एक दिन
जब मैं आसमान पर
चाँद को
चूम रहा था |
एक जन्मजात चोर
मेरे सारे सपने
चुरा रहा था
यहाँ
धरती पर |
वो सपने
जो किसी और के
काम के नहीं हैं
थोड़ी देर खेलेगा वो
उनसे
और फिर फेंक देगा
तोड़ मरोड़ कर |
अब सोंचता हूँ
कुछ तो वजह होगी ही
जब तूने
इस नायाब दर्द के लिए
मुझे चुना है |
तो फिर कर इन्तेहाँ
सितम की अपने
क्योंकि जानता हूँ मैं
यह तो
आगाज़ है अभी |
अय 'छलिया' !
मेरे पास
और कुछ था ही नहीं
सो मैंने भी
तुझे दांव पर लगा दिया
अब
इस खेल में
हारेगा भी तू
और जीतेगा भी तू ही
आ जा ....
मैं प्रस्तुत हूँ !!
- आनंद द्विवेदी १७/११/२०११