बुधवार, 29 अगस्त 2012

बाड़ ही खेत को जब खा गयी धीरे धीरे



दिले पुरखूं  कि सदा छा  गयी धीरे धीरे
रूह तक सोज़े अलम आ गयी धीरे धीरे ।

मैंने सावन से मोहब्बत कि बात क्या सोंची
मेरी आँखों में  घटा  छा  गयी  धीरे धीरे  ।

जश्ने आज़ादी मनाऊं मैं कौन मुंह लेकर
बाड़ ही खेत को जब  खा गयी धीरे धीरे ।

जो इंकलाब से कम बात नहीं करता था
रास सत्ता  उसे भी आ गयी धीरे धीरे ।

दोस्त मेरे सभी  नासेह बन गए जबसे
बात रंगनी मुझे भी आ  गयी धीरे धीरे ।

गाँव के लोग भी शहरों की तरह मिलते हैं
ये तरक्की  वहाँ  भी आ गयी  धीरे  धीरे  ।

लाख 'आनंद' को समझाया, बात न मानी
खुद ही भुगता तो अकल आ गयी धीरे धीरे !

शब्दार्थ :-
दिले पुरखूं  = ज़ख्मी दिल (खून से भरा हुआ दिल)
सदा  = आवाज़
सोज़े अलम = दर्द की आग़
नासेह  =  उपदेशक

- आनंद द्विवेदी
१४-०८-२०१२