प्रवासी परिंदे की तरह
तुम
जब उड़ कर आये
मेरे शहर की गलियों में,
मैंने तैयार रखीं थीं
प्रतीक्षारत आँखें
थोड़ा सा इंतज़ार
बहुत सारी उम्मीदें …
और हाँ कुछ बेवकूफ़ियाँ भी,
इस पूरे एक पखवाड़े
मैंने पहने एकदम चमचमाते जूते
रोज कलप और इस्तरी किये कपड़े
ध्यान रखा कि पूरी गोलाई में कटे रहें नाखून
और आईने को एक भी बाल
सफ़ेद नज़र न आये
आज जब तुम लौट रहे हो
अपने आशियाने की तरफमैंने अपने अंदर के शरारती बच्चे को
पीट दिया है बेवजह,
अचानक हो उठा हूँ शांति प्रिय
इतना बूढ़ा … और थका
कि
अब नहीं दे सकता खुद को
कुछ भी !
- आनंद