गुरुवार, 27 सितंबर 2012

टपकती छत से ...

पानी की  एक बूँद
छत से चली
मुझे देखते हुए
मैं भी देख रहा था उसे ही
आकर आँख के नीचे गिरी
टप्प !
थोड़ी देर बाद एक और चली
मगर मैंने
इस बार लगा दी थी थाली
ठम्म
इस बार वो बंट गयी
सैकड़ों हिस्सों में
मैंने देखा
एक को अनेक होते हुए

ऐसे ही
तेरी याद की एक छोटी सी बूँद
जब भी टकराती है
मेरे पत्थर हो चुके जेहन से
न जाने कितने रंग रूप  और हिस्से
हो जाते हैं
फिर यादों के |

- आनंद 

बुधवार, 26 सितंबर 2012

जाने कैसा रोग लगा है सूरज चाँद सितारों में ...

अब भी कुछ कहना बाकी है तुझसे मौन इशारों में
थोड़ा जीवन बचा हुआ है अब भी इन किरदारों में

हर 'संगम' में किसी एक को खो जाना ही होता है
बचता है बस एक अकेला फिर आगे की धारों में

जलते हैं फिर भी चलते हैं कैसे पागल आशिक हैं
जाने कैसा  रोग लगा है  सूरज  चाँद  सितारों में

नाम आत्मा का  ले लेकर जीवन का सुख  लूटेंगे
दुनिया ने यह बात सिखायी है पिछले त्योहारों में

मुझको यहाँ कौन पूछेगा वापस घर को चलता हूँ
जिनको है  उम्मीद अभी,  वो  बैठे  हैं  बाजारों में

उनका आना  या न आना  उनकी  बातें  वो  जाने
हम  तो  दीप  जलाकर  बैठें  हैं  अपने  चौबारों में

जितनी  बची  हुई हैं  साँसें वो 'आनंद' बिता लेगा
चलते-फिरते  रोते-गाते  यूँ   ही  अपने  यारों  में

-आनंद
२३-०९-२०१२ 

मंगलवार, 25 सितंबर 2012

रस और विचार का संगम .... एक काव्य संध्या ऐसी भी !

कभी कभी  जब शाम भी हो शांति भी हो रविवार भी हो और अचानक अपनों से मिलना हो जाए ...और फिर उस मिलने में कविता भी आकर चुपचाप बैठ जाए चुपके से ...कहीं कोई नज़्म आकर गले में बाहें डाल दे  तो कैसा लगेगा ...ऐसा ही एक बेहद मीठा अनुभव हुआ परसों २३ की शाम श्रीकांत सक्सेना जी के आवास पर   वहाँ पहुंचा तो पाया कि सड़क पर ऑटो से श्री अरुण देव जी उतर रहे हैं और उनके साथ है कर्नाटक से पधारे श्री एस एम जागीरदार साहब !
खैर हम भी खरामा खरामा .... 4A /DB 202 हुडको ट्रांजिट फ्लैट्स ढूंढने में लग लिये और जब मंजिल रूबरू हुई तो इस सुखद आश्चर्य के साथ कि  वहाँ पर गाज़ियाबाद से सुश्री वंदना ग्रोवर जी और निरुपमा सिंह जी को बैठे पाया |

