वक़्त मुहब्बत को
अक्सर
ठहर कर देखता है
पर कभी-कभी
साथ चल कर भी
देख लेता है .......
(इमरोज़ की पंजाबी नज़्म ; अनुवाद: हरकीरत हीर )
आधी रोटी पूरा चाँद
वह पूरे चाँद की एक रात थी । बात शायद १९५९ की है, मैं दिल्ली रेडियो में काम करती थी, और वापसी पर मुझे दफ़्तर की गाड़ी मिलती थी । एक दिन दफ़्तर की गाड़ी मिलने में बहुत देर हो गई उस दिन इमरोज़ मुझसे मिलने के लिए वहां आया हुआ था, और जब इंतज़ार करते करते बहुत देर हो गयी, तो उसने कहा चलो, मैं घर छोड़ आता हूँ ।
वहां से चले तो बाहर पुरे चाँद की रात देखकर कोई स्कूटर टैक्सी लेने का मन नहीं किया । पैदल चल दिए पटेल नगर। पहुँचते पहुंचते बहुत देर हो गयी थी, इसलिए मैंने घर के नौकर से कहा मेरे लिए जो कुछ भी पका हुआ है, वह दो थालियों में डालकर ले आये ।
रोटी आई, तो हर थाली में बहुत छोटी छोटी एक-एक तंदूरी रोटी थी । मुझे लगा कि एक रोटी से इमरोज़ का क्या होगा, इसलिए उसकी आँख बचाकर मैंने अपनी थाली की एक रोटी में से आधी रोटी उसकी थाली में रख दी।
बहुत बरसों के बाद इमरोज़ ने कहीं इस घटना को लिखा था - 'आधी रोटी; पूरा चाँद'- पर उस दिन तक हम दोनों को सपना सा भी नहीं था वक़्त आएगा, जब हम दोनों मिलकर जो रोटी कमाएंगे आधी-आधी बाँट लेंगे ....
___________________(इमरोज़ के बारे में लिखते हुए अमृता ; रशीदी टिकट से)
आज छब्बीस जनवरी गणतंत्र दिवस और छुट्टी का एक दिन जरा देर से सोकर उठता हूँ, आदतन मोबाइल चालू करता हूँ कुछ अन्तराल के बाद ही एक मैसेज 'हरकीरत हीर' जी का ...
"आज इमरोज़ जी का जन्म दिन है" ओह ...मुझे कुछ याद क्यों नहीं रहता अब .... मैसेज तो कान खींचकर भाग गया मेरे ..... मैंने हीर जी को कहा 'अरे मेरे पास उनका नंबर नहीं है कैसे बधाई दूं .... हीर जी से नंबर लेकर फ़ोन करता हूँ वही शांत मीठी ध्यान में डूबी हुए हुई आवाज़ ... थोड़ी देर बात होती है शुभकामनाएं देने का बाद ..पूछते हैं तुमतो नज़्में लिखते हो न मैंने कहा जी हाँ , तो कहने लगे फिर एक नज़्म लिखकर मुझे भेजो वही होगा मेरे जन्मदिन का तोहफ़ा ... मैं सोचता रहा कि नज़्म खुद हैं वो उनपर क्या नज़्म लिखूं फिर भी :-
इमरोज़ ...
इंसान ...नहीं, मोहब्बत !
नहीं नहीं ...
'ख़ुदा'
हाँ इमरोज़.... ख़ुदा !
इससे छोटा कोई भी शब्द नहीं हो सकता तुम्हारे लिए
और इससे बड़ा शब्द नहीं जाना मैंने आजतक
जैसे तुमने नहीं जाना शिक़वा
नहीं जाना कुछ पाने की इच्छा
नहीं जाना फिर और कुछ भी
उसे जानने के बाद
बस हो गए प्रेम के
हो गए प्रेम।
इमरोज़
तुम्हीं हो सकते थे ये नज़ीर
कि जब जब प्रेम करने वालों को
धरती पर किसी अपने की जरूरत हो
वो ढूंढ ले तुम में
हर वो अक्स
जो पाक़ है , मुक़द्दस है
जो है नूर उस इश्क़ का
जिसकी ख़ुशबू से महक रहा है
जर्रा-जर्रा इस कायनात का
अमृता के महबूब
तुम्हें सलाम
कि इश्क़ की मिसाल
तुम्हें सलाम !
