शुक्रवार, 7 नवंबर 2014

खुदगर्ज़ मैं

इन दिनों बाहर बहुत कोलाहल है 
कुछ टूट रहा है, किसी बहुमंजिली इमारत जैसा
ईमारत कितनी ही पुरानी क्यों न हो
उसका टूटना, दुखी करता है
उसे... जो उसके ईंट दर ईंट बनने का गवाह हो

इन दिनों अन्दर बहुत सन्नाटा है
अकेले शरीर और अकेली आत्मा के बीच
घनघोर गृहयुद्ध के बाद शांति समझौता हो चुका है
दोनों ओर से हताहत इच्छाओं की गिनती और अंतिम क्रियाओं का दौर जारी है
विजित का निर्णय अभी जल्दबाज़ी होगी

एक तीसरी दुनिया भी है
जो कभी कहीं न होकर भी
हर जगह होती है
असल में सबसे ज्यादा नुकसान उसे ही हुआ है
जैसे बिना भरोसे के हो गए हों
सपने … और अपने !

इन सबके बीच एक मैं हूँ
एकदम खुदगर्ज़
हर हाल में खुद को बचा ले जाने की चालाकियों से भरा हुआ
एकदम उस ब्रह्म जैसा
जिसने यह सुनिश्चित किया हुआ है
कि हर बार प्रलय के बावजूद
बचा रहे उसका अस्तित्व …!

- आनंद


 

रविवार, 12 अक्तूबर 2014

जिन निगाहों में सिर्फ़...

जिन निगाहों में सिर्फ़ आंसू थे उन निगाहों को ख़्वाब भेजे हैं
बाद मुद्दत के किसी ने मुझको, सुर्ख ताज़े गुलाब भेजे हैं

इश्क़ के, वस्ल के, जुदाई के, जिंदगी के, वफ़ा के, रिश्तों के
जाने कितने सवाल थे मन में, उसने सबके जबाब  भेजे है

रंग भेजे हैं रूह की खातिर, घूप भेजी है ज़िस्म ढकने को
छीन वीरानियों को, बदले में, उम्र को फिर शबाब भेजे हैं

कुछ भरोसे निबाह के लायक, मुतमइन ज़िंदगी को भेजे हैं
मेरी तन्हाइयों के मद्देनज़र, अपने हमशक्ल ख़्वाब भेजे हैं

एक पैगाम मिला कासिद से, ग़म की राहों पे पाँव मत रखना
सिर्फ़ 'आनंद' में मिलेगा वो,  क्या गज़ब इंतिखाब भेजे  हैं  !

- आनंद







शनिवार, 4 अक्तूबर 2014

जीव और आत्मा

मुझे अच्छे से नहीं पता कि
सीने के अन्दर ठीक किस जगह होता है कलेजा
कहाँ होते हैं  प्राण
और कहाँ होती है आत्मा
पर मुझे ठीक से पता है
कैसे स्पर्श करती है तुम्हारी आत्मा
मुझे ठीक उसी जगह
जहाँ सबसे ज्यादा सक्रिय होता है जीवन
और जीवन का कारोबार
ध्वनियाँ हो सकती हैं मन का खेल
पर स्पर्श ... उसे तो पहचानता हूँ मैं आदिकाल से
जैसे शरीर पहचानता है ऊष्मा को
भूमि... जल को
भूख ...अन्न को
और प्राण ....तुमको

मत कहना कभी
मैंने तुम्हें देखा नहीं
छुआ नहीं
जाना नहीं
मैंने जिया है तुमको अहिर्निशि
अपने केंद्र में अविछिन्न
जैसे जीव और आत्मा
जिसमें मैं जीव हूँ
और तुम इसकी आत्मा
जीवन इसी संयोग का नाम है ...!

- आनंद 

शुक्रवार, 3 अक्तूबर 2014

आज का सपना

न मैं तुम्हारे लायक हूँ न प्रेम के
कृपालु प्रभु की कृपा ....  कि 
मुझ जैसे मूढ़ को 
जगत की  इस सबसे निराली खुशबू से 
सींच दिया , कर दिया सराबोर 
दुआओं लिए उठी मेरी हथेलियों में 
डाल दिया दुनिया का सबसे अनोखा फूल 
अब न लायक होना कोई मायने रखता है 
ना ही नालायक होना 
योग्य अयोग्य की सीमा के बाद 
मैंने पाया है तुमको ....  बार बार खोकर   
हर बार 
और अधिक तपकर 
और अधिक भरोसे के साथ … 

एक ओर मन है अनंत .... निःसीम 
दूजी ओर शरीर है 
अपनी व्याधियों उपाधियों में उलझा हुआ 
छकाया अपनी सामर्थ्य भर दोनों ने 
बचाया हर बार.… 
कभी तुमने ....  कभी तुम्हारे होने के अहसास ने 

एक दिन शरीर जल गया 
मन मर गया 
बची सिर्फ रूह 
जो घुल गयी तुम्हारी रूह में 
तुम्हारी रूह ने भी तड़पकर मिल जाने दिया 
खुद को 
मेरी रूह में

इस तरह हम मिले  
और पूरा हुआ
हमारा एक जन्म ... !