इसे श्री सईद अयूब जी का जादू कहूँ तो शायद अतिशयोक्ति न होगी कि इतनी अल्प सूचना पर आज की मुख्यधारा की कविता के सशक्त हस्ताक्षर और दूरदर्शन के महानिदेशक श्री लीलाधर मंडलोई जी और श्री अरुण देव जी, सीमा सुरक्षा बल में महानिरीक्षक कवि श्री मनोहर बाथम जी , श्री प्रमोद कुमार तिवारी जी हरदिल अज़ीज़ और आला कवि भाई भरत तिवारी जी, सुश्री विपिन चौधरी जी, मेरे प्रिय कवि श्री त्रिपुरारी कुमार शर्मा जी और ये नाचीज़  एकत्रित हो गए ... श्रीकांत सक्सेना जी जो स्वयं एक कवि और माहिर गज़लगो हैं  एक बहुत ही अच्छे मेज़बान भी साबित हुए ! जल और जलपान के साथ गप्प-सड़ाका ये तो वैसे भी किसी भी कार्यक्रम का सबसे प्रिय क्षण होता है !
बहरहाल श्री मंडलोई जी को आने में कुछ देर थी तो सभी के अनुरोध पर सभा की अध्यक्षता का दायित्व श्री  अरुण देव जी ने स्वीकारा और संचालन का गुरुत्तर दायित्व श्री त्रिपुरारी जी ने, और महफ़िल का आगाज़ हुआ भाई भरत की बेहतरीन गज़ल 'बक्से-अहमक' से जिसमे उन्होंने आज की इलेक्ट्रोनिक मीडिया पर गज़ब का तंज किया है ..भरत भाई का लहजा उनकी कविताओं और गज़लों से भी ज्यादा मासूम होता है कला और प्रतिबद्दता उनका दूसरा पहलू है | ... दूसरा नाम लिया गया वंदना ग्रोवर जी का ...गज़ब की संवेदना लिये हुए कवितायेँ और कविता जैसा ही नाजुक उनका काव्यपाठ का अंदाज़ एक और एक और की आवाजें तो आनी ही थीं ! ....फेसबुक पर और मित्रों में समान रूप से लोकप्रिय और आदरणीय,  मृदुभाषी सुश्री निरुपमा जी ने नीलिमा की छटा बिखेरते हुए अपनी एक नायाब कविता 'नीला चाँद' (नामकरण मैंने कर दिया क्षमा प्रार्थना के साथ )  आकाश दृष्टा निरुपमा जी प्रकृति को जब अपनी कविताओं में जीती हैं तो कवितायेँ बोल पड़ती हैं  और जब वो जीवन की विडम्बना पर चोट करती हैं  निशब्द कर देती हैं !
इसके बाद इस खाकसार ने भी अपनी दो छोटी छोटी ग़ज़लें पढ़ीं और महफ़िल का रुख हुआ भाई सईद अयूब जी की ओर  सफल आयोजक , सफल संचालक , एक सफल कथाकार  और और एक बेहद संवेदनशील कवि , यद्यपि बहुत कम सुनने का अवसर मिल पाता है सईद जी को मगर जब मिला तो संध्या अमृतमयी हो गयी चुने हुए अशआर चुनी हुई ग़ज़लें  और नज़्मों में छलकता अथाह प्रेम  सईद भाई अबा कभी ये बहाना मत करना कि हम तो कविताओं वाला पुर्जा लाये ही नहीं !.......... जब कभी आप विपिन जी को सुने (सुश्री विपिन चौधरी जी को) तो हो सके तो साँसें भी बहुत जोर से न लीजियेगा अन्यथा संवेदना का कौन सा तंतु झंकृत होने रे रह जाए इसके जिम्मेदार आप स्वयं होंगे बकौल श्री त्रिपुरारी जी "विपिन जी ने अपने हालिया लेखन से अपने स्वयं के बनाये हुए प्रतिमानों को ध्वस्त किया है " ... 'कपास के सफ़ेद फूल' मौसम में इस लिये खिले कि विपिन जी हर रंग के गुलों  को तो दुनिया में बाँट दिया है रंगों  की इस मारामारी में अब केवल एक कपास का ही रंग है जो अपना रह गया है | आधुनिक कविता की सशक्त हस्ताक्षर विपिन जी को एक बार फिर से सुन पाना मेरे लिये सूखा आश्चर्य से कम नहीं था |
   प्रिय श्री प्रमोद कुमार तिवारी जी को दुबारा सुन पा रहा था प्रमोद जी की कवितायेँ आंचलिक सरोकारों को राष्ट्रीय पटल पर रखने के महान और भागीरथ प्रयास का हिस्सा लगीं मुझे ...जब उन्होंने अपनी कविता 'डर' सुनायी तो पल भर को हम सभी उनके डर से डर गए,  सच है कि आज संवेदनशील होना भी डर की एक बड़ी वजह हो सकती है ..उनकी अन्य कविताओं में ग्रामीण जीवन उनके अंतर्द्वन्द रिश्तों की बुनावट  और उनकी विडंबनाएं बहुत कुछ कहती हैं दूसरे सत्र में 'डायन'  पर लिखी गयी उनकी कविता ने सबके रोंगटे खड़े कर दिए |...... और फिर सबके अनुरोध पर मेजबान श्री श्रीकान्त जी की मनभावन कवितायें उन्हें भी दूसरी बार सुन रहा था मैं मगर पहली बार सुन रहा था विस्मय में भरकर बहुत कोमल लहजा और उतनी ही कोमल किन्तु दृढ कवितायें !
