मंगलवार, 30 अक्टूबर 2012

क्यों पराजय लग रहा है प्यार तुझको

दर्द क्यों है, क्या नहीं स्वीकार तुझको ?
क्यों पराजय लग रहा है प्यार तुझको

दैन्य से दुनिया भरी है क्या मिलेगा
ज़ख्म वाला ज़ख्म तेरे क्या सिलेगा
चाहता जो खुद किसी की सरपरस्ती
इन  बुतों में ढूंढता तू  हाय   मस्ती
बंद भी कर खेल अब सारे  अहम के
दे गिरा  तू  आज सब परदे वहम के

सोच तो ! क्यों चाहिए संसार तुझको
क्यों पराजय लग रहा है प्यार तुझको

आये तो मेहमान घर में कैसे आये
तू खड़ा है द्वार पर सांकल चढ़ाये
चाहते-दुनिया बची तो  क्षेम कैसा
शेष है तू जब तलक फिर प्रेम कैसा
बीच से  खुद को  हटाकर  देख ले
आख़िरी  बाधा  मिटाकर  देख ले

कौन है  जो  रोकता  हर बार तुझको
क्यों पराजय लग रहा है प्यार तुझको

एक बाज़ी खेल तू भी संग अपने
देखता चुपचाप रह तू ढंग अपने
एक दिन फिर तू कहीं खो जायेगा
बस उसी दिन तू पिया को पायेगा
नहीं है तेरा यहाँ पर  मेल कोई
खेलने पाये न मन फिर खेल कोई

अब नहीं  कुछ  चाहिए  रे यार तुझको
दर्द क्यों है, क्या नहीं स्वीकार तुझको
क्यों पराजय लग रहा है प्यार तुझको !



- आनंद
30-10-2012










शुक्रवार, 26 अक्टूबर 2012

प्यार औ सरकार दोनों की रवायत एक है

शायरी में भर रहे थे एक मयखाने  को हम
अब ग़ज़लगोई करेंगे होश में आने को हम

कौन चाहे  मुल्क  का चेहरा बदलना दोस्तों
भीड़ में शामिल हुए हैं सिर्फ चिल्लाने को हम

देखिये लबरेज़ हैं दिल इश्क से कितने, मगर
मार देंगे 'जाति' से बाहर के दीवाने को हम

एक भी दामन नहीं जो ज़ख्म से महफूज़ हो
रौनकें लाएँ कहाँ से दिल के बहलाने को हम

प्यार औ सरकार दोनों की रवायत एक  है
रोज खायें चोट पर मज़बूर सहलाने को हम

इन दिनों 'आनंद' की बातें बुरी लगने लगीं
भूल ही जाएंगे इस नाकाम बेगाने  को हम

- आनंद
26/10/2012




गुरुवार, 25 अक्टूबर 2012

"बुरा जो देखन मैं चला "




कल सबको रावण दिखायी दे रहा था
पुतले वाला नहीं
'असली' वाला
मैं दंग था कि कोई एक तो मिले जो भ्रम में हो
मगर नहीं
रावण को लेकर आश्चर्यजनक रूप से सबकी जानकारी असंदिग्ध थी
वो यहीं है जीवित और हमारे बीच में है
मेरे सिवा हम सब में है |

गज़ब के नौटंकीबाज़ हैं हम ...सच में
धरती पर और कोई प्रजाति
चरित्रवान होने के मामले में
हमारा मुकाबला नहीं कर सकती
कुछ को आज सुबह तक भी दिख रहा था रावण
जो छूट गए हैं उनके लिये
आज शाम या रात तक अंतिम समय सीमा है
फटाफट आसपास नज़र दौड़ाइये
दो चार तो ढूंढ ही लेंगे
अब चूके
तो ऐसे दुर्लभ आत्मज्ञान के लिये
अगली विजयदशमी का इंतज़ार कैसे हो पायेगा
एक पंक्ति याद आती है
"पानी केरा बुदबुदा अस मानुष की जाति"  
 एक साल बहुत होते हैं भाई
'कालि करे सो आज कर'

________________ समर्पित : रावण जी को इस नोट के साथ कि आप मुझसे लाख गुने अच्छे थे | आपके जीवन में भी कुछ सिद्धांत तो थे कम से कम |