- आनंद 

सोमवार, 22 सितंबर 2014

बीरबल की खिचड़ी

बदले तो हैं वो
इन दिनों रखते हैं ख़ास ख़याल
जैसे कोई अनुभवी चिकत्सक पकड़ता है
हौले से मरीज़ की नब्ज़ 
पल भर में भांप लेता है उसका स्वास्थ्य 
आश्वस्त हो पूछता है हालचाल 
देता है जरुरी हिदायतें 
और चला जाता है उधर ही जिधर से आया था 
मरीज़ फिर करने लगता है इंतज़ार 
एक और कल का 

प्रेम ...
इंतज़ार की आंच पर पक रही  
अनेक काल्पनिक स्वादों वाली   
बीरबल की खिचड़ी है !

- आनंद 




बुधवार, 17 सितंबर 2014

साहस


अब जबकि एक जीवित मशीन में भरी है
सारी की सारी दुनिया
कुछ भी तो दूर नहीं है पहुँच से
विश्वव्यापी होने के सपनों को जेब में रखे
मैं अक्सर उसमें देख लेता हूँ आपको
तस्वीरों में अक्सर ढूँढता रहता हूँ
न जाने क्या क्या
दुनिया भर को प्रेम लुटाती आपकी बातें
मुस्कराहटें
सब सच लगती हैं मुझे
सच कहूँ तो मुझे आपकी मशीन वाली दुनिया
ज्यादा अपनी सी लगती है
बनिस्बत मेरी हक़ीक़त वाली दुनिया से
जिसमें
जीवन है
पत्थर की प्रतिमा पर चढ़ाये गए फूल सा
निष्प्राण … कुम्हलाया
मैं इसे "भगवान की प्रतिमा पर चढ़ाये गए फूल सा"
भी कह सकता था, …।
ये संकेत है आपके लिए
कि मैं अब उतना उदार नहीं रहा
या हो गया हूँ इतना साहसी कि कह सकूँ
पत्थर को पत्थर
दुःख को दुःख
खिलवाड़ को खिलवाड़
और प्रेम को प्रेम  !

- आनंद

शुक्रवार, 12 सितंबर 2014

स्लॉग ओवर्स

आजकल बहुत व्यस्त हूँ ,
अपनी सारी तैयारियाँ खुद कर जाना
कुछ तो आश्वस्त करता ही है
वैसे भी
मैं भविष्य के अंदेशों में नहीं जीना चाहता 
और मुझे यकीन भी नहीं है
रस्म निभाने वालों पर
असल में मुझे यकीन है ही नहीं किसी पर,


मान लो
चिता पर लिटाने के बाद भी
कोई लकड़ी
कहीं से चुभती रहे तो
क्या कर लूँगा मैं किसी का
उस वक्त फिर ...


बात केवल इतनी सी है
कि मौत के बाद फिर
मैं नहीं महसूस करना चाहता
जिंदगी के कष्ट !

- आनंद

रविवार, 7 सितंबर 2014

अंग्रेजी का एक बड़ा सकारात्मक सा लगने वाला एक शब्द है  कमिटमेंट , मुझे हमेशा विजय/सफलता की कामना और कमिटमेंट अति भौतिकवादी और अहम् को पोषित करने वाले लगते हैं ... कभी हार के देखिये ...मगर अहम् से भरी हुई हार नहीं ...वो तो जैसे ही अहम् को चोट लगेगी आपको तोड़ देगी, हारिये ऐसे जैसे जिंदगी का खेल खेलते खेलते कोई बच्चा हार जाए ..... ऐसे जैसे जीवन की कबड्डी में अपने पाले में लौटने से पहले चुनौतियों के पाले में ही सांस टूट जाए .... हारिये और उसे स्वीकार कीजिये .... उसे एन्जॉय कीजिये ..... कुछ लोग जिंदगी की हर बाजियाँ हार के भी मुस्कराते हुए मिलते हैं !
हार पर छाती पीटना बंद कीजिये और फर्क देखिये
हार को वैसे ही लीजिये जैसे जीत को लेने की योजना थी और फर्क देखिये
एक सच में कठिन काम बोलूं ...
किसी के प्रेम में खुद को और अपने अहम् को हार जाइए ......!

__________________________________
तुम हार के दिल अपना ......लारे ला रे लला ला ला 

शनिवार, 30 अगस्त 2014

मैं मुस्कराऊँगा

एक दिन मैं मुस्कराऊँगा
(मंद और स्मित मुस्कान)
तुम्हारी  उपलब्धियों पर
और सम भाव से
अपनी नाकामियों पर भी
मैं मुस्कराऊँगा
अपने जीवन पर
ईश्वर की योजनाओं पर
तुम्हारी उपेक्षाओं पर
अपने समर्पण पर
बीत गए समय पर
भविष्य के सपनों पर
अपने सभी अपनों पर ,

मैं निश्चित मुस्कराऊँगा
अपने पागलपन पर
दुनिया की बदक़िस्मती पर
अपने प्रेम पर
दोस्तों की दोस्ती पर
अपनी सभी चालाकियों पर
पहाड़ से दर्द पर
राई से सुकून पर
बेवज़ह जूनून पर
पिता की फटकार पर
माँ के दुलार पर ,

