंदगी प्यारी नहीं तों और क्या है दोस्तों

- आनंद
०६-१०-२०१२ 

गुरुवार, 4 अक्टूबर 2012

रास्ते तो न मिटाए कोई

बेवजह अब  न  रुलाये  कोई
गर कभी अपना बनाये कोई

दिले-नादाँ को संगदिल करलूं
कैसे, मुझको  भी बताये  कोई

वो नहीं लौटने वाला  लेकिन
रास्ते  तो  न  मिटाए  कोई

दर्द के फूल दर्द की खुशबू
दर्द के गाँव तो आये कोई

मौत आने तलक तो जीने दे
रात दिन यूँ न सताये  कोई

जिनकी महलों से आशनाई हो
क्यों उन्हें झोपड़ी भाए कोई

काश वो भी उदास होता हो
जिक्र जब मेरा चलाये कोई

एक  'आनंद' भी इसमें है जब
खामखाँ खुद को मिटाए कोई

- आनंद
०४/१०/२०१२

बुधवार, 3 अक्टूबर 2012

अपने से दूर तुझको किधर ढूंढ रहा हूँ

मंज़िल  के  बाद  कौन  सफ़र  ढूंढ  रहा हूँ
अपने  से  दूर  तुझको  किधर  ढूंढ  रहा हूँ

कहने को शहर छोड़कर सहरा में आ गया
पर   एक    छाँवदार  शज़र  ढूंढ  रहा   हूँ

जिसकी नज़र के सामने दुनिया फ़िजूल है
हर शै  में  वही  एक  नज़र  ढूंढ  रहा  हूँ

लाचारियों का हाल तो देखो कि इन दिनों
मैं दुश्मनों  में  अपनी  गुजर  ढूंढ  रहा  हूँ

तालीम  हमने पैसे  कमाने  की दी  उन्हें
नाहक  नयी  पीढ़ी  में  ग़दर  ढूंढ  रहा हूँ

जैसे शहर में  ढूंढें  कोई  गाँव वाला  घर
मैं मुल्क  में  गाँधी का असर ढूंढ रहा हूँ

यूँ गुम हुआ कि सारे जहाँ में नहीं मिला
'आनंद' को  मैं  शामो-सहर  ढूंढ रहा हूँ

- आनंद
०२/१०/२०१२ 

गुरुवार, 27 सितंबर 2012

टपकती छत से ...

पानी की  एक बूँद
छत से चली
मुझे देखते हुए
मैं भी देख रहा था उसे ही
आकर आँख के नीचे गिरी
टप्प !
थोड़ी देर बाद एक और चली
मगर मैंने
इस बार लगा दी थी थाली
ठम्म
इस बार वो बंट गयी
सैकड़ों हिस्सों में
मैंने देखा
एक को अनेक होते हुए

ऐसे ही
तेरी याद की एक छोटी सी बूँद
जब भी टकराती है
मेरे पत्थर हो चुके जेहन से
न जाने कितने रंग रूप  और हिस्से
हो जाते हैं
फिर यादों के |

- आनंद 

बुधवार, 26 सितंबर 2012

जाने कैसा रोग लगा है सूरज चाँद सितारों में ...

अब भी कुछ कहना बाकी है तुझसे मौन इशारों में
थोड़ा जीवन बचा हुआ है अब भी इन किरदारों में

हर 'संगम' में किसी एक को खो जाना ही होता है
बचता है बस एक अकेला फिर आगे की धारों में

जलते हैं फिर भी चलते हैं कैसे पागल आशिक हैं
जाने कैसा  रोग लगा है  सूरज  चाँद  सितारों में

नाम आत्मा का  ले लेकर जीवन का सुख  लूटेंगे
दुनिया ने यह बात सिखायी है पिछले त्योहारों में

मुझको यहाँ कौन पूछेगा वापस घर को चलता हूँ
जिनको है  उम्मीद अभी,  वो  बैठे  हैं  बाजारों में

उनका आना  या न आना  उनकी  बातें  वो  जाने
हम  तो  दीप  जलाकर  बैठें  हैं  अपने  चौबारों में

जितनी  बची  हुई हैं  साँसें वो 'आनंद' बिता लेगा
चलते-फिरते  रोते-गाते  यूँ   ही  अपने  यारों  में

-आनंद
२३-०९-२०१२ 

मंगलवार, 25 सितंबर 2012

रस और विचार का संगम .... एक काव्य संध्या ऐसी भी !

