कहाँ पर खो गया हूँ मैं ?
जिंदगी के शीत को सहकर ,
व्यथा का ताप सहकर ,
सत्य को पहचानकर, ढोकर,
समय का... श्राप सहकर ,
खिलौना हो गया हूँ मैं !
स्वयं को भी ...बेंचकर,
भीतर हजारों ग़म छिपाकर,
एक विधवा सी ...ख़ुशी से ,
होंठ रंगकर, मुंह सजाकर,
घिनौना हो गया हूँ मैं !
ढह गए सब शिखर, थककर
सो गए... सब दीप गण ,
ख़ुशी की चाहत समेटे ,
सो गए .. प्रत्येक क्षण ,
बिछौना हो गया हूँ मैं !
कहाँ पर खो गया हूँ मैं !!
--आनन्द द्विवेदी ०८/०२/२०११