सोमवार, 17 जनवरी 2011

असमंजश !


रख़ तो दूं,
तुम्हारे स्निग्ध अधरों पर,
अपने संतप्त होंठ
किन्तु क्या होगा इससे
क्या मिल जाएगा मुझे
वह 'सच'
जिसे मैं पाना चाहता हूँ ?

जाम और सागर....
दोनों व्यर्थ हैं मेरे लिए
क्योंकि मझे प्यास नही भूख लगी है

देख तो लूँ ,
एक बड़ा हसीन सपना मैं,
प्यारा-प्यारा, मीठा-मीठा
किन्तु रोकते हैं मुझे कदम-कदम पर
दुनिया के सच
ऐसा करने से,
तब मैं देखता हूँ बेबसी अपनी
एक इंसान की....

भा तो जाएँ
मुझे भी प्यार के दो क्षण ...
किन्तु
मैं देखता हूँ उन्हे..
कड़वे सत्य के पास रहकर
जो अच्छा है मीठे झूठ से ...
हुंह
जानलेवा !

खा तो लूँ
कसमें दो चार कल की मैं
वादे, कुछ प्यार भरे
किन्तु,
क्या होगा कल?
टूट जाऊंगा
इन्ही कसमों
वादों के साथ मैं भी
इन्ही की तरह !!

 --आनन्द द्विवेदी १७/०१/२०११

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