कभी कभी  जब शाम भी हो शांति भी हो रविवार भी हो और अचानक अपनों से मिलना हो जाए ...और फिर उस मिलने में कविता भी आकर चुपचाप बैठ जाए चुपके से ...कहीं कोई नज़्म आकर गले में बाहें डाल दे  तो कैसा लगेगा ...ऐसा ही एक बेहद मीठा अनुभव हुआ परसों २३ की शाम श्रीकांत सक्सेना जी के आवास पर   वहाँ पहुंचा तो पाया कि सड़क पर ऑटो से श्री अरुण देव जी उतर रहे हैं और उनके साथ है कर्नाटक से पधारे श्री एस एम जागीरदार साहब !
खैर हम भी खरामा खरामा .... 4A /DB 202 हुडको ट्रांजिट फ्लैट्स ढूंढने में लग लिये और जब मंजिल रूबरू हुई तो इस सुखद आश्चर्य के साथ कि  वहाँ पर गाज़ियाबाद से सुश्री वंदना ग्रोवर जी और निरुपमा सिंह जी को बैठे पाया |

इसे श्री सईद अयूब जी का जादू कहूँ तो शायद अतिशयोक्ति न होगी कि इतनी अल्प सूचना पर आज की मुख्यधारा की कविता के सशक्त हस्ताक्षर और दूरदर्शन के महानिदेशक श्री लीलाधर मंडलोई जी और श्री अरुण देव जी, सीमा सुरक्षा बल में महानिरीक्षक कवि श्री मनोहर बाथम जी , श्री प्रमोद कुमार तिवारी जी हरदिल अज़ीज़ और आला कवि भाई भरत तिवारी जी, सुश्री विपिन चौधरी जी, मेरे प्रिय कवि श्री त्रिपुरारी कुमार शर्मा जी और ये नाचीज़  एकत्रित हो गए ... श्रीकांत सक्सेना जी जो स्वयं एक कवि और माहिर गज़लगो हैं  एक बहुत ही अच्छे मेज़बान भी साबित हुए ! जल और जलपान के साथ गप्प-सड़ाका ये तो वैसे भी किसी भी कार्यक्रम का सबसे प्रिय क्षण होता है !
बहरहाल श्री मंडलोई जी को आने में कुछ देर थी तो सभी के अनुरोध पर सभा की अध्यक्षता का दायित्व श्री  अरुण देव जी ने स्वीकारा और संचालन का गुरुत्तर दायित्व श्री त्रिपुरारी जी ने, और महफ़िल का आगाज़ हुआ भाई भरत की बेहतरीन गज़ल 'बक्से-अहमक' से जिसमे उन्होंने आज की इलेक्ट्रोनिक मीडिया पर गज़ब का तंज किया है ..भरत भाई का लहजा उनकी कविताओं और गज़लों से भी ज्यादा मासूम होता है कला और प्रतिबद्दता उनका दूसरा पहलू है | ... दूसरा नाम लिया गया वंदना ग्रोवर जी का ...गज़ब की संवेदना लिये हुए कवितायेँ और कविता जैसा ही नाजुक उनका काव्यपाठ का अंदाज़ एक और एक और की आवाजें तो आनी ही थीं ! ....फेसबुक पर और मित्रों में समान रूप से लोकप्रिय और आदरणीय,  मृदुभाषी सुश्री निरुपमा जी ने नीलिमा की छटा बिखेरते हुए अपनी एक नायाब कविता 'नीला चाँद' (नामकरण मैंने कर दिया क्षमा प्रार्थना के साथ )  आकाश दृष्टा निरुपमा जी प्रकृति को जब अपनी कविताओं में जीती हैं तो कवितायेँ बोल पड़ती हैं  और जब वो जीवन की विडम्बना पर चोट करती हैं  निशब्द कर देती हैं !
इसके बाद इस खाकसार ने भी अपनी दो छोटी छोटी ग़ज़लें पढ़ीं और महफ़िल का रुख हुआ भाई सईद अयूब जी की ओर  सफल आयोजक , सफल संचालक , एक सफल कथाकार  और और एक बेहद संवेदनशील कवि , यद्यपि बहुत कम सुनने का अवसर मिल पाता है सईद जी को मगर जब मिला तो संध्या अमृतमयी हो गयी चुने हुए अशआर चुनी हुई ग़ज़लें  और नज़्मों में छलकता अथाह प्रेम  सईद भाई अबा कभी ये बहाना मत करना कि हम तो कविताओं वाला पुर्जा लाये ही नहीं !.......... जब कभी आप विपिन जी को सुने (सुश्री विपिन चौधरी जी को) तो हो सके तो साँसें भी बहुत जोर से न लीजियेगा अन्यथा संवेदना का कौन सा तंतु झंकृत होने रे रह जाए इसके जिम्मेदार आप स्वयं होंगे बकौल श्री त्रिपुरारी जी "विपिन जी ने अपने हालिया लेखन से अपने स्वयं के बनाये हुए प्रतिमानों को ध्वस्त किया है " ... 'कपास के सफ़ेद फूल' मौसम में इस लिये खिले कि विपिन जी हर रंग के गुलों  को तो दुनिया में बाँट दिया है रंगों  की इस मारामारी में अब केवल एक कपास का ही रंग है जो अपना रह गया है | आधुनिक कविता की सशक्त हस्ताक्षर विपिन जी को एक बार फिर से सुन पाना मेरे लिये सूखा आश्चर्य से कम नहीं था |