प्रिय श्री त्रिपुरारी कुमार शर्मा जी  एक ऐसा नाम जो लगता है कि नज़्मों के लिये ही बना है ... और पिछले दो बार से जब भी उनको सुन रहा हूँ उनकी गज़ल भी क़यामत ढाती हुई लग रही हैं  अंदाजेबयां और तलफ्फुस दोनों तो कमाल के है ही ...जब त्रिपुरारी जी नज़्म पढ़ते हैं  तो उनकी मखमली आवाज़ में नहा कर  नज़्म जिंदा हो उठती है ...'मेरी देह की दलदल में तुम्हारे यादों के पाँव' त्रिपुरारी जी ऐसे ही नहीं पहली मुलाकात के बाद मुझे प्रिय हैं |
     श्री अरुण देव जी के बारे में कुछ भी कहने में एक सहज संकोच सा होता है ....वरिष्ठ कवि केवल कथन में नहीं ..कविता की भावभूमि, उसकी  परिपक्वता उसके मुहावरे  और फिर वाचन का उनका एक विशिष्ट ढंग  कुलमिलाकर उदीयमान और लेखन के प्रति गंभीर कवियों को उनसे बहुत कुछ सीखने को मिलता है हर ऐसे अवसर पर जब उनका सानिध्य हासिल होता है ..... पहली कविता 'लालटेन' जैसे प्रतीक्षा ने भी शांति का रूप धारण कर लिया हो अनोखे बिम्ब ... सायं से लालटेन का सजना संवरना हम जैसे लोग जिनकी एक तिहाई उम्र लटें के उजाले में गुजरी हो के लिये स्मृतियों में लौट जाने का एक सुखद अवसर था .... दूसरी कविता 'मीर'  जिसमे आपने मीर ताकि 'मीर' के शेरों को  कविता में ढाला है और सिंधु नदी के उस पार  से बहती आयी भाषा की एक नदी को शिद्दत से याद किया है  जिसके आज हिंदी और उर्दू के रूप में दो हिस्से हो गए हैं |
              यह सब होते करते  श्री लीलाधर मंडलोई जी श्री मनोहर बाथम जी के साथ पधार चुके थे  इस लिये उनको सुनने से पहले स्वल्पाहार का एक छोटा सा दौर  और साथ में एक परिचर्चा भी , हम सब की उत्सुकता कर्नाटक से आये जागीरदार साहब से यह जानने की थी कि आखिर वहाँ हिंदी कि दशा दिशा क्या है  श्री जागीरदार साहब ने बताया कि उनके महाविधालय/ विश्वविद्यालय जहाँ  वो शिक्षण का कार्य करते हैं में केवल बी.ए. में ही साढ़े तीन सौ  हिंदी के छात्र है  आपके मुँह से यह सुनना भी सुखद रहा कि वहाँ हर विश्वविद्यालय /महाविद्यालय में हिंदी की एम.ए. की कक्षाएं हैं और प्रायः सभी सीटें भरी ही होती हैं  ...  श्री अरुण देव जी और श्री सईद अयूब जी  ने अपने हालिया गुजरात के अनुभव को बांटते हुए हम सब को बताया कि 'खुले में रचना' कार्यक्रम के बाद तीसरे दिन  उन लोगों का एक काव्यपाठ आई एन ए में हुआ था जहाँ अधिकाँश लोग वैज्ञानिक पृष्ठभूमि  के थे मगर कविता उन तक पहुंची और सब ने बड़े उत्साह से काव्यपाठ का आनंद लिया | श्री लीलाधर मंडलोई जी ने इस पर एक बात कही कि हम हिंदी के लोग खुद न जाने किस अनजान भय का शिकार है और इन गोष्ठियों से निकल कर आमजन तक जाने की कोशिश नहीं करते हैं, परिणाम स्वरुप साहित्य और आमजन के बीच में एक अंतराल सा बना रहता है और फिर इस अंतर को पाटता है स्तरहीन वो साहित्य और कविता जो वाह वाह के लिये ही लिखी जाती है और जनमानस उसे ही मुख्य धारा का साहित्य समझ बैठता है | श्री मंडलोई जी ने एक सुझाव यह भी दिया कि भले ही एक कार्यशाला का आयोजन क्यों न करना पड़े  कवियों को काव्यपाठ की बारीकियाँ भी सिखायी जानी चाहिए क्योंकि कई बार अच्छी कविता भी सम्प्रेषण की कमी से वांछित प्रभाव पैदा करने में असमर्थ होती है जबकि प्रभाव शाली ढंग से पढ़ी गयी कविता समझ के नए आयाम खोलती है उन्होंने ने मंच पर काव्यपाठ करने के दौरान "माइक से वक्ता का संबंध" जैसे तकनीकी पहलू पर भी प्रकाश डाला और जोर दिया कि हर कविता पढ़ने वाले को इसकी जानकारी होनी चाहिए |   चर्चा में हस्तक्षेप करते हुए  श्री मनोहर बाथम जी ने देश के सुदूर सीमावर्ती क्षेत्रों के अपने अनुभव को बांटते हुए (ज्ञातव्य हो कि श्री बाथम जी सीमा सुरक्षा बाल में महानिरीक्षक हैं ) कहा कि वह जहाँ भी अपनी पोस्टिंग के दुरान रहे हैं ऐसी काव्य संध्याओं का आयोजन किया है और उनमे स्थानीय लोगों की भागीदारी बहुत उत्साहवर्धक रही है , उन्होंने इस बात पर बल दिया कि ऐसे आयोजनों में स्थानीय भाषा का कोई कवि यदि है तो उसे बुलाएं और धैर्य पूर्वक उसे सुनें  ऐसा करने से  अन्य भाषा भाषियों में भी हिन्दी के प्रति प्रेम बढ़ता है | श्री बाथम ने आइजोल (मिजोरम) का जिक्र करते हुए कहा कि वहाँ प्राथमिक स्तर पर १५० विद्यालयों में हिंदी का पठन पाठन शुरू हुआ है !
                  कविताओं के दूसरे दौर का मुख्य आकर्षण श्री बाथम जी की सरहद पर लिखी गयी अनूठी कवितायें थीं बकौल मंडलोई जी " श्री मनोहर बाथम देश के एक मात्र ऐसे कवि है जिन्होंने सरहद को अपनी कविताओं का विषय बनाया है वह एक बेजोड़ कवि है" ज्ञातव्य हो कि श्री मनोहर बाथम के  काव्यसंग्रह "सरहद के पार" का अबतक  बारह भाषाओं में अनुवाद हो चुका है | श्री बाथम जी कि कविता 'सरहद का पेड़' भौगोलिक सीमाओं में बार बार बंटती मानव संवेदनाओं का मर्मस्पर्शी चित्रण है तो वहीं उनकी मानव तस्करी पर चालीस कविताओं की श्रंखला कि कुछ कवितायें इस भयावह त्रासदी की ओर सबका ध्यान खींचने में सक्षम और विचार करने के लिये विवश करती दिखी !
श्री लीलाधर मंडलोई जी को मैं तीसरी  बार प्रत्यक्ष सुन रहा था  हर बार एक  नयापन, हर बार चिंतन की एक अलग धारा का अनुभव चाहे वो नास्तिक कविता के बहाने एक अलग नजरिये से मंदिर का भ्रमण और फिर भक्त, भौतिकी और भगवान के संबंधों की अनूठी विवेचना हो  या फिर पुन्य की लालसा में गरीब को आधा पेट भोजन कराते हुए स्वार्थी पुन्यार्थियों पर तीखा कटाक्ष हो  श्री मंडलोई जी हर जगह अद्वितीय हैं | 'पचास के पार' कविता में परिवार की आंतरिक अभिव्यंजनाओं की सूक्ष्म पड़ताल,  नई पीढ़ी के नए मुहावरे  और अधेड वय के स्त्री -पुरुष की मनोदशाओं का बारीक चित्रण  शायद देश के इस कद्दावर कवि के ही बस की बात थी |
        इस के बाद सभी ने अपनी एक एक कविता और सुनायी जिसमे  श्री प्रमोद तिवारी की डायन , सुश्री वंदना ग्रोवर जी की पंजाबी कविता जो उन्होंने बड़े आग्रह के बाद सुनायी  निरुपमा जी की वैचारिक पृष्ठभूमि वाली कविता, श्री सईद अयूब जी की एक बेहद प्यारी नज़्म जो की मशहूर गज़ल गायक जगजीत सिंह जी को समर्पित थी , त्रिपुरारी जी की प्रसिद्ध कविता 'गोहाटी के गले से' श्रीकांत जी की एक बहुत  प्यारी गज़ल और भाई भरत की कविता ! अब बारी थी पुनः अध्यक्ष श्री अरुण देव जी की, अपने अध्यक्षीय उदबोधन में श्री देव जी ने पढ़ी गयी कविताओं की एक सारगर्भित समीक्षा प्रस्तुत किया जिसमे उन्होंने कवि क्रम से हर कविता में आयी संभावनाओं और कमियों की ओर कवियों का ध्यान खींचा और फिर अंत में खुद की एक प्रसिद्ध और चर्चित प्रेम कविता जिसमे अपनी पत्नी के माध्यम से स्त्री पुरुष संबंधों और मनोविज्ञान  की सूक्ष्म पड़ताल की गयी थी सुनाकर इस रसमय काव्य संध्या के समापन की औपचारिक घोषणा कर दिया | अस्तु !!




