तोड़ कर
दुनिया भर की
सीमाओं को ,
सही गलत के
विश्लेषण से परे ,
घटित हुआ था
हमारा प्रेम ..
जिया है
हर पल जिसे
होते हुए हमने
किसी मंदिर में ..
फिर
एक दिन अचानक....
क्यों बांधना चाहा था मैंने,
तुमको ,
सीमाओं में !
एक दिन अचानक....
क्यों बांधना चाहा था मैंने,
तुमको ,
सीमाओं में !
क्यूँ सोच न पाया मैं
कि
नहीं है प्रेम
मंदिर की
सीमाओं तक ही !!!
सुन ..!
सुन ..!
ओ मेरे
प्रेम गगन के पंछी,
ले कर
मेरी साँसों से
अपने प्यार के
संदल की खुशबू ,
प्रेम गगन के पंछी,
ले कर
मेरी साँसों से
अपने प्यार के
संदल की खुशबू ,
दे विस्तार
अपनी
सहज ,
स्वाभाविक
उड़ान को...
हो जाये सुरभित
हो जाये सुरभित
जिससे
ये धरती
क्या ,
आकाश भी !!
ये धरती
क्या ,
आकाश भी !!
आनंद द्विवेदी २५/१०/२०११