कल देखा है तुम्हें बहुत गौर से
मैने अपनी कविता में
तुम खड़े थे
तुम हंस रहे थे
तुम मुस्करा रहे थे
तुम कुछ कह रहे थे शायद
मैं केवल सुन रहा था और सोंचे जा रहा था कि
जज्बात तो हैं ....संभालना इन्हें.....खेलना मत
बढ़ते जाना
पैरों के नीचे मत देखना कभी भी
वहां रूकावट होती है ....पैरों के पास
किसी के कुचले जाने का डर भी
दर्द की चादर ओढ़े रहना
दर्द को जीना नही
चादर उतारने में ज्यादा सहूलियत होती है.
जीवन बदलने की बनिस्बत!
फिर बाद में जब तुमने ठुकराया न
मुझे...
तभी अचानक मुझे भी
समझ में आगया था
कि विद्वान लोग 'अटैचमेंट ' को
इतना बुरा क्यूँ कहते हैं
पहली बार दर्द से जीत गया मैं
थैंक्स अ लाट आपको
मुझे जरा भी दर्द नहीं हुआ
जैसे एकदम नया ब्लेड निगल लिया हो
बड़ी सफाई से अन्दर तक काटा है
बिना कोई दर्द दिए
ये कला भी सब के पास कहाँ होती है
पर एक बात है
मैं भी बहुत ढीठ आदमी हूँ.
देखना फिर पडूंगा अटैचमेंट के चक्कर मेंमैंने कब कहा कि...
मैंने प्यार करना छोड़ दिया है
मैंने कोई चादर थोड़े ओढ़ी थी
जो उतार दूँ
तुम एक नया ब्लेड लेकर रख लो
मैं जल्दी ही फिर आऊंगा !
--आनंद द्विवेदी ०६/०४/२०११