जब से तेरी गली से गुजरने लगा हूँ मैं !
कुछ काम, जो सच्चाइयों को नागवार थे ,
वो झूठ बोल बोल कर, करने लगा हूँ मैं !
गज़लों में आगया कोई सोंचों से निकल कर,
शेर-ओ-शुखन से प्यार सा करने लगा हूँ मैं !
वो एक नज़र हाय क्या वो एक नज़र थी ,
रह रह के अपनी हद से गुजरने लगा हूँ मैं!
मुझको कोई पहचान न बैठे , इसी डर से ,
अब गाँव को भी, शहर सा करने लगा हूँ मैं !
'आनंद' फंस गया है, फरिश्तों के फेर में ,
अब जाँच परख खुद की भी करने लगा हूँ मैं!
--आनंद द्विवेदी २२-०४-२०११