मंगलवार, 5 जुलाई 2011

मेरी बस्ती से अंधेरों.. भागो !



खामखाँ मुझको सताने आये,
फिर से कुछ ख्वाब सुहाने आये |

मेरी बस्ती से अंधेरों.. भागो,
वो नई शम्मा जलाने आये  |

जिनको सदियाँ लगी भुलाने में,
याद वो किस्से पुराने आये  |

वो जरा रूठ क्या गया मुझसे,
गैर फिर उसको मनाने आये |

मेरी दीवानगी..सुनी होगी,
लोग अफसोश जताने आये !

मैं तो जूते पहन के सोता हूँ,
क्या पता कब वो बुलाने आये |

उसके हिस्से में जन्नतें आयीं ,
मेरे हिस्से में जमाने  आये   |

यारों 'आनंद' से मिलो तो कभी,
आजकल उसके जमाने आये  ||

   -आनंद द्विवेदी ३०-०६-२०११