बुधवार, 11 जुलाई 2012

यकीन मानिए दुनिया मुझे भी समझेगी





अभी निगाह में कुछ और ख्व़ाब आने दो
हजार रंज़ सही   मुझको   मुस्कराने दो

तमाम उम्र  दूरियों  में काट  दी  हमने
कभी  कभार मुझे पास भी तो आने दो

बहस-पसंद  हुईं  महफ़िलें  ज़माने  की
मुझे सुकून से तनहाइयों  में गाने  दो

सदा पे उसकी तवज़्ज़ो का चलन ठीक नहीं
ग़रीब  शख्स है उसको  कथा सुनाने दो 

किसी की भूख मुद्दआ नहीं बनी अब तक
मगर  बनेगी शर्तिया वो  वक़्त आने  दो

यकीन मानिए दुनिया मुझे भी समझेगी
अभी नहीं, तो जरा इस जहाँ  से जाने दो

क़र्ज़ 'आनंद' गज़ल का भी नहीं रक्खेगा
अभी बहुत है जिगर में  लहू,  लुटाने  दो

- आनंद द्विवेदी
जुलाई ११, २०१२