   प्रिय श्री प्रमोद कुमार तिवारी जी को दुबारा सुन पा रहा था प्रमोद जी की कवितायेँ आंचलिक सरोकारों को राष्ट्रीय पटल पर रखने के महान और भागीरथ प्रयास का हिस्सा लगीं मुझे ...जब उन्होंने अपनी कविता 'डर' सुनायी तो पल भर को हम सभी उनके डर से डर गए,  सच है कि आज संवेदनशील होना भी डर की एक बड़ी वजह हो सकती है ..उनकी अन्य कविताओं में ग्रामीण जीवन उनके अंतर्द्वन्द रिश्तों की बुनावट  और उनकी विडंबनाएं बहुत कुछ कहती हैं दूसरे सत्र में 'डायन'  पर लिखी गयी उनकी कविता ने सबके रोंगटे खड़े कर दिए |...... और फिर सबके अनुरोध पर मेजबान श्री श्रीकान्त जी की मनभावन कवितायें उन्हें भी दूसरी बार सुन रहा था मैं मगर पहली बार सुन रहा था विस्मय में भरकर बहुत कोमल लहजा और उतनी ही कोमल किन्तु दृढ कवितायें !
प्रिय श्री त्रिपुरारी कुमार शर्मा जी  एक ऐसा नाम जो लगता है कि नज़्मों के लिये ही बना है ... और पिछले दो बार से जब भी उनको सुन रहा हूँ उनकी गज़ल भी क़यामत ढाती हुई लग रही हैं  अंदाजेबयां और तलफ्फुस दोनों तो कमाल के है ही ...जब त्रिपुरारी जी नज़्म पढ़ते हैं  तो उनकी मखमली आवाज़ में नहा कर  नज़्म जिंदा हो उठती है ...'मेरी देह की दलदल में तुम्हारे यादों के पाँव' त्रिपुरारी जी ऐसे ही नहीं पहली मुलाकात के बाद मुझे प्रिय हैं |
     श्री अरुण देव जी के बारे में कुछ भी कहने में एक सहज संकोच सा होता है ....वरिष्ठ कवि केवल कथन में नहीं ..कविता की भावभूमि, उसकी  परिपक्वता उसके मुहावरे  और फिर वाचन का उनका एक विशिष्ट ढंग  कुलमिलाकर उदीयमान और लेखन के प्रति गंभीर कवियों को उनसे बहुत कुछ सीखने को मिलता है हर ऐसे अवसर पर जब उनका सानिध्य हासिल होता है ..... पहली कविता 'लालटेन' जैसे प्रतीक्षा ने भी शांति का रूप धारण कर लिया हो अनोखे बिम्ब ... सायं से लालटेन का सजना संवरना हम जैसे लोग जिनकी एक तिहाई उम्र लटें के उजाले में गुजरी हो के लिये स्मृतियों में लौट जाने का एक सुखद अवसर था .... दूसरी कविता 'मीर'  जिसमे आपने मीर ताकि 'मीर' के शेरों को  कविता में ढाला है और सिंधु नदी के उस पार  से बहती आयी भाषा की एक नदी को शिद्दत से याद किया है  जिसके आज हिंदी और उर्दू के रूप में दो हिस्से हो गए हैं |
              यह सब होते करते  श्री लीलाधर मंडलोई जी श्री मनोहर बाथम जी के साथ पधार चुके थे  इस लिये उनको सुनने से पहले स्वल्पाहार का एक छोटा सा दौर  और साथ में एक परिचर्चा भी , हम सब की उत्सुकता कर्नाटक से आये जागीरदार साहब से यह जानने की थी कि आखिर वहाँ हिंदी कि दशा दिशा क्या है  श्री जागीरदार साहब ने बताया कि उनके महाविधालय/ विश्वविद्यालय जहाँ  वो शिक्षण का कार्य करते हैं में केवल बी.ए. में ही साढ़े तीन सौ  हिंदी के छात्र है  आपके मुँह से यह सुनना भी सुखद रहा कि वहाँ हर विश्वविद्यालय /महाविद्यालय में हिंदी की एम.ए. की कक्षाएं हैं और प्रायः सभी सीटें भरी ही होती हैं  ...  श्री अरुण देव जी और श्री सईद अयूब जी  ने अपने हालिया गुजरात के अनुभव को बांटते हुए हम सब को बताया कि 'खुले में रचना' कार्यक्रम के बाद तीसरे दिन  उन लोगों का एक काव्यपाठ आई एन ए में हुआ था जहाँ अधिकाँश लोग वैज्ञानिक पृष्ठभूमि  के थे मगर कविता उन तक पहुंची और सब ने बड़े उत्साह से काव्यपाठ का आनंद लिया | श्री लीलाधर मंडलोई जी ने इस पर एक बात कही कि हम हिंदी के लोग खुद न जाने किस अनजान भय का शिकार है और इन गोष्ठियों से निकल कर आमजन तक जाने की कोशिश नहीं करते हैं, परिणाम स्वरुप साहित्य और आमजन के बीच में एक अंतराल सा बना रहता है और फिर इस अंतर को पाटता है स्तरहीन वो साहित्य और कविता जो वाह वाह के लिये ही लिखी जाती है और जनमानस उसे ही मुख्य धारा का साहित्य समझ बैठता है | श्री मंडलोई जी ने एक