शनिवार, 20 अक्टूबर 2012

अब जाना है मुझे


अब जाना है मुझे !
कर लिया इंतज़ार
लिख लिया कवितायें और ग़ज़लें
सबको बता दिया कि तुम हो
मेरे शब्दों में साँसों में
और जीवन में भी
प्राण निकलने से ठीक पहले तक
जब कोई मिलने/देखने आता था
हर बार यही लगा कि... इस बार तुम हो
आखिर इस घड़ी तक तो आस थी ही
सारा जीवन यही तो सोचते रहे,  मरने से पहले कम से कम एक बार...
मन का चोर हर बार कहता रहा 'नहीं' 'वो क्यों ऐसा चाहेंगे'
ऐसे में तुम्हारी बात बार-बार याद आती
"मन के उपद्रव में मत पड़ना, ये लाख भटकाने की कोशिश करेगा"
"अपना यकीन बनाये रखना"
बना रहा मैं सारा जीवन
आशा और निराशा की जंग का मैदान
जब तक साँस तब तक आस
अब लगाना तुम कयास
पहले साँस टूटी
कि आस |

पर तुम्हें क्या पड़ी अपना समय जाया करो
ऐसी बेकार की बातों में,
हो सकता है कभी यह कविता
तुम्हारी नज़र से गुज़रे
इस लिये एक बात बता देता हूँ
मैंने तुम्हारे कहे अनुसार ही हमेशा खिड़की दरवाजे खुले रखे
पर कभी कोई नहीं आया
तुम्हारी ये दुनिया भी
एकदम तुम्ही पर गयी है
हाँ एक साथी मिला था, प्यारा सा
मुझे भाया भी बहुत
पर उसके पास मेरे लिये कुछ नहीं था
समय भी नहीं |

इस लिये अब राम राम !
राम ही क्यों ?
दो कारण हैं  एक तो खून में बहती बाबा की ये चौपाई ;
'जन्म जन्म मुनि जतन कराहीं / अंत राम कहि आवत नाहीं'
और दूजा ये कि
तुम्हारा नाम ले लिया तो फिर ख़्वाब जाग जायेंगे
और मैं
सपनों के बीच में नहीं मरना चाहता |

- आनंद
 २०-१०-२०१२

शुक्रवार, 19 अक्टूबर 2012

कब यहाँ दर्द का हाल समझा गया


बे जरूरत इसे ख्याल  समझा गया
कब यहाँ दर्द का हाल समझा गया

बात जब भी हुई मैंने दिल की कही
क्यों उसे शब्द का जाल समझा गया

महफ़िलें  आपकी  जगमगाती  रहें
आम इंसान बदहाल  समझा गया

हमने सौंपा था ये देश चुनकर उन्हें
मेरे चुनने को ही ढाल समझा गया

हालतें इतनी ज्यादा बिगड़ती न पर
देश को मुफ़्त का माल समझा गया

हाल  'आनंद'  के यूँ  बुरे  तो  न  थे
हाँ उसे जी का जंजाल समझा गया


- आनंद
१९-१०-२०१२

मंगलवार, 16 अक्टूबर 2012

आनंद मिल भी जाएगा वो पास ही तो है

ख्वाबों सा टूटकर कभी ढहकर भी देखिये
जीवन में धूपछाँव को सहकर भी  देखिये

माना कि प्रेम जानता है मौन की भाषा
अपने लबों से एकदिन कहकर भी देखिये

धारा के साथ-साथ तो बहता है सब जहाँ
सूखी नदी  के साथ में बहकर भी देखिये

अपना ही कहा था  कभी इस नामुराद को
अपनों की बाँह को कभी गहकर भी देखिये

जन्नत से  देखते हो दुनिया के तमाशे को
कुछ वक्त  मेरे साथ में   रहकर भी देखिये

'आनंद' मिल भी जाएगा  वो  पास ही तो है
अश्कों की तरह आँख से बहकर भी देखिये

-आनंद
१५-१०-२०१२ 

शनिवार, 13 अक्टूबर 2012

आँसू और सुगंध ...