मैं निश्चित ही मुस्कराऊँगा
मंज़िलों की झूठ पर
रास्तों की लूट पर
ताज़े खिले गुलाब पर
अपने सबसे अच्छे ख़्वाब पर
फालतू शिष्टाचार पर
बहनों के प्यार पर
अपने हर कर्म पर
दुनिया के हर धर्म पर
अपनी हर बात पर
जो कभी नहीं हुई उस मुलाकात पर

इनमें से एक भी  नहीं है
मेरे मुस्कराने की वज़ह
मैं तो बस मुस्कराऊँगा
क्योंकि मुस्कराने के लिए नहीं चाहिए
ग़मों की तरह कोई वज़ह !

- आनंद

बुधवार, 27 अगस्त 2014

मौन विदाई का चुप्पा गीत

ये विदाई की तैयारियों वाली एक औसत शाम थी, जिसमें बातें कम थीं, ख़ामोशी ज्यादा; दर्द उससे  भी ज्यादा
दो सच्चे दिल, मगर अलहदा रास्तों के मुसाफ़िर ....
एक ने नज़रें उठाकर कहा
अपना ख़याल रखना
दूसरे ने नज़रें झुकाकर पूछा … "मगर किसके लिए"
अपने लिए …और किसके लिए (पहले ने लगभग डाँटने वाले अंदाज में कहा )
जैसे तुम रखते हो ?
(दूसरे ने पूछना चाहा था मगर पूछ नहीं सका )
हालाँकि वो जिंदगी भर बक बक करता रहा मगर ये बात नहीं पूछ पाया कि
अपना ख्याल रखना इतना जरूरी क्यों होता है
क्यों लोग अपना ख्याल रखने के लिए दूसरों का ख्याल ही नहीं रखते
मगर वह ....
बस इतना ही कह सका
कभी मन करे तो बात कर लेना
मैं अब बहुत परेशान नहीं करूँगा ...
_________________________


- आनंद






शुक्रवार, 22 अगस्त 2014

प्रेम, पदार्थ और पत्थर

हर चीज़ की एक सीमा होती है
हर चीज़ नहीं....  सीमा केवल पदार्थ की होती है

और दर्द  ?

अगर पदार्थ के लिए है तो सीमा है
प्रिय के लिए है तो निस्सीम,

शरीर और उसके कर्म
धरती और दिखाई देने वाला जगत
सब पदार्थ हैं इसीलिए इनकी है एक सीमा,

आकाश
मन
और प्रेम... ये हैं अपदार्थ और असीम
......
अच्छा एक बात बताओ ;
मुझमे जो पदार्थ है वो ख़तम हो जायेगा जब
तो क्या मैं निस्सीम हो जाउँगा ?

तुम पदार्थ के चिंतन से मुक्त होकर अभी निस्सीम हो सकते हो
.......
हम्म्म्म
अच्छा बस एक आख़िरी बात ...
वह कौन सी क्रिया है जिससे इन्सान पत्थर में बदल जाता है

प्रेम
.....
क्याआआआआ ??

हाँ
जो शक्ति पत्थर को इंसान बनाती है
उसी का असंतुलित व्यवहार इन्सान को पत्थर भी बना सकता है
बस एक फर्क है ...

क्या ?

ऐसे लोग दुबारा इंसान नहीं बन पाते फिर ,
भीतर ही भीतर तरसते हैं प्रेम को
मगर अपनाने से डरते हैं,
ठोकर खाए लोग
ठोकरें ही देते हैं बदले में .... !

- आनंद




बुधवार, 20 अगस्त 2014

भरोसा

अब … जबकि
दिन ब दिन
तुम्हें 'तुम' कहना मुस्किल होता जा रहा है
मैं समेट रहा हूँ
धीरे धीरे
अपने सारे शोक गीत
और उनके साथ लिपटी अपनी परछाइयाँ
रखूँगा सहेज कर
इन सबको
एक ही कपड़े में बाँधकर
अपने इस भरोसे के साथ
कि एक न एक दिन प्रेम
ज्यादा जरूरी होगा
सुविधा और सुक़ून से  !

- आनंद


मंगलवार, 19 अगस्त 2014

तुम्हारा वज़्न

ग़ज़ल के मिसरे में
एक वज़्न ज्यादा तो हो सकता है
पर हरगिज़ नहीं चल सकता एक वज़्न कम

इसीलिए जब तुम नहीं होते
नहीं होती हैं मुझसे ग़ज़लें
नहीं बनते हैं मिसरे

तब मैं रहता हूँ
केवल
अतुकांत  
तुम...
मेरा तुक भी हो
अंत भी !