सोमवार, 24 सितंबर 2012

सफ़र

ये रास्ते का संघर्ष
ये पीड़ाएं
ये इंतजारी के दिन
ये प्रतीक्षा की रातें
ये दर्द के आँसू
अहा !
मंज़िल से ज्यादा आनंद तो
सफ़र में है

सुनो मेरी मंज़िल... !
मैंने नहीं पहुँचना
कहीं भी...

-आनंद

गुरुवार, 20 सितंबर 2012

टूटता कहाँ है दिल ...

विशुद्ध रासायनिक क्रिया है
दिल का टूटना
देखने में भले ही भौतिकी लगे,

इसमें भौतिक इतना ही होता है कि
किसी को देखने की लत से मजबूर नशेड़ी आँखें
चेहरे से हटकर दिल में फिट हो जाती हैं
फिर
दिल से दिखायी पड़ने लगता है सब कुछ
और पथरा जाती है
चेहरे की आँखें

जरा भी आकस्मिक घटना नहीं है
दिल टूटना
क़तरा-क़तरा करके ज़मींदोज़ होता है कोई ख़्वाब
रेशा-रेशा करके टूटता है एक धागा
लम्हा-लम्हा करके बिखरती है जिंदगी
उखडती है हर बार जड़ों के साथ थोड़ी थोड़ी मिट्टी
टूटने से ठीक पहले तक
टूटता कहाँ है दिल

बुद्धिमानों की दुनिया में
किसी रंगकर्म सा मनोरंजक होता है
दिल का टूटना
आखिर किसी और का प्रेम श्रेष्ठ कैसे हो सकता है
हर मुमकिन कोशिश नीचा साबित करने की
चाहत, आसक्ति, मोह
अज्ञान ... और भी न जाने क्या क्या
हज़ारों बार अनेकों युक्तियों से तोड़ा जाता है इसे
टूटने से ठीक पहले तक
टूटता कहाँ है दिल

महज़ एक कविता नहीं है
दिल का टूटना  
कभी कभी तो लोग टूट जाया करते हैं
टूट जाती है सारी कायनात
हौसले टूट जाते हैं
उम्मीद ... और फिर भरोसा
डूबने से ठीक पहले खूब जोर से नाचती है
भँवर में फँसी कश्ती

टूटने से ठीक पहले तक
टूटता कहाँ है दिल |

- आनंद
१८/०९/२०१२


बुधवार, 19 सितंबर 2012

सुनते सुनते ऊब गए हैं किस्से लोग बहारों के

उड़ते  उड़ते   रंग   उड़  गए  हैं   सारी   दीवारों   के
सुनते  सुनते  ऊब  गए  हैं  किस्से  लोग  बहारों के

जीते जी जिसने दुनिया में 'कल का कौर' नहीं जाना
मरते  मरते  भी  वो  निकले  कर्जी  साहूकारों  के

बढते  बढते  मंहगाई  के  हाथ  गले तक  आ  पहुँचे
कुछ  दिन  में  लाशों  पर  होंगे  नंगे नाच बज़ारों के

कम से कम तो आठ फीसदी की विकाश दर चहिये ही
भूखी जनता  की  कीमत  पर,  मनसूबे   सरकारों  के

राजनीति  से  बचने  वाले  भले  घरों  के  बाशिन्दों
कल  सबकी  चौखट  पर  होंगे  पंजे  अत्याचारों  के

कहते कहते जुबाँ थम गयी चलते चलते पांव रुके
अब  मेरे  कानों में  स्वर  हैं  केवल  हाहाकारों के

