पीर हमारी भीगी माचिस तीली सी
जलती देह हमारी लकड़ी गीली सी
रूह भटक कर पैठी है जिस पिंज़र में
उसकी सब दीवारें सीली-सीली सी
मेहमानों के आने तक ही हैं, जो हैं
फ्रिज़ में थोड़ी ख़ुशियाँ पीली-पीली सी
दूर हुए उनसे भी तो जी भर रोये
वो राहें जो साथ रहीं पथरीली सी
बेवा जिज्जी सी मयके में रहती हैं
यादें कुछ कुछ हँसमुख कुछ दर्दीली सी
मत 'आनंद' गँवा रे मन सब धोखे हैं
दुनिया हो ज़हरीली या सपनीली सी
- आनंद
जलती देह हमारी लकड़ी गीली सी
रूह भटक कर पैठी है जिस पिंज़र में
उसकी सब दीवारें सीली-सीली सी
मेहमानों के आने तक ही हैं, जो हैं
फ्रिज़ में थोड़ी ख़ुशियाँ पीली-पीली सी
दूर हुए उनसे भी तो जी भर रोये
वो राहें जो साथ रहीं पथरीली सी
बेवा जिज्जी सी मयके में रहती हैं
यादें कुछ कुछ हँसमुख कुछ दर्दीली सी
मत 'आनंद' गँवा रे मन सब धोखे हैं
दुनिया हो ज़हरीली या सपनीली सी
- आनंद
बेहतरीन ग़ज़ल...
जवाब देंहटाएंआनन्दानुभूति।
जवाब देंहटाएंआनन्दानुभूति। बधाई।
जवाब देंहटाएंआन्नदानुभूति।बधाई।
जवाब देंहटाएंआनन्दानुभूति। बधाई।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन..
जवाब देंहटाएंबहुत खूब
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