- आनंद 

बुधवार, 13 अगस्त 2014

शिकायतें

जब देखो
मेरे आसपास  बिखरी पड़ी रहती हैं
मेरी ही अनगिनत शिकायतें
ज्यादातर तुमसे
कुछ ईश्वर से
और कुछ अपने आप से 

असल में वो मेरी

उम्मीदें हैं 
जो शिकायतों का भेष बनाकर
उन उनसे मिलती हैं
जिनसे वो हैं

- आनंद 

शनिवार, 9 अगस्त 2014

शब्दों में धड़कन ले आओ

शब्दों में धड़कन ले आओ
बातों में जीवन ले आओ

धरती पर आकाश न लाओ
जन तक गण का मन ले आओ

बच्चे फिर गुड़ियों से खेलें
जाकर उनसे 'गन' ले आओ

थोड़ा कम विकास लाओ पर
बच्चों में बचपन ले आओ

जंग असलहों में लग जाए
ग़ज़लों में वो फ़न ले आओ

शहर बसाने वालों उसमें
अम्मा का आँगन ले आओ

मत ढूंढो आनंद कहीं पर
केवल सच्चा मन ले आओ

- आनंद

शुक्रवार, 8 अगस्त 2014

उसकी बातें

गाढ़े वक़्त के लिए बचाए गए धन की तरह
वह खर्च करती है
एक एक शब्द ;
न कम न ज्यादा,

और मुझे ....
उतने से ही चलानी होती है
अपने प्रेम की गृहस्थी,

महीने के उन दिनों में भी
जब वह नहीं खर्चती एक भी शब्द ...!

- आनंद

सोमवार, 4 अगस्त 2014

तेरा होना

दुनिया के सारे अभावों
सारी कमियों पर भारी पड़ता है
एक तेरा होना
तेरा होना हूबहू तो नहीं पर
कुछ कुछ वैसा ही है
जैसे एक सैनिक ने पहन रखा हो कवच
और ले रखी हो ढाल जीवन की सबसे कठिन लड़ाई में,
जैसे भाई की बीमारी की ख़बर सुन
झट से आ गया हो
परदेश गया भाई,
जैसे निराशा भरे समय में चुपचाप रख दे
कोई दोस्त कंधे पर अपना हाथ,
जैसे पिता के होते बच्चों के जीवन में बनी रहे
एक अनजान लापरवाही,

तेरा होना कुछ कुछ वैसा ही है
जैसे सरहद पर किसी फौजी को मिल जाए
घर से आई चिट्ठी,
जैसे जेठ की किसी बेहद गर्म शाम में
हल्के हल्के झोकों से चल पड़े पुरवाई,
जैसे हवनकुंड हो जाये यह सारी देह
दूर तक हवा की दिशा में जाए
गूगर धूप और चंदन के जलने की महक,
जैसे जीवन की राहों पर मिल जाए
अपना मनचाहा साथ,
जैसे तारों भरी आधी रात में
नाच उठे कोई फ़कीर,

असल में तेरा होना
कुछ कुछ वैसा ही है
जैसे मुकम्मल हो जायें
जीवन के लाखों आधे अधूरे ख्वाब !

- आनंद






रविवार, 27 जुलाई 2014

अपने अपने भय

मत बढ़ाना एक भी कदम
मेरी तरफ़
कि मेरा पहले से ही भयभीत भय
सहम जाता है जरा और
वो जानता है कि
पास आने के लिए उठा हर कदम
अंततः दूर ही ले जाता है
जैसे हर सुख की परिणिति
अवश्यम्भावी है दुःख !
जैसे हर शब्द युग्म में आवश्यक रूप से होता है
उसका विलोम
जैसे जीत में हार
और जन्म में मृत्यु

मेरा भय, भयभीत नहीं हुआ जीवन से
न ही उसके संघर्षों, जटिलताओं से
वो न भूख से डरा न प्यास से
न श्रम से न थकान से
'प्रत्येक क्रिया की आवश्यक प्रतिक्रिया' को
ठीक से समझता
मेरा भय
भयभीत है तो बस किसी के पास आने से
कोई रिश्ता बनाने से
कुछ भी और पाने से !

- आनंद




शनिवार, 26 जुलाई 2014

न दुःख न सुख ...

पलटता है जब भी वो
मेरी तरफ
उस राह पर पहले से ही बिछी हुई मेरी आँखें
झट से बरस पड़ती हैं
दुःख से नहीं
ख़ुशी से भी नहीं
केवल इसलिए कि राह पर धूल न उड़े
मुलायम हो जाए वो कच्ची पगडण्डी जो राजमार्गों से बहुत दूर
मेरी दुनिया में उतरती है
जिस पर अब कोई
भूल से भी पाँव नहीं रखता !

- आनंद

रविवार, 6 जुलाई 2014

कुछ मुझमे भी हुनर नहीं था ...

कुछ मुझमें भी हुनर नहीं था कुछ उसपर इख्तयार नहीं
कुछ तो सब्र नहीं था मुझको कुछ उसको भी प्यार नहीं 

अंदर दालानों में आकर रुके मुसाफ़िर क्या समझें 
ये दिल की बारादरियां हैं पत्थर की दीवार नहीं 

कान तरसते हैं जीवन भर जाने किन आवाज़ों को  
किस को देखे बिन ये आँखें मुंदने  को तैयार नहीं 

ज़ुल्म रोक लेता है जब तक, गुस्सा जब तक आता है 
तब तक समझो हम इन्सां हैं अभी हुए बाज़ार नहीं 

खुद से बंधी हुई है हर शै,  सब के सर पर गठरी है 
अंदर खाने लाचारी है, बाहर कुछ स्वीकार नहीं 

जो कुछ मिला शुक्र है मौला, अब औरों पर रहमत कर 
कुछ हम भी मसरूफ़ इधर हैं कुछ दिल भी तैयार नहीं 

खुद को हर पल खोता जीवन, बढ़ता मंज़िल पाने को  
मिल जाना 'आनंद' डगर में, मुश्किल है दुश्वार नहीं 

- आनंद 

शुक्रवार, 27 जून 2014

पीर हमारी...