ये 'आनंद' बहुत छोटा था जब वो आये थे  घर-घर
अब फिर जाने  कब  आयेंगे  बेटे 'सितबदियारों' के


--------- 'कल का कौर' = सुकून की रोटी ...यह अवधी का एक मुहावरा है
              सितबदियारा = जयप्रकाश नारायण का गाँव

- आनंद
१९-०९-२०१२ 

शनिवार, 15 सितंबर 2012

आज अख़बार भी लगते हैं

तेरी राहों में  कभी था जो  उज़ालों की तरह
हाल उसका भी हुआ  चाहने वालों की तरह

उम्र भर याद तो आया वो किसी को लेकिन
या हवालों की तरह या तो सवालों की तरह

जरा  भी  जोर  से  रखा  तो  टूट  जाएगा
दिले नाशाद हुआ चाय के प्यालों की तरह

बहुत गरीब  हैं  साहब ,  मगर  कहाँ   जाएँ
मुल्क को हम भी जरूरी हैं घोटालों की तरह

जब तरक्की के लिये बैठकों का  दौर चला
जिक्र गाँवों का हुआ नेक खयालों की तरह

किस से उम्मीद करें, साफ़  बात  कहने की
आज अख़बार भी लगते हैं दलालों की तरह

-आनंद
१३-०९-२०१२ 

शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

नींद की चिट्ठी

रात नींद ने एक चिट्ठी लिखी
नाम तुम्हारा 
पता मेरा ...

सांसें महक सी गयीं 
होंठ खिल पड़े एक मुद्दत बाद 
वही विश्वाश 
वही अपनापन 
आँखें फिर से शरारती हुईं 
तुम्हारे झूले पर बैठे हम पल भर को 

वही चिड़ियों की चहचहाहट ...
मेंहदी इस बार भी अच्छी चढ़ी है
तुमने उतने ही मन से
मुझे खिलाया अपने हाथ से बना खाना
सच कहता हूँ
मुझे बहुत अच्छा लगा

तुम ख्वाबों में
अब भी
वैसी की वैसी हो ...
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- आनंद 

गुरुवार, 13 सितंबर 2012

बैरन हो गयी निंदिया ...

रात एक बजे वाली करवट 
बोली नहीं कुछ 
सुलगती रही 
अंदर ही अंदर 
मगर फिर 
डेढ़ बजे वाली ने 
चुपचाप आती जाती साँसों के कान में 
भर दिया न जाने कैसा ज़हर 
अंदर जाती हर साँस ने नाखूनों से 
खरोंचना शुरू कर दिया दिल को 
बाहर आती साँस को हर बार
पीछे से धक्का देना पड़ रहा था

खुली पलकों ने
कातर होकर
बूढ़े बिस्तर के शरीर पर आयी
झुर्रियों को देखा
बिस्तर ने
करवट की ओर देखा
करवट ने घड़ी की ओर
घड़ी ने आसमान की ओर
आसमान ने चाँद की ओर
और
चाँद ...?

बस्स्स्स !


तुम्हारा जिक्र आते ही
मैं नाउम्मीद हो जाता हूँ


हरजाई साँसें
ये सारी बात
नहीं समझती न |
_________________

- आनंद 

सोमवार, 10 सितंबर 2012

बातें है बातों का क्या

तुमने तो कह दिया 
हँस कर 
मुझे 
पागल
माँ की एक बात याद आ रही है 
तभी से 
और 
सोंच रहा हूँ 
काश तुम्हारी जबान पर बैठी होती 
'सरस्वती' |
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करना चाहता हूँ 
एकदम नई शुरुआत 
पर
हे प्रिय मृत्यु !
तेरे सहयोग के बिना 
यह संभव नहीं |

और हे प्रिय जीवन ! 

खुश हूँ 
बल्कि
साफ कहूँ तो
तूने उम्मीद से ज्यादा निभाया है
काश मैं भी किसी के प्रति
इतनी
वफादारी निभा पाता |

______________________




सर्दियों में
सूरज
बहूऊऊऊउत दूर हो जाता है धरती से
तब कितनी अच्छी लगती है न धूप !
सच्ची बताना
दूर होने
और फिर अच्छा लगने का चलन
भगवान ने ही बनाया है क्या ?