सुझाव यह भी दिया कि भले ही एक कार्यशाला का आयोजन क्यों न करना पड़े  कवियों को काव्यपाठ की बारीकियाँ भी सिखायी जानी चाहिए क्योंकि कई बार अच्छी कविता भी सम्प्रेषण की कमी से वांछित प्रभाव पैदा करने में असमर्थ होती है जबकि प्रभाव शाली ढंग से पढ़ी गयी कविता समझ के नए आयाम खोलती है उन्होंने ने मंच पर काव्यपाठ करने के दौरान "माइक से वक्ता का संबंध" जैसे तकनीकी पहलू पर भी प्रकाश डाला और जोर दिया कि हर कविता पढ़ने वाले को इसकी जानकारी होनी चाहिए |   चर्चा में हस्तक्षेप करते हुए  श्री मनोहर बाथम जी ने देश के सुदूर सीमावर्ती क्षेत्रों के अपने अनुभव को बांटते हुए (ज्ञातव्य हो कि श्री बाथम जी सीमा सुरक्षा बाल में महानिरीक्षक हैं ) कहा कि वह जहाँ भी अपनी पोस्टिंग के दुरान रहे हैं ऐसी काव्य संध्याओं का आयोजन किया है और उनमे स्थानीय लोगों की भागीदारी बहुत उत्साहवर्धक रही है , उन्होंने इस बात पर बल दिया कि ऐसे आयोजनों में स्थानीय भाषा का कोई कवि यदि है तो उसे बुलाएं और धैर्य पूर्वक उसे सुनें  ऐसा करने से  अन्य भाषा भाषियों में भी हिन्दी के प्रति प्रेम बढ़ता है | श्री बाथम ने आइजोल (मिजोरम) का जिक्र करते हुए कहा कि वहाँ प्राथमिक स्तर पर १५० विद्यालयों में हिंदी का पठन पाठन शुरू हुआ है !
                  कविताओं के दूसरे दौर का मुख्य आकर्षण श्री बाथम जी की सरहद पर लिखी गयी अनूठी कवितायें थीं बकौल मंडलोई जी " श्री मनोहर बाथम देश के एक मात्र ऐसे कवि है जिन्होंने सरहद को अपनी कविताओं का विषय बनाया है वह एक बेजोड़ कवि है" ज्ञातव्य हो कि श्री मनोहर बाथम के  काव्यसंग्रह "सरहद के पार" का अबतक  बारह भाषाओं में अनुवाद हो चुका है | श्री बाथम जी कि कविता 'सरहद का पेड़' भौगोलिक सीमाओं में बार बार बंटती मानव संवेदनाओं का मर्मस्पर्शी चित्रण है तो वहीं उनकी मानव तस्करी पर चालीस कविताओं की श्रंखला कि कुछ कवितायें इस भयावह त्रासदी की ओर सबका ध्यान खींचने में सक्षम और विचार करने के लिये विवश करती दिखी !
श्री लीलाधर मंडलोई जी को मैं तीसरी  बार प्रत्यक्ष सुन रहा था  हर बार एक  नयापन, हर बार चिंतन की एक अलग धारा का अनुभव चाहे वो नास्तिक कविता के बहाने एक अलग नजरिये से मंदिर का भ्रमण और फिर भक्त, भौतिकी और भगवान के संबंधों की अनूठी विवेचना हो  या फिर पुन्य की लालसा में गरीब को आधा पेट भोजन कराते हुए स्वार्थी पुन्यार्थियों पर तीखा कटाक्ष हो  श्री मंडलोई जी हर जगह अद्वितीय हैं | 'पचास के पार' कविता में परिवार की आंतरिक अभिव्यंजनाओं की सूक्ष्म पड़ताल,  नई पीढ़ी के नए मुहावरे  और अधेड वय के स्त्री -पुरुष की मनोदशाओं का बारीक चित्रण  शायद देश के इस कद्दावर कवि के ही बस की बात थी |
        इस के बाद सभी ने अपनी एक एक कविता और सुनायी जिसमे  श्री प्रमोद तिवारी की डायन , सुश्री वंदना ग्रोवर जी की पंजाबी कविता जो उन्होंने बड़े आग्रह के बाद सुनायी  निरुपमा जी की वैचारिक पृष्ठभूमि वाली कविता, श्री सईद अयूब जी की एक बेहद प्यारी नज़्म जो की मशहूर गज़ल गायक जगजीत सिंह जी को समर्पित थी , त्रिपुरारी जी की प्रसिद्ध कविता 'गोहाटी के गले से' श्रीकांत जी की एक बहुत  प्यारी गज़ल और भाई भरत की कविता ! अब बारी थी पुनः अध्यक्ष श्री अरुण देव जी की, अपने अध्यक्षीय उदबोधन में श्री देव जी ने पढ़ी गयी कविताओं की एक सारगर्भित समीक्षा प्रस्तुत किया जिसमे उन्होंने कवि क्रम से हर कविता में आयी संभावनाओं और कमियों की ओर कवियों का ध्यान खींचा और फिर अंत में खुद की एक प्रसिद्ध और चर्चित प्रेम कविता जिसमे अपनी पत्नी के माध्यम से स्त्री पुरुष संबंधों और मनोविज्ञान  की सूक्ष्म पड़ताल की गयी थी सुनाकर इस रसमय काव्य संध्या के समापन की औपचारिक घोषणा कर दिया | अस्तु !!




