मंगलवार, 25 सितंबर 2012

रस और विचार का संगम .... एक काव्य संध्या ऐसी भी !

कभी कभी  जब शाम भी हो शांति भी हो रविवार भी हो और अचानक अपनों से मिलना हो जाए ...और फिर उस मिलने में कविता भी आकर चुपचाप बैठ जाए चुपके से ...कहीं कोई नज़्म आकर गले में बाहें डाल दे  तो कैसा लगेगा ...ऐसा ही एक बेहद मीठा अनुभव हुआ परसों २३ की शाम श्रीकांत सक्सेना जी के आवास पर   वहाँ पहुंचा तो पाया कि सड़क पर ऑटो से श्री अरुण देव जी उतर रहे हैं और उनके साथ है कर्नाटक से पधारे श्री एस एम जागीरदार साहब !
खैर हम भी खरामा खरामा .... 4A /DB 202 हुडको ट्रांजिट फ्लैट्स ढूंढने में लग लिये और जब मंजिल रूबरू हुई तो इस सुखद आश्चर्य के साथ कि  वहाँ पर गाज़ियाबाद से सुश्री वंदना ग्रोवर जी और निरुपमा सिंह जी को बैठे पाया |

इसे श्री सईद अयूब जी का जादू कहूँ तो शायद अतिशयोक्ति न होगी कि इतनी अल्प सूचना पर आज की मुख्यधारा की कविता के सशक्त हस्ताक्षर और दूरदर्शन के महानिदेशक श्री लीलाधर मंडलोई जी और श्री अरुण देव जी, सीमा सुरक्षा बल में महानिरीक्षक कवि श्री मनोहर बाथम जी , श्री प्रमोद कुमार तिवारी जी हरदिल अज़ीज़ और आला कवि भाई भरत तिवारी जी, सुश्री विपिन चौधरी जी, मेरे प्रिय कवि श्री त्रिपुरारी कुमार शर्मा जी और ये नाचीज़  एकत्रित हो गए ... श्रीकांत सक्सेना जी जो स्वयं एक कवि और माहिर गज़लगो हैं  एक बहुत ही अच्छे मेज़बान भी साबित हुए ! जल और जलपान के साथ गप्प-सड़ाका ये तो वैसे भी किसी भी कार्यक्रम का सबसे प्रिय क्षण होता है !
बहरहाल श्री मंडलोई जी को आने में कुछ देर थी तो सभी के अनुरोध पर सभा की अध्यक्षता का दायित्व श्री  अरुण देव जी ने स्वीकारा और संचालन का गुरुत्तर दायित्व श्री त्रिपुरारी जी ने, और महफ़िल का आगाज़ हुआ भाई भरत की बेहतरीन गज़ल 'बक्से-अहमक' से जिसमे उन्होंने आज की इलेक्ट्रोनिक मीडिया पर गज़ब का तंज किया है ..भरत भाई का लहजा उनकी कविताओं और गज़लों से भी ज्यादा मासूम होता है कला और प्रतिबद्दता उनका दूसरा पहलू है | ... दूसरा नाम लिया गया वंदना ग्रोवर जी का ...गज़ब की संवेदना लिये हुए कवितायेँ और कविता जैसा ही नाजुक उनका काव्यपाठ का अंदाज़ एक और एक और की आवाजें तो आनी ही थीं ! ....फेसबुक पर और मित्रों में समान रूप से लोकप्रिय और आदरणीय,  मृदुभाषी सुश्री निरुपमा जी ने नीलिमा की छटा बिखेरते हुए अपनी एक नायाब कविता 'नीला चाँद' (नामकरण मैंने कर दिया क्षमा प्रार्थना के साथ )  आकाश दृष्टा निरुपमा जी प्रकृति को जब अपनी कविताओं में जीती हैं तो कवितायेँ बोल पड़ती हैं  और जब वो जीवन की विडम्बना पर चोट करती हैं  निशब्द कर देती हैं !
