बुधवार, 19 सितंबर 2012

सुनते सुनते ऊब गए हैं किस्से लोग बहारों के

उड़ते  उड़ते   रंग   उड़  गए  हैं   सारी   दीवारों   के
सुनते  सुनते  ऊब  गए  हैं  किस्से  लोग  बहारों के

जीते जी जिसने दुनिया में 'कल का कौर' नहीं जाना
मरते  मरते  भी  वो  निकले  कर्जी  साहूकारों  के

बढते  बढते  मंहगाई  के  हाथ  गले तक  आ  पहुँचे
कुछ  दिन  में  लाशों  पर  होंगे  नंगे नाच बज़ारों के

कम से कम तो आठ फीसदी की विकाश दर चहिये ही
भूखी जनता  की  कीमत  पर,  मनसूबे   सरकारों  के

राजनीति  से  बचने  वाले  भले  घरों  के  बाशिन्दों
कल  सबकी  चौखट  पर  होंगे  पंजे  अत्याचारों  के

कहते कहते जुबाँ थम गयी चलते चलते पांव रुके
अब  मेरे  कानों में  स्वर  हैं  केवल  हाहाकारों के

ये 'आनंद' बहुत छोटा था जब वो आये थे  घर-घर
अब फिर जाने  कब  आयेंगे  बेटे 'सितबदियारों' के


--------- 'कल का कौर' = सुकून की रोटी ...यह अवधी का एक मुहावरा है
              सितबदियारा = जयप्रकाश नारायण का गाँव

- आनंद
१९-०९-२०१२