सोमवार, 24 सितंबर 2012

सफ़र

ये रास्ते का संघर्ष
ये पीड़ाएं
ये इंतजारी के दिन
ये प्रतीक्षा की रातें
ये दर्द के आँसू
अहा !
मंज़िल से ज्यादा आनंद तो
सफ़र में है

सुनो मेरी मंज़िल... !
मैंने नहीं पहुँचना
कहीं भी...

-आनंद

गुरुवार, 20 सितंबर 2012

टूटता कहाँ है दिल ...

विशुद्ध रासायनिक क्रिया है
दिल का टूटना
देखने में भले ही भौतिकी लगे,

इसमें भौतिक इतना ही होता है कि
किसी को देखने की लत से मजबूर नशेड़ी आँखें
चेहरे से हटकर दिल में फिट हो जाती हैं
फिर
दिल से दिखायी पड़ने लगता है सब कुछ
और पथरा जाती है
चेहरे की आँखें

जरा भी आकस्मिक घटना नहीं है
दिल टूटना
क़तरा-क़तरा करके ज़मींदोज़ होता है कोई ख़्वाब
रेशा-रेशा करके टूटता है एक धागा
लम्हा-लम्हा करके बिखरती है जिंदगी
उखडती है हर बार जड़ों के साथ थोड़ी थोड़ी मिट्टी
टूटने से ठीक पहले तक
टूटता कहाँ है दिल