वैसे एक बात बताऊँ
तुम दूर होकर
बहुत बुरे लगते हो
हाँ !
:( :(


- आनंद








रविवार, 9 सितंबर 2012

इसमें क्या दिल टूटने की बात है


इसमें क्या दिल टूटने की बात है
जख्म ही तो प्यार की सौगात है

जिक्र फिर उसका हमारे सामने
फिर हमारे इम्तेहां   की रात  है

दो घड़ी था साथ फिर चलता बना
चाँद  की  भी  दोस्तों सी जात है

साथ  अपने  रास्ते  ही  जायेंगे
सिर्फ़ धोखा मंजिलों की बात है

हैं हकीकत बस यहाँ तन्हाइयाँ
वस्ल तो दो चार दिन की बात है

कौन  कहता  है  कि  राहें बंद हैं
हर कदम पर इक नयी शुरुआत है

मत चलो छाते लगाकर दोस्तों
जिंदगी 'आनंद' की बरसात है |


- आनंद 


शनिवार, 8 सितंबर 2012

फ़ुरसत में आज़ सारे जमाने का शुक्रिया

इस नाज़ुक़ी से मुझको मिटाने का शुक्रिया
क़तरे को  समंदर से  मिलाने  का शुक्रिया  

मेरे सुखन को अपनी महक़ से नवाज़ कर
यूँ आशिक़ी का  फ़र्ज़  निभाने का शुक्रिया 

रह रह  के तेरी खुशबू उमर भर  बनी रही
लोबान  की  तरह से   जलाने का शुक्रिया  

इक भूल  कह  के  भूल ही  जाना कमाल है
दस्तूर-ए-हुश्न   खूब  निभाने  का  शुक्रिया

आहों  में  कोई और हो   राहों  में कोई और
ये साथ  है   तो  साथ में  आने  का शुक्रिया 

दुनिया  भी बाज़-वक्त   बड़े  काम की लगी
फ़ुरसत में  आज  सारे ज़माने  का शुक्रिया

जितने थे  कमासुत  सभी शहरों में  आ गए 
इस  मुल्क  को 'गावों का' बताने का शुक्रिया 

ना  प्यार  न सितम  न  सवालात  न झगड़े 
'आनंद'   बे-वजह जिए जाने   का   शुक्रिया 


- आनंद
०४-०९-२०१२
              -


गुरुवार, 6 सितंबर 2012

आओ आनंद वहीं चल के बसें ...

उसको जिससे भी प्यार होता है
हाय   क्या  बेशुमार   होता  है

मेरा दिलबर मुझे बता के गया
इश्क  भी  बार  बार  होता  है

कौन जन्नत  की  आरजू पाले
जब  खुदा  अपना यार होता है

जिसको नेकी बदी का होश रहे
ख़ाक  वो   इश्कसार  होता  है

जिसकी अश्कों से रात न भीगी
वो   बुतों  में    शुमार  होता है

मैंने  खुद को जला के जाना है
सिर्फ़  हासिल   गुबार  होता है

आओ 'आनंद'  वहीं चल के बसें
जिस जगह अपना यार होता है

- आनंद 

बुधवार, 5 सितंबर 2012

नश्तर (२)

(एक)

कभी कभी मेरा बड़ा मन करता है 
कि मैं 
तुमसे बात करूँ 
उसमें भी 
कभी कभी मैं अपने को रोक ले जाता हूँ 
पर कभी कभी 
असफल भी हो जाता हूँ 
तब लिखता हूँ मैं ... कविता 

मेरी सारी कवितायेँ 
दरअसल मेरी असफलताओं का
दस्तावेजी प्रमाण हैं |

(दो)

एक तस्वीर 
बहुत पुरानी भी नहीं 
तुम 
बेतहाशा मुस्करा रहे हो 
तुम्हारी आँखों से 
छलका पड़ रहा है प्यार 
और छलक रहीं हैं 
मेरी आँखें 
तभी से |

(तीन)
इस बार जब भी
कविता लिखूंगा 

पूरी कोशिश करूंगा कि
तुमको न लिखूं
और अगर लिखूं भी तो 
किसी को कानों-कान खबर न हो

मेरे हुनर की
तारीफ करोगे न तुम ?