पीर हमारी भीगी माचिस तीली सी
जलती देह हमारी लकड़ी गीली सी

रूह भटक कर पैठी है जिस पिंज़र में
उसकी सब  दीवारें सीली-सीली सी

मेहमानों के आने तक ही हैं, जो हैं
फ्रिज़ में थोड़ी ख़ुशियाँ पीली-पीली सी

दूर हुए उनसे भी तो जी भर रोये
वो राहें जो साथ रहीं पथरीली सी

बेवा जिज्जी सी मयके में रहती हैं
यादें कुछ कुछ हँसमुख कुछ दर्दीली सी

मत 'आनंद' गँवा रे मन सब धोखे हैं 
दुनिया हो ज़हरीली या सपनीली सी

- आनंद 

मंगलवार, 24 जून 2014

अच्छे लगते हैं ...

राह दिखाने वाले अच्छे लगते हैं
मुझे ज़माने वाले अच्छे लगते हैं

पहले खुशियाँ देने वाले भाते थे
इधर रुलाने वाले अच्छे लगते हैं

कौन रुकेगा मरघट जैसी बस्ती में
आने जाने वाले अच्छे  लगते हैं

तारीफों का हासिल जब से देखा है
मुँह बिचकाने वाले अच्छे लगते हैं

चाहे जितनी मक्कारी की जै जै हो
हक़ की खाने वाले अच्छे लगते है

प्रेम मिटाने वालों की इस दुनिया में
प्रेम निभाने वाले अच्छे लगते हैं

सूली ऊपर सेज बिछायी जालिम ने
चढ़-चढ़ जाने वाले अच्छे लगते हैं

जाने ऐसा क्यों है मुझको बचपन से
धोखे खाने वाले अच्छे लगते हैं

उद्धव ये आनंद निराला है, इसमें
आग लगाने वाले अच्छे लगते हैं

- आनंद 

शनिवार, 21 जून 2014

इतना तो जाना है हमने ...

इतना तो जाना है हमने सबकी कथा-कहानी से
सबके जीवन में आते हैं कुछ पल राजा-रानी से

जुदा नहीं कर पाती जिनको दुनिया भर की दुश्वारी
अहम जुदा कर देता उनको चुटकी में आसानी से

धरती-अम्बर जैसी दूरी हो पर प्रेम न कम होता
कम होता है प्रेम हमेशा बंधन से मनमानी से

उम्मीदों से सींचा पौधा नाउम्मीदी सह न सका
ऐसे रिश्ते बन जाते हैं अक्सर पावक-पानी से

या तो अपने में ही डूबो या फिर उसके हो जाओ
थोड़ा थोड़ा सबमें रहना, होता है बेइमानी  से

मीठा-मीठा गप्प यहाँ है कड़वा-कड़वा थू थू है
परमारथ कह स्वारथ बेचें, सोच-कर्म से वानी से

रहने दो 'आनंद' अकेला, चलने दो तनहा इसको
इसकी आँखें गीली हैं तो,  खुद इसकी नादानी से

- आनंद



रविवार, 15 जून 2014

रिश्ता

उससे अपने अंदर जैसा रिश्ता है
कोई बूँद-समंदर जैसा रिश्ता है

खिल उठता है जीवन हर दुश्वारी में
शायद वर्षा-बंजर जैसा रिश्ता है

वो ज़ख़्मों का बायस भी है, मरहम भी
कैसा मस्त कलंदर जैसा रिश्ता है

हम भी दुनिया के पापों में शामिल हैं
गाँधी जी के बंदर  जैसा रिश्ता है

सपनों का 'आनंद', जगत की सच्चाई
एकदम छाती-खंज़र  जैसा रिश्ता है

- आनंद 

मंगलवार, 27 मई 2014

धड़कन

मन करता है नाचने का
पाकर तुम्हारी आहट,
मुरझा जाता है मन
जरा ही देर में
तुम्हारे ओझल होते ही,
तुम कहते हो
मैं एक सा क्यों नहीं रहता हमेशा

मैं कहता हूँ
तुम पास क्यों नहीं रहते हमेशा,
हमेशा ही घटती-बढ़ती धडकनों के बीच
कोई कैसे रहे 
एक सा !