बुद्धिमानों की दुनिया में
किसी रंगकर्म सा मनोरंजक होता है
दिल का टूटना
आखिर किसी और का प्रेम श्रेष्ठ कैसे हो सकता है
हर मुमकिन कोशिश नीचा साबित करने की
चाहत, आसक्ति, मोह
अज्ञान ... और भी न जाने क्या क्या
हज़ारों बार अनेकों युक्तियों से तोड़ा जाता है इसे
टूटने से ठीक पहले तक
टूटता कहाँ है दिल

महज़ एक कविता नहीं है
दिल का टूटना  
कभी कभी तो लोग टूट जाया करते हैं
टूट जाती है सारी कायनात
हौसले टूट जाते हैं
उम्मीद ... और फिर भरोसा
डूबने से ठीक पहले खूब जोर से नाचती है
भँवर में फँसी कश्ती

टूटने से ठीक पहले तक
टूटता कहाँ है दिल |

- आनंद
१८/०९/२०१२


बुधवार, 19 सितंबर 2012

सुनते सुनते ऊब गए हैं किस्से लोग बहारों के

उड़ते  उड़ते   रंग   उड़  गए  हैं   सारी   दीवारों   के
सुनते  सुनते  ऊब  गए  हैं  किस्से  लोग  बहारों के

जीते जी जिसने दुनिया में 'कल का कौर' नहीं जाना
मरते  मरते  भी  वो  निकले  कर्जी  साहूकारों  के

बढते  बढते  मंहगाई  के  हाथ  गले तक  आ  पहुँचे
कुछ  दिन  में  लाशों  पर  होंगे  नंगे नाच बज़ारों के

कम से कम तो आठ फीसदी की विकाश दर चहिये ही
भूखी जनता  की  कीमत  पर,  मनसूबे   सरकारों  के

राजनीति  से  बचने  वाले  भले  घरों  के  बाशिन्दों
कल  सबकी  चौखट  पर  होंगे  पंजे  अत्याचारों  के

कहते कहते जुबाँ थम गयी चलते चलते पांव रुके
अब  मेरे  कानों में  स्वर  हैं  केवल  हाहाकारों के

ये 'आनंद' बहुत छोटा था जब वो आये थे  घर-घर
अब फिर जाने  कब  आयेंगे  बेटे 'सितबदियारों' के


--------- 'कल का कौर' = सुकून की रोटी ...यह अवधी का एक मुहावरा है
              सितबदियारा = जयप्रकाश नारायण का गाँव

- आनंद
१९-०९-२०१२ 

शनिवार, 15 सितंबर 2012

आज अख़बार भी लगते हैं

तेरी राहों में  कभी था जो  उज़ालों की तरह
हाल उसका भी हुआ  चाहने वालों की तरह

उम्र भर याद तो आया वो किसी को लेकिन
या हवालों की तरह या तो सवालों की तरह

जरा  भी  जोर  से  रखा  तो  टूट  जाएगा
दिले नाशाद हुआ चाय के प्यालों की तरह

बहुत गरीब  हैं  साहब ,  मगर  कहाँ   जाएँ
मुल्क को हम भी जरूरी हैं घोटालों की तरह

जब तरक्की के लिये बैठकों का  दौर चला
जिक्र गाँवों का हुआ नेक खयालों की तरह

किस से उम्मीद करें, साफ़  बात  कहने की
आज अख़बार भी लगते हैं दलालों की तरह

-आनंद
१३-०९-२०१२ 

शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

नींद की चिट्ठी

रात नींद ने एक चिट्ठी लिखी
नाम तुम्हारा 
पता मेरा ...

सांसें महक सी गयीं 
होंठ खिल पड़े एक मुद्दत बाद 
वही विश्वाश 
वही अपनापन 
आँखें फिर से शरारती हुईं 
तुम्हारे झूले पर बैठे हम पल भर को 

वही चिड़ियों की चहचहाहट ...
मेंहदी इस बार भी अच्छी चढ़ी है
तुमने उतने ही मन से
मुझे खिलाया अपने हाथ से बना खाना
सच कहता हूँ
मुझे बहुत अच्छा लगा

तुम ख्वाबों में
अब भी
वैसी की वैसी हो ...
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- आनंद