-आनंद की तरफ से जन्मदिन की बहुत बहुत मुबारकबाद !
अक्सर
ठहर कर देखता है
पर कभी-कभी
साथ चल कर भी
देख लेता है .......
(इमरोज़ की पंजाबी नज़्म ; अनुवाद: हरकीरत हीर )
आधी रोटी पूरा चाँद
वह पूरे चाँद की एक रात थी । बात शायद १९५९ की है, मैं दिल्ली रेडियो में काम करती थी, और वापसी पर मुझे दफ़्तर की गाड़ी मिलती थी । एक दिन दफ़्तर की गाड़ी मिलने में बहुत देर हो गई उस दिन इमरोज़ मुझसे मिलने के लिए वहां आया हुआ था, और जब इंतज़ार करते करते बहुत देर हो गयी, तो उसने कहा चलो, मैं घर छोड़ आता हूँ ।
वहां से चले तो बाहर पुरे चाँद की रात देखकर कोई स्कूटर टैक्सी लेने का मन नहीं किया । पैदल चल दिए पटेल नगर। पहुँचते पहुंचते बहुत देर हो गयी थी, इसलिए मैंने घर के नौकर से कहा मेरे लिए जो कुछ भी पका हुआ है, वह दो थालियों में डालकर ले आये ।
रोटी आई, तो हर थाली में बहुत छोटी छोटी एक-एक तंदूरी रोटी थी । मुझे लगा कि एक रोटी से इमरोज़ का क्या होगा, इसलिए उसकी आँख बचाकर मैंने अपनी थाली की एक रोटी में से आधी रोटी उसकी थाली में रख दी।
बहुत बरसों के बाद इमरोज़ ने कहीं इस घटना को लिखा था - 'आधी रोटी; पूरा चाँद'- पर उस दिन तक हम दोनों को सपना सा भी नहीं था वक़्त आएगा, जब हम दोनों मिलकर जो रोटी कमाएंगे आधी-आधी बाँट लेंगे ....
___________________(इमरोज़ के बारे में लिखते हुए अमृता ; रशीदी टिकट से)
अमृता प्रीतम और इमरोज़ ; कि जैसे मंदिर में लौ दिए की |
"आज इमरोज़ जी का जन्म दिन है" ओह ...मुझे कुछ याद क्यों नहीं रहता अब .... मैसेज तो कान खींचकर भाग गया मेरे ..... मैंने हीर जी को कहा 'अरे मेरे पास उनका नंबर नहीं है कैसे बधाई दूं .... हीर जी से नंबर लेकर फ़ोन करता हूँ वही शांत मीठी ध्यान में डूबी हुए हुई आवाज़ ... थोड़ी देर बात होती है शुभकामनाएं देने का बाद ..पूछते हैं तुमतो नज़्में लिखते हो न मैंने कहा जी हाँ , तो कहने लगे फिर एक नज़्म लिखकर मुझे भेजो वही होगा मेरे जन्मदिन का तोहफ़ा ... मैं सोचता रहा कि नज़्म खुद हैं वो उनपर क्या नज़्म लिखूं फिर भी :-
इमरोज़ ...
इंसान ...नहीं, मोहब्बत !
नहीं नहीं ...
'ख़ुदा'
हाँ इमरोज़.... ख़ुदा !
इससे छोटा कोई भी शब्द नहीं हो सकता तुम्हारे लिए
और इससे बड़ा शब्द नहीं जाना मैंने आजतक
जैसे तुमने नहीं जाना शिक़वा
नहीं जाना कुछ पाने की इच्छा
नहीं जाना फिर और कुछ भी
उसे जानने के बाद
बस हो गए प्रेम के
हो गए प्रेम।
इमरोज़
तुम्हीं हो सकते थे ये नज़ीर
कि जब जब प्रेम करने वालों को
धरती पर किसी अपने की जरूरत हो
वो ढूंढ ले तुम में
हर वो अक्स
जो पाक़ है , मुक़द्दस है
जो है नूर उस इश्क़ का
जिसकी ख़ुशबू से महक रहा है
जर्रा-जर्रा इस कायनात का
अमृता के महबूब
तुम्हें सलाम
कि इश्क़ की मिसाल
तुम्हें सलाम !
-आनंद की तरफ से जन्मदिन की बहुत बहुत मुबारकबाद !