मैं अपने अँधेरों को घसीटकर प्रकाश में नहीं ले जाना चाहता,
न ही चाहता हूँ अपने तिमिर पर किसी भी प्रकार के उजाले का अवांछित हमला
मैंने नीम अँधेरे में फैलाया है अपना हाथ
किसी साथ के लिये
प्रकाश के लिए नहीं...
मेरे भीरु सपने
घबराते हैं चकाचौंध से
इतना, कि
जितना घबराता होगा गर्भस्थ भ्रूण
अजन्मी मृत्यु से,
मेरे लिए सुरक्षित आश्रय था तुम्हारा प्रेम
जहाँ मैं साँझ ढले कभी भी रुक सकता था
किंतु एक दिन जब मैं बहुत थका था और हारा भी
उस दिन शाम ढली ही नहीं
तुम ने चुन लिया था प्रकाश को
निरापद,
आश्रित प्रेम किसे भाता भला
प्रकाश एक कर्म है
सूरज का उदय- अस्त होना
चंद्रमा का भी,
दीप जलाना अथवा कोई और जतन करना उजाले की
सबका सब है एक यत्न एक दौड़,
और अँधेरा... वो तो है... बस है
सायास प्रकाश है
अनायास अँधेरा है,
तुम्हारे प्रकाश वरण के बाद...
एक दिन मैंने भी मना कर दिया और दौड़ने से
अब मैं
अँधेरे के खिलाफ़
दुनिया के किसी भी षड़यंत्र का हिस्सा नहीं हूँ
और मेरी दुनिया में नही है
प्रकाश का कोई भी हिस्सा ।
© आनंद