इसके बाद इस खाकसार ने भी अपनी दो छोटी छोटी ग़ज़लें पढ़ीं और महफ़िल का रुख हुआ भाई सईद अयूब जी की ओर  सफल आयोजक , सफल संचालक , एक सफल कथाकार  और और एक बेहद संवेदनशील कवि , यद्यपि बहुत कम सुनने का अवसर मिल पाता है सईद जी को मगर जब मिला तो संध्या अमृतमयी हो गयी चुने हुए अशआर चुनी हुई ग़ज़लें  और नज़्मों में छलकता अथाह प्रेम  सईद भाई अबा कभी ये बहाना मत करना कि हम तो कविताओं वाला पुर्जा लाये ही नहीं !.......... जब कभी आप विपिन जी को सुने (सुश्री विपिन चौधरी जी को) तो हो सके तो साँसें भी बहुत जोर से न लीजियेगा अन्यथा संवेदना का कौन सा तंतु झंकृत होने रे रह जाए इसके जिम्मेदार आप स्वयं होंगे बकौल श्री त्रिपुरारी जी "विपिन जी ने अपने हालिया लेखन से अपने स्वयं के बनाये हुए प्रतिमानों को ध्वस्त किया है " ... 'कपास के सफ़ेद फूल' मौसम में इस लिये खिले कि विपिन जी हर रंग के गुलों  को तो दुनिया में बाँट दिया है रंगों  की इस मारामारी में अब केवल एक कपास का ही रंग है जो अपना रह गया है | आधुनिक कविता की सशक्त हस्ताक्षर विपिन जी को एक बार फिर से सुन पाना मेरे लिये सूखा आश्चर्य से कम नहीं था |
   प्रिय श्री प्रमोद कुमार तिवारी जी को दुबारा सुन पा रहा था प्रमोद जी की कवितायेँ आंचलिक सरोकारों को राष्ट्रीय पटल पर रखने के महान और भागीरथ प्रयास का हिस्सा लगीं मुझे ...जब उन्होंने अपनी कविता 'डर' सुनायी तो पल भर को हम सभी उनके डर से डर गए,  सच है कि आज संवेदनशील होना भी डर की एक बड़ी वजह हो सकती है ..उनकी अन्य कविताओं में ग्रामीण जीवन उनके अंतर्द्वन्द रिश्तों की बुनावट  और उनकी विडंबनाएं बहुत कुछ कहती हैं दूसरे सत्र में 'डायन'  पर लिखी गयी उनकी कविता ने सबके रोंगटे खड़े कर दिए |...... और फिर सबके अनुरोध पर मेजबान श्री श्रीकान्त जी की मनभावन कवितायें उन्हें भी दूसरी बार सुन रहा था मैं मगर पहली बार सुन रहा था विस्मय में भरकर बहुत कोमल लहजा और उतनी ही कोमल किन्तु दृढ कवितायें !
प्रिय श्री त्रिपुरारी कुमार शर्मा जी  एक ऐसा नाम जो लगता है कि नज़्मों के लिये ही बना है ... और पिछले दो बार से जब भी उनको सुन रहा हूँ उनकी गज़ल भी क़यामत ढाती हुई लग रही हैं  अंदाजेबयां और तलफ्फुस दोनों तो कमाल के है ही ...जब त्रिपुरारी जी नज़्म पढ़ते हैं  तो उनकी मखमली आवाज़ में नहा कर  नज़्म जिंदा हो उठती है ...'मेरी देह की दलदल में तुम्हारे यादों के पाँव' त्रिपुरारी जी ऐसे ही नहीं पहली मुलाकात के बाद मुझे प्रिय हैं |
     श्री अरुण देव जी के बारे में कुछ भी कहने में एक सहज संकोच सा होता है ....वरिष्ठ कवि केवल कथन में नहीं ..कविता की भावभूमि, उसकी  परिपक्वता उसके मुहावरे  और फिर वाचन का उनका एक विशिष्ट ढंग  कुलमिलाकर उदीयमान और लेखन के प्रति गंभीर कवियों को उनसे बहुत कुछ सीखने को मिलता है हर ऐसे अवसर पर जब उनका सानिध्य हासिल होता है ..... पहली कविता 'लालटेन' जैसे प्रतीक्षा ने भी शांति का रूप धारण कर लिया हो अनोखे बिम्ब ... सायं से लालटेन का सजना संवरना हम जैसे लोग जिनकी एक तिहाई उम्र लटें के उजाले में गुजरी हो के लिये स्मृतियों में लौट जाने का एक सुखद अवसर था .... दूसरी कविता 'मीर'  जिसमे आपने मीर ताकि 'मीर' के शेरों को  कविता में ढाला है और सिंधु नदी के उस पार  से बहती आयी भाषा की एक नदी को शिद्दत से याद किया है  जिसके आज हिंदी और उर्दू के रूप में दो हिस्से हो गए हैं |
