तुम कौन हो
कि
तुम्हारा होना भर मुकम्मल करता है
मेरे न होने को
कि
जैसे मेरा वजूद
सिर्फ एक हवा है
न जाने कितना कुछ जला होगा
तब कहीं जाकर आत्मा से उठा है
हवनकुंड का यह धुआँ
जिससे आती रहती है
रह-रह कर
तुम्हारी सुगंध |
तुम कौन हो
कि
तुम्हारी आहट भर से
लिखावट सुंदर हो जाती है
शब्दों से
अर्थ फूट फूट पड़ते हैं
पर मेरी हालत तो देखो
हर लिखा मिटा देता हूँ
निगोड़े शब्दों का क्या भरोसा
कहीं तुम्हें
मेरी बेचैनी का कुछ पता चल गया तो
तुम न जाने क्या क्या
सोंच बैठोगी |
तुम कौन हो
कि
आज भी डर लगता है
तुम्हें खोने में
जबकि तुम्हें पाना
मेरे ख्वाबों को भी नसीब नहीं
चाँद क्यों फ़क पड़ जाता है
जर्द हो जाता है तमाम मंज़र
एक तुम्हारे जाने के खयाल से
सुनो !
तुम जो भी हो
(धरती, आकाश, पानी, आग और हवा )
मुझे अब और मत रुलाना
क्या पता
मैं इस बार टूटूं
तो फिर जुड न पाऊं !!
- आनंद
१८-१९ अगस्त २०१२