तुम से मिली उपेक्षा से चिढ़कर
बहुत सारी बुराइयाँ आ बैठीं मुझमे
और जितनी भी अच्छाइयाँ हैं मेरे अंदर
वह सब की सब तुम्हारी हैं
बात बात में टोकना तुम्हारा
मैं झुंझला जाता था भले प्रकट नहीं करता था
पर तुम इस सबसे अंजान
बना रही थी
एक इंसान अपनी सोंचो के अनुरूप
आवरण और अहं विहीन
नतीजा आने तक तो रुकते तुम ...
तुम्हें किंचित भय था
इस राह से वापस न लौट जाऊं मैं बिना किसी सहारे के
पाकर खुद को अकेला
मगर
कहाँ जाऊं लौट कर
दुनिया जो पीछे छूट गयी है उसमें ?
अर्थहीन हो चुके संबंधों में ?
या फिर शब्दों और चेहरों की रेलमपेल में ?
आश्वस्त हो जाओ
मुझे अब पीछे मुड़कर देखना भी अजीब लगता है
खो गया है कहीं मेरा होना
जिसे नहीं ढूँढना चाहता मैं दुबारा
मैंने पार कर लिया है
वह चौराहा
जिस पर लाकर छोड़ा था तुमने
छोड़ आया हूँ पीछे वो सब जो मैं जानता था
आगे कुछ भी पहले से जाना हुआ नहीं है
अब तो हालात यह है कि
अगर कोई अगरबत्ती न जलाए
तो मुझे
महीनों तुम्हारी याद भी न आये

आँसू और सुगंध
नहीं नहीं
पानी और हवा
मुझे आज भी चाहिए जीने के लिये |

- आनंद
९/१०/१२

शुक्रवार, 12 अक्टूबर 2012

अजीब शख्स था अपना बना के छोड़ गया


हरेक  रिश्ता सवालों  के  साथ जोड़  गया
अजीब शख्स था, अपना बना के छोड़ गया

कुछ इस तरह से नज़ारों कि बात की उसने
मैं खुद को छोड़ के उसके ही साथ दौड़ गया

तिश्नगी तो न बुझायी गयी दुश्मन से मगर
पकड़ के हाथ  समंदर के पास  छोड़ गया  

मेरी दो बूँद से ज्यादा कि नहीं  कुव्वत थी 
सारे बादल मेरी आँखों में क्यों निचोड़ गया

कहाँ से लाऊं  मुकम्मल वजूद  मैं  अपना 
कहीं से जोड़ गया वो  कहीं से तोड़ गया 

हर घड़ी  कहता था 'आनंद'  जान हो मेरी
कैसा पागल था अपनी जान यहीं छोड़ गया 

-आनंद 
१४ मई २०१२ 

गुरुवार, 11 अक्टूबर 2012

बेशक मैंने दुनिया को चुना




बीते कई दिनों
एक ग़ज़ल ऐसे लटकी है गले से
जैसे तेरी याद
कुछ शेर आये बाकी के नखरे ...
जब कोई चीज़ हलक में फँसी हो तो
दुनिया में कुछ भी अच्छा नहीं लगता
जैसे लंगड़ डाली हुई गाय
कहने को छुट्टा छोड़ दी गयी हो चरने के लिये
पीड़ा को कहना ज्यादा मुश्किल है
बनिस्बत पीड़ा को जीने के
मैंने भी तो कहने का रास्ता चुना
तुम्हारी एक न सुनी
बेशक मैंने दुनिया को चुना
और सींचता रहूँगा अपने लहू से
इस क्यारी को
ताकि तुम इस में मनचाहे रंगों के फूल खिला सको
रोज बदल सको
रस रंग और सुगंध
आत्मा और आध्यात्म के नाम पर

आत्मा और आध्यात्म
सच में मुक्त करता है जीवन को
मगर उनको जिनके पेट भरे हों
जो भूखे हों उन्हें आध्यात्म नहीं
भगवान का ही सहारा होता है
और आत्मा
इसे भी मजदूर की देह से उतनी ही चिढ़ है
जितनी आध्यात्म को अज्ञान और मोह से
आत्मा को भाती है...
सन्सक्रीम, कोल्डक्रीम और माश्चरायज़र लगी त्वचा
गर्व से निवास करती है वो उसमें
और आध्यात्म ...
क्या कहूँ
तुम्हारा जीवन और तुम्हारा प्रेम
काफ़ी है सब कुछ कहने के लिये |


- आनंद
११-१०-२०१२

मंगलवार, 9 अक्टूबर 2012

रहोगे न ?

