शुक्रवार, 27 जून 2014

पीर हमारी...

पीर हमारी भीगी माचिस तीली सी
जलती देह हमारी लकड़ी गीली सी

रूह भटक कर पैठी है जिस पिंज़र में
उसकी सब  दीवारें सीली-सीली सी

मेहमानों के आने तक ही हैं, जो हैं
फ्रिज़ में थोड़ी ख़ुशियाँ पीली-पीली सी

दूर हुए उनसे भी तो जी भर रोये
वो राहें जो साथ रहीं पथरीली सी

बेवा जिज्जी सी मयके में रहती हैं
यादें कुछ कुछ हँसमुख कुछ दर्दीली सी

मत 'आनंद' गँवा रे मन सब धोखे हैं 
दुनिया हो ज़हरीली या सपनीली सी

- आनंद