गुरुवार, 31 अक्टूबर 2013

चाहतें ......!

   

चाहते हैं कि
थमने का नाम नहीं ले रही
जिंदगी है कि
छदाम देने को राजी नहीं
दिल है कि
जान लेकर ही मानेगा
तुम हो कि
कोई फर्क ही नहीं पड़ता
 ...  

ना जाने... कितना बड़ा होता है
एक आदमी,
खाक़ नहीं होता
वर्षों जलने के बाद भी,
रक्तबीज की तरह
जिन्दा हो उठता है
अपनी ही
किसी चाहत से फिर
...

कुछ न चाहना भी
एक चाहत है
तुम्हारी नज़रों में
थोड़ा और भला बनने के लिए
मिटने की चाहत भी
एक चाहत है
हमेशा बने रहने की
...

आ जाओ मृत्यु
सौंप दूं तुम्हें, अपनी
हर चाहत
कि जिंदगी को
इनमे से, एक भी
स्वीकार्य नहीं
और ना ही स्वीकार है मुझे
इनमें कोई संसोधन
...

कुछ चाहतें
चाहतें नहीं होती
दरअसल
वो जीवन होती हैं
मुझे भी पहले
ये बात पता नहीं थी

 - आनंद






सोमवार, 28 अक्टूबर 2013

वरदान अकेलापन !

जिस अकेलेपन को 
जीवन भर कोसता रहा
दुख मनाता रहा जिसका
वही अब  सुख है
अमृत है,

नहीं होता जब कहीं कोई
पसरता है मीलों सन्नाटा
छूट जाती है दुनिया पीछे
छूट जाता है सारा कारोबार
सपने, आशाएँ
उदासियाँ निराशाएँ … भय
सब के सब

तब
अचानक आकर तुम्हारा अहसास
लिपट जाता है रूह से मेरी
मैं जीता हूँ तुमको …पा लेता हूँ खुद को,
निपट तन्हाई में तुम और मैं
आख़िर यही तो थी मेरी कल्पना
युगों से
जन्मों से,

एक सोच
एक जीवन
और एक दुनिया,
जादूगर!
तुम चाहो तो क्या नहीं बदल सकते !!

- आनंद

शुक्रवार, 25 अक्टूबर 2013

अकथ

मैंने कह दिया,
लेकिन
कह पाया
केवल खुद को
नहीं नहीं
खुद की इच्छाओं को,

अकथ
आज भी
नहीं कहा जा सका मुझसे
मैं ये क्या कह रहा हूँ
और क्यों ?

पर... क्या मैं
कह रहा हूँ ये सब,
मैं तो तुम हो गया हूँ
प्रियतम

ये कहना भी
अर्चन है तुम्हारा
मेरे मंदिर के घंटियों की ध्वनियाँ
इन्हें  बेतरतीब ही
स्वीकार लो !

- आनंद  

बुधवार, 23 अक्टूबर 2013

मुस्कराते ख़्वाब !

नींद में ही था
कि तुम्हारी याद
छिड़क कर भाग गयी
एक चुटकी मुस्कराहट
होठों पर, 
पर...तुम तो सैकड़ों कोस दूर हो
ये कौन सुबह सुबह नाक दबाकर भाग गया फिर ?

ये मुस्कराहटें...
कब बोयी थी तुमने हमारे लिए
अब एकदम लहलहा रही हैं
धान की पकी बालियों की तरह !
तुम्हारे अहसासों की पाग बाँध
मैं भी निकल पड़ा हूँ
खेतों की तरफ
सुनूँगा गन्ने की पत्तियों की सरसराहट
देखूँगा बालियों का नाचना
कातिक की इस सोना बिखेरती दोपहर भर
पड़ा रहूँगा किसी मेंड़ पर,

खेलूँगा सारा दिन तुम्हारी यादों से
बार बार हटा दूंगा
तुम्हारे चेहरे पर आती वो शरारती लट,
दिखाऊंगा तुम्हें 
नहर किनारे टहलता हुआ 
सारस का जोड़ा,
जलमुर्गी और टिटिहरी के अंडे,
दूर चटक नीले आसमान के नीचे
उड़ता हुआ सफ़ेद हवाई जहाज...,
उससे जरा नीचे पक्षियों के भागते झुंड,
छील छील कर खिलाऊंगा
अपने हाथ से तोड़कर कच्चे सिंघाड़े
और नज़रें बचाकर झाँकूंगा तुम्हारी आँखों में ...

बस
उसके बाद
या तो और ख़्वाब देखूँगा
या फिर
कोई ख़्वाब नहीं देखूँगा !