हजार बार मन किया 
बेवफा कह दूं तुझे पर तेरी आँखें 
देखने लगती हैं मुझे एकटक 
मुझे वो तुम्हारा हिस्सा नहीं लगती 
वो न तो झुकती हैं 
न इधर उधर देखती हैं 
और न ही कोई बहाना करती हैं 
बस ऐसे देखती हैं 
जैसे कोई देखता है खुद को आईने में दिन भर के बाद 
मैं खुश हो जाता हूँ
तुम में कुछ तो है अभी बाकी मेरा
वफ़ा बेवफाई
दूरियाँ नजदीकियाँ
मिलन वियोग
प्रेम और प्रेम भी नहीं
ये तो सब जीवन का हिस्सा हैं
जब तक जीवन रहेगा ये सब रहेंगी ही
मगर तुम तो जीवन के बाद भी रहोगे
रहोगे न ?


चौरासी लाख कम नहीं होते यार
मुझसे अकेले
इतना चक्कर नहीं काटा जाएगा |


-आनंद
8-10-2012 

शनिवार, 6 अक्टूबर 2012

जंग ये जारी नहीं तो और क्या है दोस्तों

भूख लाचारी नहीं तो और क्या है दोस्तों
जंग ये जारी नहीं तो और क्या है दोस्तों

अब कोई मज़लूम न हो हक़ बराबर का मिले
ख़्वाब  सरकारी  नहीं तो और क्या है दोस्तों

चल रहे भाषण महज औरत वहीं की है वहीं 
सिर्फ़ मक्कारी नहीं तो और क्या है दोस्तों

अमन भी हो प्रेम भी हो जिंदगी खुशहाल हो
राग दरबारी नहीं  तो  और  क्या  है  दोस्तों

नदी नाले  कुँए  सूखे,  गाँव  के  धंधे  मरे
अब मेरी बारी नहीं तो और क्या है दोस्तों

इश्क मिट्टी का भुलाकर हम शहर में आ गए
जिंदगी प्यारी नहीं तों और क्या है दोस्तों

- आनंद
०६-१०-२०१२ 

गुरुवार, 4 अक्टूबर 2012

रास्ते तो न मिटाए कोई

बेवजह अब  न  रुलाये  कोई
गर कभी अपना बनाये कोई

दिले-नादाँ को संगदिल करलूं
कैसे, मुझको  भी बताये  कोई

वो नहीं लौटने वाला  लेकिन
रास्ते  तो  न  मिटाए  कोई

दर्द के फूल दर्द की खुशबू
दर्द के गाँव तो आये कोई

मौत आने तलक तो जीने दे
रात दिन यूँ न सताये  कोई

जिनकी महलों से आशनाई हो
क्यों उन्हें झोपड़ी भाए कोई

काश वो भी उदास होता हो
जिक्र जब मेरा चलाये कोई

एक  'आनंद' भी इसमें है जब
खामखाँ खुद को मिटाए कोई

- आनंद
०४/१०/२०१२

बुधवार, 3 अक्टूबर 2012

अपने से दूर तुझको किधर ढूंढ रहा हूँ

मंज़िल  के  बाद  कौन  सफ़र  ढूंढ  रहा हूँ
अपने  से  दूर  तुझको  किधर  ढूंढ  रहा हूँ

कहने को शहर छोड़कर सहरा में आ गया
पर   एक    छाँवदार  शज़र  ढूंढ  रहा   हूँ

जिसकी नज़र के सामने दुनिया फ़िजूल है
हर शै  में  वही  एक  नज़र  ढूंढ  रहा  हूँ

लाचारियों का हाल तो देखो कि इन दिनों
मैं दुश्मनों  में  अपनी  गुजर  ढूंढ  रहा  हूँ

तालीम  हमने पैसे  कमाने  की दी  उन्हें
नाहक  नयी  पीढ़ी  में  ग़दर  ढूंढ  रहा हूँ

जैसे शहर में  ढूंढें  कोई  गाँव वाला  घर
मैं मुल्क  में  गाँधी का असर ढूंढ रहा हूँ

यूँ गुम हुआ कि सारे जहाँ में नहीं मिला
'आनंद' को  मैं  शामो-सहर  ढूंढ रहा हूँ

- आनंद
०२/१०/२०१२