सोमवार, 27 दिसंबर 2021

इक न इक दिन..

इत्र बनेंगे  उड़ जाएंगे  इक न इक दिन
ऐसे रुख़सत हो जाएंगे इक न इक दिन

लिए पोटली खट्टी मीठी यादों की
उनकी गलियों में जाएंगे इक न इक दिन

पत्थर, मोम, फूल या काँटे, सब उनके
ऐसे मन को बहलायेंगे इक न इक दिन

यही सोचकर सपने देख रहा था मैं
शायद वो इनमें आएंगे इक न इक दिन

हमने कोशिश की थी उन सा होने की
वो किस्सा भी बतलायेंगे इक न इक दिन

उन्हें पता है, हमसे और न कुछ होगा
रो धो कर चुप हो जाएंगे इक न इक दिन

मैं तो ख़ैर बज़्म से उनकी उठ आया
अलबत्ता वह पछताएंगे इक न इक दिन

मेले का 'आनंद' झमेले का जीवन
मेले में ही खो जाएंगे इक न इक दिन

@ आनंद




शनिवार, 7 अगस्त 2021

जिसने थोड़ा थोड़ा करके..

जिसने थोड़ा थोड़ा करके मुझको इतना किया खराब
कहता रहा उसे ही अबतक दुनिया में सबसे नायाब 

जिसनें देखा नहीं पलटकर मेरी दुनिया कैसी है
उसके ही दर रहे पहुँचते अक़्सर मेरे पगले ख़्वाब 

याद किया जब पिछली बातें, दोनों ही झूठे निकले
उसने मुझको कहा ज़िंदगी मैंने उसको कहा शराब 

'मछला रानी' जैसा जादू, कुछ उसने कर रक्खा था
'पिंजरे का तोता' होकर भी ख़ुद को समझा किये नवाब 

आख़िर को यह बहती किश्ती अपने ही तट लगनी है
लहरें चाहे कुछ भी कर लें,  कितनी पैदा हों गिर्दाब 

शांत हो गयी महफ़िल सारी, नग़्मे, किस्से, शिक़वे, शोर
धीरे-धीरे लौट रहे हैं, अपने-अपने घर अहबाब 

छोड़ो भी 'आनंद',  मियाँ अब क्या रक्खा इन बातों में 
किससे कितने काँटे पाये, किसने कितने दिए ग़ुलाब। 

© आनंद 
गिर्दाब  = भँवर
अहबाब = मित्र