- आनंद

शुक्रवार, 9 मई 2014

देश गीत

है जहाँ सुरभित पवन, वह  देश मेरा
है जहाँ आज़ाद मन, वह  देश मेरा

जो जगत को एक ही परिवार समझे
जो अतिथि समझे, अतिथि सत्कार समझे
हैं जहाँ संबंध भावों से भरे सब
साथ रहते हैं अभावों में खड़े सब
संस्कृति की नदी निर्झर बह रही है
ज्ञान पाओ ज्ञान बांटो कह रही है
आस्था से भरे हैं कण कण हमारे
देश पर कुर्बान हैं जीवन हमारे

हैं जहाँ सब सरल जन वह देश मेरा
है जहाँ सुरभित पवन वह देश मेरा

यहाँ हर सप्ताह ही त्यौहार आते
सामुदायिक भावना जो साथ लाते
फूँकते हम आज भी दस शीश वाले
लाख कोई व्यर्थ का अभिमान पाले
हैं अज़ानें सुबह की हम को जगाती
मंदिरों की घंटियाँ भी गीत गाती
'एक है रब' गा रही है गुरु की वाणी
एक हैं हम, एकता अपनी निशानी

भिन्न होकर एक मन, वह देश मेरा
है जहाँ आज़ाद मन, वह  देश मेरा
है जहाँ सुरभित पवन, वह देश मेरा

- आनंद


मंगलवार, 29 अप्रैल 2014

सच्ची प्रीति निभाए कौन...

सच्ची प्रीति निभाए कौन
खुद को आप मिटाए कौन

दिल का दर्द बताये कौन
अपने ज़ख्म दिखाए कौन

उनके ही इतने ग़म हैं
अपनी बात चलाए कौन

जाने वाले चले गए
पर मन को समझाए कौन

ऊँचे भाव झूठ के हैं
सच का घाटा खाए कौन

ये बहरों की बस्ती है
निर्गुन किसे सुनाये कौन

अंदर बाहर तू ही तू
ऐसे में  घर आए कौन

रूह बदन की क़ैदी है
देश पिया के जाए कौन

मैं भी कुंदन हो जाऊँ
ऐसी आग लगाए कौन

और न कुछ भी चाह रहे
वो 'आनंद' जगाये कौन

 - आनंद

मंगलवार, 15 अप्रैल 2014

पुस्तक चर्चा : 'मैं ना कहता था'/ अमर नदीम



इंतज़ार मत कर सूरज का
खुद ही जलने की कोशिश कर

गिरने पर शर्मिंदा मत हो
सिर्फ सँभलने की कोशिश कर

ये हैं हमारे समय के शायर 'अमर नदीम' साहब और मैं रूबरू हूँ इस वक़्त उनके हाल ही में 'दख़ल प्रकाशन' से  प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह "मैं ना कहता था" से ।
        संग्रह की भूमिका लिखते हुए 'आशुतोष कुमार' जी कहते हैं और क्या खूब कहते हैं कि ; "अमर नदीम की ये गज़लें हमारे अपने समय और राजनीति का ऐसा शफ्फाक़ आईना हैं जिसमें हम आज की उदासी और पस्तहिम्मती की तस्वीर भी देख सकते हैं तो कल की उम्मीदों के कोलाज़ भी।  यह उर्दू के रूमान और हिंदी के यथार्थवाद से मिलकर बना दोआब है जिसमें इंक़लाब और मनुष्य की बेहतरी का ख्वाब झिलमिलाता है।"
      जब वो जिंदगी को कह रहे होते हैं तो उसका फ़लसफ़ा कुछ इस तरह से कहते हैं ;
मैं बतलाऊँ कैसा बन जा
बिलकुल अपने जैसा बन जा

सर्दी में सूरज बन कर जल
जेठ तपे तो साया बन जा

समझदार बनकर क्या होगा
चल 'नदीम' फिर बच्चा बन जा
 या फिर
जो कुछ भी करना है कर ले
इसी जनम में जी ले  मर ले

वेद-कुरानों के बदले में
गिनती के 'ढाई आखर' ले
जब वो रूढ़ियों पर चोट करते हैं तो एकदम निष्पक्ष खड़े साफ़ दीखते हैं  वो जितनी साफ़गोई से धार्मिक आडम्बर पर चोट करते हैं मसलन ;

ये शंकर के मुरीदों की क़तारें काँवरों वाली
कभी रोटी की खातिर भी तो सड़कों पर उतर आयें

उतनी ही शिद्दत से आज के वामपंथ से लाभ लेने वालों पर भी चोट करते हैं ;
शर्ट पहन चे गुएवरा की
उसका सपना राम हवाले

जब भी सुख से मन उकताए
गीत सर्वहारा के गाले

कमरे में ए.सी. के ऊपर
लेनिन की तस्वीर सजा ले

पतिवर्तन होगा तब होगा
इस सिस्टम में जगह बना ले

इसी तरह जब वो व्यवस्था पर चोट करते हैं तो केवल राजनैतक व्यवस्था पर ही चोट नहीं करते हैं वरन उसी समय वो हमारी सोच पर भी चोट कर रहे होते हैं ;
कभी हिंदुत्व पर संकट कभी इस्लाम खतरे में
ये लगता है कि जैसे हैं सभी अक़वाम ख़तरे में

उधर फ़तवा कि खेलें सानिया सलवार में टेनिस
ज़मीनों के लिए हैं, इस तरफ़ श्रीराम ख़तरे  में