- आनंद

सोमवार, 21 अक्टूबर 2013

बेबस प्रेम

तुम जब भी
जरा सा भी
अपनेपन से बोल देते हो
केवल मानवता के नाते,
मन...
उस दिन बहुत जिद करता है
सारी दुनिया में तुम्हारी तारीफ़ करने की
और
रोने की,
बहाने से करता है वह
दोनों काम
दोस्त तलाशता है
बातें करने के लिए
बहाने से तुम्हारी तारीफ़ करता है
एकांत तलाशता है
फूट फूट कर रोने के लिए
और बिना किसी बहाने के रोता है

नहीं जान पाया
कि कब इतना टूट गया
ये मन !
बावरा अब जरा सा भी
उम्मीद की आहट सुनते ही
कातर हो उठता है
जैसे मौन रूप से तैयार करने लगा हो खुद को
एक अगली सजा के लिए,
जानता हूँ
प्रेम जबरन नहीं होता किसी से
मगर हो जाय तो  ये बैरी
जबरन  मिटता भी तो नहीं,
अपने वश में तो न खोना है
न पाना
अपन को बस एक ही काम आता है
डबडबाई आँखों से मुस्कराना ...

सुनो !
किसी को इस कदर जीत लेने का हुनर
मुझे भी बताओ न कभी ...!

- आनंद


बुधवार, 16 अक्टूबर 2013

तेरी गंध !


कौन समझेगा इन मौसमों को
और समझने की कोशिश भी क्यों
पल पल बदलती कायनात
अहोभाव से भरा हुआ वजूद
प्रेम से भरा हुआ दिल
रजनीगंधा सी महकती हवाएँ
संगीत सी बजती ध्वनियाँ
उर्जाओं से लयबद्ध कदमताल
हर तरफ बेवज़ह आतिशबाज़ियाँ
क्या है ये सब
एक तेरी आहट में इतनी शक्ति ?
दुनिया हर कदम पर चकित करती है
और चकित करती है
प्रेम की अपार शक्ति

ईश्वर नगाड़े बजाता है कई बार
बहरे बने हम
मैं मैं के आगे नहीं सुनते कुछ भी,
सुनो अनाड़ी प्रियतम !
(अनाड़ी इसलिए कि जितना लेते हो उससे ज्यादा दे जाते हो)
ले जाओ मुझसे जो भी है मेरे आसपास
रखना चाहता हूँ हर पल खाली यह घट मैं
अपनी कामनाओं से
ताकि तुम्हारे अहसास की सुगंध
बे-रोकटोक आती और जाती रहे
और जब मिट्टी का यह घट फूटे
तो न निकले इससे मेरी इच्छाओं का मलबा
बल्कि बिखरे इससे तुम्हारी सुगंध
तुम्हारी ही सुरभि !

- आनंद



शुक्रवार, 11 अक्टूबर 2013

ऐसा क्यों होता है


ठीक उसी समय
क्यों होती हैं ढेर सारी बातें तुम से
जब, कहने को कुछ नही होता
एक शब्द भी नहीं,
मौन इतना मुखर क्यों होता है,

ठीक उसी समय
क्यों होते हो तुम इतने पास
जब, दुनिया में
खुद से ज्यादा अकेला कोई नहीं होता
तन्हाई इतनी अपनी क्यों होती है

ठीक उसी समय
क्यों हो जाते तुम इतना बेगाने
जब, मन बुनने लगता है
सपनों की एक चटाई
सपने इतने बैरी क्यों होते हैं

ठीक उसी समय
आँख क्यों छलक जाती है
जब, पास से गुजरने वाला होता है
खुशियों का कोई कारवाँ
आँसू इतने ईर्ष्यालु क्यों होते हैं

ठीक उसी समय
क्यों पता चलती है अपनी कमजोरी
जब, हिम्मत करो जरा मजबूत होने की
खुद को धोखा देना
इतना आसान क्योँ होता है

- आनंद


बुधवार, 9 अक्टूबर 2013

चार बूँद आँसू

(एक)

सोचता हूँ  ओढ़ लूं
किसी की हर चुप्पी
हर इनकार
दूरी की हर कोशिश
और  हो जाऊँ
उसी की तरह
एकदम सुरक्षित

प्रेम  …  एक जोखिम तो है ही !

(दो)

एक तरफ जगत की सम्पति
और जगदीश स्वयं
दूसरी  तरफ़ केवल तुलसी की एक पत्ती,
तुम्हारा नाम
वही तुलसीदल है,
मैं अपने पलड़े में जो भी रख सकता था
रखकर देख लिया
जैसे ही तुम्हारा नाम आता है
तृण हो जाता है
ये जगत
और मेरा

मैं !

(तीन)

गर्दन दुखने लगती है
आकाश को निहारते ... मगर
नहीं टूटते तारे अब
कोई और जतन बताओ
कि एक आखिरी मुराद माँगनी है मुझे 

टूटने वाली चीजें भी
कुछ न कुछ दे ही जाती हैं 

मसलन 
एक सबक !

(चार)


निपट अकेलेपन में भी 
कोई न कोई
साथ होता है,
इंसान के बस में न साथ है
न तनहाई,
बेबस इंसानों से खेलना
न जाने किसका शगल है
जिसे कुछ लोग
लीला कहते हैं !

- आनंद