चित्र साभार : इंदिरा विदी |
मैं सोंचता हूँ
कैसे ...
कैसे ...
कैसे जा सकते हो तुम
मेरी दुनिया से बाहर
मेरी दुनिया से बाहर
मैं पूछता हूँ
क्या जा सकते हो
इस आसमाँ से बाहर
इस आसमाँ से बाहर
अलग कर सकते हो अपना सूरज
बना सकते हो
एक नया चाँद
एक नयी आकाशगंगा ?
जब तक तुम अपना सूरज और चाँद
अलग नहीं कर लेते
मैं रहूँगा यहीं
तुम्हारी दुनिया में !
जब तक तुम अपना सूरज और चाँद
अलग नहीं कर लेते
मैं रहूँगा यहीं
तुम्हारी दुनिया में !
कल सुबह जरा जल्दी उठना
और देखना
सूरज पूरब से ही निकलेगा
और मैं ये दावे के साथ कह सकता हूँ कि वो
लाल ही होगा
अगर
तुमने अंगडाई न ली तो ....
असल में तुम्हारी इस क्रिया के बाद
असल में तुम्हारी इस क्रिया के बाद
प्रकृति में क्या क्या बदलाव आते हैं ..
ये उसे खुद पता नही होता
ये उसे खुद पता नही होता
मैं कहता हूँ
कवियों और शायरों के बहकावे में मत आओ
देखो हकीकत यही है कि
देखो हकीकत यही है कि
मैं अब भी
तुम्हारी उसी दुनिया में हूँ
जहाँ दोनों की सुबहें साथ होती हैं
जहाँ दोनों की सुबहें साथ होती हैं
दिन भी
शामें भी
और रात भी !
कसमें ...
दीवानों को रोक सकती हैं
दीवानापन नही
दीवारें ...
जिस्मों को रोक सकती है
अहसास नहीं
समय ...
मौसम बदल सकता है
प्रेम नही !!
-आनंद
-आनंद
१४ मई २०१२