या फिर
हों ऋचायें वेद  की या आयतें क़ुरआन की
खो गयी इन जंगलों में अस्मिता इंसान की

कैसी तन्हाई मेरे घर महफ़िलें सजती हैं रोज़
सूर, तुलसी, मीर, ग़ालिब-जायसी रसखान की

कितने होटल, मॉल, मल्टीप्लैक्स उग आये यहाँ
कल तलक हँसती थी इन खेतों में फ़सलें धान की

या फिर
बेटी की शादी का ऐसे कर्ज़ चुकाया छोटू ने
सोनू पिंकी दोनों का इस्कूल छुड़ाया छोटू ने

पिंकी अब दो चार घरों में बर्तन मलने जाती है
सोनू को भी किसी फैक्ट्री में लगवाया छोटू ने

घरवाली थी अस्पताल  में घर पर थे भूखे बच्चे
बस पूछो मत कैसे कैसे काम चलाया छोटू ने

जब वो अवाम से मुख़ातिब होते हैं तो उसी समय वो खुद से भी मुखातिब होते हैं
कब तलक चाँद सितारों को निहारा जाये
कुछ समय गलियों मुहल्लों में गुज़ारा जाये

ना तो अवतार न आएगा मसीहा कोई
चलिए खुद अपने मुकद्दर को सँवारा जाये

इन खुदाओं की खुदाई का ज़माना गुज़रा
खींचकर अब इन्हें सड़कों पे उतारा जाये

और नदीम साहब जब प्रेम को कहते हैं तो लगता है तत्व को कह रहे हैं उनके अशआर नहीं प्रेम का पूरा फलसफ़ा हैं ;
जीवन भर पछताये कौन
ऐसी लगन लगाए कौन

उस नगरी में सारे सुख
उस नगरी में जाए कौन

मन ही मन का बैरी है
और भला भरमाये कौन

 एक झलक  ये भी कि …
सारे रिश्तों की हक़ीक़त न परखने लगना
कुछ भरम जीने की खातिर भी बचाये रखना

उसके आने का भरोसा तो नहीं फिर भी 'नदीम'
एक दिया आस का देहरी पे जलाये रखना

 नदीम साहब और उनकी चुनी हुई 52 गजलों के इस छोटे से दीवान से होकर गुजरना अपने आप में एक पूरे ज़माने से होकर गुजरना है।
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गुरुवार, 20 मार्च 2014

तौबा तौबा ...


हुई बहुत ये दुनियादारी, तौबा तौबा
सपने उनके आँख हमारी तौबा तौबा

राजनीति बन गयी गिरोहों का अड्डा
लूट रहा है जिसकी बारी, तौबा तौबा

देश- देश चिल्लाने वालों के दिल  में
मज़हब हुआ वतन से भारी तौबा तौबा

मंदिर मस्ज़िद प्रेम नहीं फैलाते अब
नफरत के हैं कारोबारी तौबा तौबा

आधा पेट भरा बच्चों का जैसे तैसे
भूखी ही सोयी महतारी तौबा तौबा

बच्चों की आँखों के सपने पूछेँगे
मेरी क्या थी जिम्मेदारी तौबा तौबा

अपना ही 'आनंद' तलाशा अब तक तो
अबतक हमने घास उखारी तौबा तौबा

-आनंद







शनिवार, 15 मार्च 2014

होरी में विरह ; कुछ दोहे



मस्तानों की टोलियाँ नाचें ढोल बजाय
फागुन में सब छूट है , चाहे जो बौराय

भरि पिचकारी आगया करने तंग बसंत
ज्यों सपनों में छेड़ते हैं परदेशी कंत

अँगिया गीली हो गयी सिहरै सकल शरीर
दोखी फागुन का जनै बिरही मन कै पीर

मस्ती सारे बदन में, अंखियन चढ़ा खुमार
बिन साजन बैरी हुआ, होरी का  त्यौहार

मन का पंछी है हठी ढूँढै  लाख  उपाय
प्रियतम की तस्वीर में रहा अबीर लगाय

तान न छेड़ो फाग की डारो नहीं गुलाल
ये ऋतु है उनके बिना जस विधवा का गाल

- आनंद
होली २०१४ पर








बुधवार, 5 मार्च 2014

कौन ऐसी आँख है जो नम नहीं

कौन ऐसी आँख है जो नम नहीं  हैं दोस्तों
कौन है ऐसा जिसे कुछ ग़म नहीं है दोस्तों

आइये मिलकर उजालों के लिए आगे बढ़ें
इन अंधेरों में जरा भी  दम नहीं है दोस्तों

डूबिये तो, एक लम्हे में सदी मिल जायेगी
चार दिन की जिंदगी भी कम नहीं है दोस्तों

मुस्कराकर पूछते हैं वो उदासी का सबब,
ये सरासर चोट है मरहम नहीं है दोस्तों

क्यों किसी के साथ में आनंद को खोजें भला
छोड़िये भी , हम अकेले कम नहीं हैं दोस्तों

- आनंद






बुधवार, 26 फ़रवरी 2014

उसका खो जाना

वो खो गया
ठीक उसी समय
जब वो मिल रहा था
वो खो गया
ठीक वैसे ही
जैसे खो जाता है
ग़ज़ल का कोई मिसरा
समय से कागज़ पर न उतरा तो
कागज़ पर कहाँ उतर पाती हैं
जीवन की हर ख्वाहिशें,

मैं भूल जाऊंगा उसका खो जाना
शायद उसे भी, 
किन्तु याद रहेगा युगों तक
उसका मुझमें उतरना
जैसे गिरती है बिजली
किसी दुधारू पेड़ पर !