              यह सब होते करते  श्री लीलाधर मंडलोई जी श्री मनोहर बाथम जी के साथ पधार चुके थे  इस लिये उनको सुनने से पहले स्वल्पाहार का एक छोटा सा दौर  और साथ में एक परिचर्चा भी , हम सब की उत्सुकता कर्नाटक से आये जागीरदार साहब से यह जानने की थी कि आखिर वहाँ हिंदी कि दशा दिशा क्या है  श्री जागीरदार साहब ने बताया कि उनके महाविधालय/ विश्वविद्यालय जहाँ  वो शिक्षण का कार्य करते हैं में केवल बी.ए. में ही साढ़े तीन सौ  हिंदी के छात्र है  आपके मुँह से यह सुनना भी सुखद रहा कि वहाँ हर विश्वविद्यालय /महाविद्यालय में हिंदी की एम.ए. की कक्षाएं हैं और प्रायः सभी सीटें भरी ही होती हैं  ...  श्री अरुण देव जी और श्री सईद अयूब जी  ने अपने हालिया गुजरात के अनुभव को बांटते हुए हम सब को बताया कि 'खुले में रचना' कार्यक्रम के बाद तीसरे दिन  उन लोगों का एक काव्यपाठ आई एन ए में हुआ था जहाँ अधिकाँश लोग वैज्ञानिक पृष्ठभूमि  के थे मगर कविता उन तक पहुंची और सब ने बड़े उत्साह से काव्यपाठ का आनंद लिया | श्री लीलाधर मंडलोई जी ने इस पर एक बात कही कि हम हिंदी के लोग खुद न जाने किस अनजान भय का शिकार है और इन गोष्ठियों से निकल कर आमजन तक जाने की कोशिश नहीं करते हैं, परिणाम स्वरुप साहित्य और आमजन के बीच में एक अंतराल सा बना रहता है और फिर इस अंतर को पाटता है स्तरहीन वो साहित्य और कविता जो वाह वाह के लिये ही लिखी जाती है और जनमानस उसे ही मुख्य धारा का साहित्य समझ बैठता है | श्री मंडलोई जी ने एक सुझाव यह भी दिया कि भले ही एक कार्यशाला का आयोजन क्यों न करना पड़े  कवियों को काव्यपाठ की बारीकियाँ भी सिखायी जानी चाहिए क्योंकि कई बार अच्छी कविता भी सम्प्रेषण की कमी से वांछित प्रभाव पैदा करने में असमर्थ होती है जबकि प्रभाव शाली ढंग से पढ़ी गयी कविता समझ के नए आयाम खोलती है उन्होंने ने मंच पर काव्यपाठ करने के दौरान "माइक से वक्ता का संबंध" जैसे तकनीकी पहलू पर भी प्रकाश डाला और जोर दिया कि हर कविता पढ़ने वाले को इसकी जानकारी होनी चाहिए |   चर्चा में हस्तक्षेप करते हुए  श्री मनोहर बाथम जी ने देश के सुदूर सीमावर्ती क्षेत्रों के अपने अनुभव को बांटते हुए (ज्ञातव्य हो कि श्री बाथम जी सीमा सुरक्षा बाल में महानिरीक्षक हैं ) कहा कि वह जहाँ भी अपनी पोस्टिंग के दुरान रहे हैं ऐसी काव्य संध्याओं का आयोजन किया है और उनमे स्थानीय लोगों की भागीदारी बहुत उत्साहवर्धक रही है , उन्होंने इस बात पर बल दिया कि ऐसे आयोजनों में स्थानीय भाषा का कोई कवि यदि है तो उसे बुलाएं और धैर्य पूर्वक उसे सुनें  ऐसा करने से  अन्य भाषा भाषियों में भी हिन्दी के प्रति प्रेम बढ़ता है | श्री बाथम ने आइजोल (मिजोरम) का जिक्र करते हुए कहा कि वहाँ प्राथमिक स्तर पर १५० विद्यालयों में हिंदी का पठन पाठन शुरू हुआ है !