(चार)

हिचकी और चीख़  में
फर्क होता है 
भले दोनों की वजूहात एक हों 
घुटी हुई चीख भी 
चीख ही होती है 
जिसे सुनना 
किसी की भी जिम्मेदारी नहीं है |

(पाँच)

नाराज़ किसी और से होना 
और सज़ा खुद को देना 
बड़ी अजीबोगरीब रस्मों का नाम है 
इश्क,
क्या हो जब 
नाराजगी हद से बढ़ जाए 
और फिर सज़ा भी ...

मैं इन सब झमेलों से दूर हूँ 
मेरा जिंदा रहना 
इस बात का सुबूत है |

(छः)

तनहा डगर पर पहला कदम
जैसे घात ही लगाये बैठे थे
एक साथ इतने तूफ़ान,
हर बार यही मन किया कि लौट जाऊं
पीछे मुड़कर देखा भी,
तुम नहीं थे 
होने का कोई चिन्ह भी नहीं
लौटता तो कहाँ
किसके लिए
और मैं चल पड़ा

कई बार मजबूरियाँ भी
बहादुरी बन जाती हैं |

(सात)

जैसे चोट देना 
तुम्हारी फितरत है 
वैसे ही 
उम्मीदें लगाना मेरी, 
बेशक... 
मैं कुत्ते की पूँछ हूँ |

(आठ)

मैं 
कोई दुःख पसंद इंसान नहीं 
खुश हो जाता हूँ 
बहुत छोटी छोटी बातों पर 
तुम चाहो तो
हँसता भी रह सकता हूँ 

पर तुम 
ऐसा क्यों चाहोगी ?
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- आनंद 

मंगलवार, 4 सितंबर 2012

दुनिया मुझको पागल समझे...



बैठे  ठाढ़े  जितने  मुँह  उतने  अफ़साने   हो जायेंगे
ऐसे महफ़िल में मत आओ, लोग दिवाने हो जायेंगे

दिल की बात जुबाँ पर कैसे लाऊं समझ नहीं आता
कभी अगर पूछोगी भी तो हम अंजाने  हो  जायेंगे

सांझ ढले छत पर मत आना मुझको ये डर लगता है
क्या होगा जब चाँद सितारे सब , परवाने हो जायेंगे

दुनिया मुझको पागल समझे पर मैं दिल की कहता हूँ
तुम जिन गाँवों से गुजरोगी, वो बरसाने  हो जायेंगे

कुछ दिन तो  तेरी गलियों में,  मैं भी  रहकर  देखूंगा
कम से कम कुछ दिन तो मेरे ख़्वाब सुहाने हो जायेंगे

और कहाँ पाओगे मुझसा, सारे सितम  आज़मा लो
मेरी  हालत  देख-देख  कर  लोग सयाने  हो जायेंगे

ये 'आनंद' जहाँ भी  तेरा  जिक्र करेगा, राम  कसम
कुछ का रंग बदल जायेगा कुछ मस्ताने हो जायेंगे ।

- आनंद
21-08-2012

रविवार, 2 सितंबर 2012

तुम कौन हो



तुम कौन हो 
कि 
तुम्हारा होना भर मुकम्मल करता है 
मेरे न होने को 
कि 
जैसे मेरा वजूद 
सिर्फ एक हवा है 
न जाने कितना कुछ जला होगा 
तब कहीं जाकर आत्मा से उठा है 
हवनकुंड का यह धुआँ 
जिससे आती रहती है 
रह-रह कर 
तुम्हारी सुगंध |

तुम कौन हो 
कि 
तुम्हारी आहट भर से 
लिखावट सुंदर हो जाती है 
शब्दों से 
अर्थ फूट फूट पड़ते हैं 
पर मेरी हालत तो देखो 
हर लिखा मिटा देता हूँ 
निगोड़े शब्दों का क्या भरोसा 
कहीं तुम्हें
मेरी बेचैनी का कुछ पता चल गया तो 
तुम न जाने क्या क्या 
सोंच बैठोगी |

तुम कौन हो 
कि 
आज भी डर लगता है 
तुम्हें खोने में 
जबकि तुम्हें पाना 
मेरे ख्वाबों को भी नसीब नहीं 
चाँद क्यों फ़क पड़ जाता है 
जर्द हो जाता है तमाम मंज़र 
एक तुम्हारे जाने के खयाल से 
सुनो !
तुम जो भी हो 
(धरती, आकाश, पानी, आग और हवा )
मुझे अब और मत रुलाना 

क्या पता 
मैं इस बार टूटूं
तो फिर जुड न पाऊं !!

- आनंद 
१८-१९ अगस्त २०१२