- आनंद

रविवार, 2 फ़रवरी 2014

मुगालते

कुछ मजबूरियां
करतब समझी जाती हैं,
कुछ करतब
मजबूरी  में ही संभव हैं

कुछ दर्द ...
कविता को जन्म देते हैं
कुछ
कविता से दूर करते हैं,

मौत के कुएँ में गाड़ी चलाना
मजबूरी है, दर्द है
कविता है
या करतब ?

कुछ सपने चरितार्थ करते हैं अपना नाम
और रहते हैं ताउम्र
ठेंगहा यार की तरह जबरिया साथ

कुछ साथ ...
एकदम सपने की तरह
लाख कट्टी साधे पड़े रहो
नहीं शुरू होते दुबारा
एक बार टूट जाने पर,

तुम सपना हो,
साथ हो... या फिर दर्द ?

कुछ आँसू
आनंद बनकर बहते हैं आँख से
तो कुछ आनंद....
आँसुओं की राह मिलते हैं खाक़ में

मैं आनंद हूँ
आँसू हूँ
या खाक़ ?



  

शुक्रवार, 31 जनवरी 2014

जिंदगी का प्रश्नपत्र ...



जिंदगी के प्रश्नपत्र में,
अनिवार्य प्रश्नों की जगह
कभी नहीं रहा प्रेम,
यद्यपि वह होता
यदि मैं निर्धारित करता
जीवन और परीक्षा
अथवा दो में से कोई एक,

भूख और जरूरतें...
सदैव बनी रहीं
दस अंकों का प्रथम अनिवार्य प्रश्न ,
समाज और परिवार
कब्ज़ा जमाये रहे
दूसरे पायदान पर,

मैं और मेरा प्रेम
खिसकते रहे
वैकल्पिक प्रश्नों की सारणी में
और जुटाते रहे
हमेशा, जैसे तैसे
उत्तीर्ण होने भर के अंक !

- आनंद



बुधवार, 29 जनवरी 2014

मेरे जैसों को भले ग़म के तराने दे दे

मेरे जैसों को भले ग़म के तराने दे दे
दर्दमंदों को मगर ख़्वाब सुहाने दे दे

तू खुदा है भला तेरे लिये क्या मुश्किल है
जिन्दगी दी है तो जीने के बहाने दे दे

कुछ नहीं होने से बेहतर है एक ज़ख्म रहे
रतजगे दे दे, तसव्वुर के ज़माने दे दे

कितनी उम्मीद से इस अंज़ुमन में आये हैं
राहगीरों को जरा देर ठिकाने दे दे

हसरतें कितनी महज़ हसरतें ही रहती हैं
इस हकीकत की जगह  चंद  फ़साने दे दे

हौसलों आओ जरा  इम्तेहान हो जाये
मुझको हर हाल में जीकर के दिखाने दे दे

माँगना जाँचना तौहीन है,  'आनंद' नहीं
तू  नियामत न लुटा,   दर्द पुराने दे दे  !

- आनंद






मंगलवार, 28 जनवरी 2014

प्रेम

जो प्रेम का नाम लेते हैं,
दुहाई देते हैं,
प्रेम की महिमा का बखान करते हैं
पा लेना चाहते हैं
कुछ न कुछ
किसी न किसी बहाने
मैं वही हतभाग्य हूँ

ईश्वर और प्रेम
एक हैं
एक ही है
इन तक पहुँचने का तरीका
अकारण ... बिना हेतु
'सम्पूर्ण समर्पण' !

- आनंद 

बुधवार, 15 जनवरी 2014

नहीं कह सकता कुछ भी

नहीं लिख सकता
अब अपनी उदासी
ना ही कह सकता हूँ  किसी से
खुलकर यह बात
कि अब न तुम हो
न वो सारी परेशानियाँ
जिनसे भरी रहती थी हमेशा
शर्ट की उपरी जेब
जरा सा झुकते ही टपक जाया करती थी
कोई न कोई शिकायत

लाख मन हो पर नहीं गा सकता
लड़कपन का कोई गीत
हो नहीं सकता वहाँ कभी भी
जहाँ जहाँ होना चाहता हूँ
पूछ नहीं सकता किसी से भी
दिल का राज़
दिखा नहीं सकता किसी को
अपना खोखलापन

आजकल इतना अकेला हूँ कि
नहीं महसूस कर सकता किसी को भी अपने आसपास
और इतना घिरा हूँ अपने आसपास से कि
तलाश रहा हूँ थोड़ा सा एकान्त
ताकि लिख सकूँ फिर से
एक प्रेम कविता
जिसे लिखते हुए रो पडूँ मैं
और पढ़ते हुए
मुस्करा पड़ो तुम !

- आनंद