                  कविताओं के दूसरे दौर का मुख्य आकर्षण श्री बाथम जी की सरहद पर लिखी गयी अनूठी कवितायें थीं बकौल मंडलोई जी " श्री मनोहर बाथम देश के एक मात्र ऐसे कवि है जिन्होंने सरहद को अपनी कविताओं का विषय बनाया है वह एक बेजोड़ कवि है" ज्ञातव्य हो कि श्री मनोहर बाथम के  काव्यसंग्रह "सरहद के पार" का अबतक  बारह भाषाओं में अनुवाद हो चुका है | श्री बाथम जी कि कविता 'सरहद का पेड़' भौगोलिक सीमाओं में बार बार बंटती मानव संवेदनाओं का मर्मस्पर्शी चित्रण है तो वहीं उनकी मानव तस्करी पर चालीस कविताओं की श्रंखला कि कुछ कवितायें इस भयावह त्रासदी की ओर सबका ध्यान खींचने में सक्षम और विचार करने के लिये विवश करती दिखी !
श्री लीलाधर मंडलोई जी को मैं तीसरी  बार प्रत्यक्ष सुन रहा था  हर बार एक  नयापन, हर बार चिंतन की एक अलग धारा का अनुभव चाहे वो नास्तिक कविता के बहाने एक अलग नजरिये से मंदिर का भ्रमण और फिर भक्त, भौतिकी और भगवान के संबंधों की अनूठी विवेचना हो  या फिर पुन्य की लालसा में गरीब को आधा पेट भोजन कराते हुए स्वार्थी पुन्यार्थियों पर तीखा कटाक्ष हो  श्री मंडलोई जी हर जगह अद्वितीय हैं | 'पचास के पार' कविता में परिवार की आंतरिक अभिव्यंजनाओं की सूक्ष्म पड़ताल,  नई पीढ़ी के नए मुहावरे  और अधेड वय के स्त्री -पुरुष की मनोदशाओं का बारीक चित्रण  शायद देश के इस कद्दावर कवि के ही बस की बात थी |
        इस के बाद सभी ने अपनी एक एक कविता और सुनायी जिसमे  श्री प्रमोद तिवारी की डायन , सुश्री वंदना ग्रोवर जी की पंजाबी कविता जो उन्होंने बड़े आग्रह के बाद सुनायी  निरुपमा जी की वैचारिक पृष्ठभूमि वाली कविता, श्री सईद अयूब जी की एक बेहद प्यारी नज़्म जो की मशहूर गज़ल गायक जगजीत सिंह जी को समर्पित थी , त्रिपुरारी जी की प्रसिद्ध कविता 'गोहाटी के गले से' श्रीकांत जी की एक बहुत  प्यारी गज़ल और भाई भरत की कविता ! अब बारी थी पुनः अध्यक्ष श्री अरुण देव जी की, अपने अध्यक्षीय उदबोधन में श्री देव जी ने पढ़ी गयी कविताओं की एक सारगर्भित समीक्षा प्रस्तुत किया जिसमे उन्होंने कवि क्रम से हर कविता में आयी संभावनाओं और कमियों की ओर कवियों का ध्यान खींचा और फिर अंत में खुद की एक प्रसिद्ध और चर्चित प्रेम कविता जिसमे अपनी पत्नी के माध्यम से स्त्री पुरुष संबंधों और मनोविज्ञान  की सूक्ष्म पड़ताल की गयी थी सुनाकर इस रसमय काव्य संध्या के समापन की औपचारिक घोषणा कर दिया | अस्तु !!