अभी निगाह में कुछ और ख्व़ाब आने दो
हजार रंज़ सही मुझको मुस्कराने दो
तमाम उम्र दूरियों में काट दी हमने
कभी कभार मुझे पास भी तो आने दो
बहस-पसंद हुईं महफ़िलें ज़माने की
मुझे सुकून से तनहाइयों में गाने दो
सदा पे उसकी तवज़्ज़ो का चलन ठीक नहीं
ग़रीब शख्स है उसको कथा सुनाने दो
किसी की भूख मुद्दआ नहीं बनी अब तक
मगर बनेगी शर्तिया वो वक़्त आने दो
यकीन मानिए दुनिया मुझे भी समझेगी
अभी नहीं, तो जरा इस जहाँ से जाने दो
क़र्ज़ 'आनंद' गज़ल का भी नहीं रक्खेगा
अभी बहुत है जिगर में लहू, लुटाने दो
- आनंद द्विवेदी
जुलाई ११, २०१२