गुरुवार, 21 फ़रवरी 2013

केवल प्रेम से मिलते हो..


माधव !
सुना है तुम
केवल प्रेम से मिलते हो..
चाहत से नही..ना ?
तो,
मेरा एक काम करदो
जब तक
मुझे प्रेम ना हो जाए
तब तक
न तो मेरी प्रेम की प्यास मिटे
न ये चाहत...

देख लो!

मुझे
कई जन्म लग सकते हैं ...

- आनंद

मंगलवार, 19 फ़रवरी 2013

अच्छे लोग ...


अच्छे लोग
अच्छे से करते हैं
बुरा भी

और रहते हैं हमेशा अच्छे,  
अच्छे लोग
हमेशा जागरूक रहते हैं ,

बुरे लोग
कर नहीं सकते
अच्छा,
समझ नहीं सकते
अच्छा-बुरा !

मिल जाते है 
अच्छे लोगों को
अक्सर 
दुःख स्वप्न की तरह

अच्छे लोग
चाहते हैं 
बुरे लोग और बुराई से मुक्त दुनिया ,

और बुरे लोग...
वे चाहते हैं
अच्छे लोगों जैसा बनना  !

-            - आनंद  

रविवार, 17 फ़रवरी 2013

एक हद हो जहाँ ....

मेरे ज़ज़्बात से खिलवाड़ को रोका जाए
ये अगर प्यार है तो प्यार को रोका जाए

मैं नहीं कहता कि व्यापार को रोका जाए
पर तिज़ारत से,  मेरे यार को रोका जाए

आँख को छीनकर जो, ख़्वाब थमा देता है
वो  जालसाज़   इश्तिहार  को रोका जाए

कितने बच्चों के निवाले तिजोरियों में मिले
इन गुनाहों से, गुनहगार को रोका जाए

खून में सन गए हैं कुर्सियों के सब पाये
अब जरा जश्न से दरबार को रोका जाए

ढोल दिनरात तरक्की का पीटिये लेकिन
ख़ुदकुशी करने से लाचार को रोका जाए

मुझको उम्मीद है, कुछ लोग तो ये सोचेंगे
एक हद हो, जहाँ बाज़ार को रोका जाए

आस ‘आनंद’ की जिन्दा है, भले कुछ कम है
कुछ दिनों उस पे नए वार को रोका जाए


- आनंद
१४/०२/२०१३



गुरुवार, 14 फ़रवरी 2013

सुनो भाई साधो ...

प्रेम को भी
इस्तेमाल किया जा सकता है
सीढ़ी की तरह
कुछ लोग आगे जाने के लिए
करते ही हैं


कुछ लोग नाम जपते हैं
सारी उम्र
प्रेम का
और उड़ाते हैं मज़ाक
अपनी बीवियों का


महान उद्योगपति,व्यवसायी,
महान कलाकार
सब बेकार  ....
अगर आप
नहीं हैं महान प्रेमी,
प्रेम !
खूब भरता है अहंकार को


प्रेक्टिकली संभव नहीं था
जिनके लिए
प्रेम,
उन्होंने अलग क्षेत्र चुना
इस तरह दुनिया को दो नयी प्रजातियाँ मिलीं
दार्शनिक
और बुद्धिजीवी

अन्ततोगत्वा
सभी होते हैं प्रेम में
खुद के !

- आनंद


सोमवार, 11 फ़रवरी 2013

मेरे अंदर के इंसान

ओ मेरे अंदर के इंसान

ओ गंवई, गंवार भलेमानुष-अमानुष
किसी माल में न जाने के कितने भी बहाने ढूंढ ले तू
किसी बड़ी कार में किसी आग्रह/जरूरत वश बैठते समय कितना भी सिमटे तू
किसी अच्छे आफ़िस का दरवाजा खोलते हुए कितना भी ठिठकें तेरे कदम
दुकान पर मोलभाव न कर पाने के लिये
घर आकर कितनी भी डाँट पड़े तुझे
घर के शेर , घिग्घी बंध जाती है बाहर, दब्बू .....
कोई भी अलंकरण मिले तुझे
कितनी ही बार ठगा जाए तू .... छला जाए तू  
मैं हूँ तेरे साथ ..... तब तक
जब तक तुझे मजदूरों के साथ जमीन पर बैठने में भला लगता रहेगा
तेरे पुरखों के खेत जोतने वाले बुद्दू/भीखा/रग्घू/ सजीवन, को
'काका राम-राम' कहने में भला लगता रहेगा
किसी गरीब को गले लगाते समय तेरा प्रेम का सोता सूखेगा नहीं
तू करता रहेगा विरोध
किसी कमजोर को बेवजह घुड़कने का, सताने का, धोखा देने का
देखता रहेगा दुनिया को जाति से बाहर निकल कर भी
देखता रहेगा धर्म के प्रपंचों को कभी कभार धर्म से थोड़ा दूर खड़े होकर
कि जब तक तू स्त्रियों का शरीर पढ़ने के बजाय
पढ़ता रहेगा उनका चेहरा, उसपर लिखा उनका संघर्ष  और उनके जीवन की दुश्वारियाँ
सुंदर देहयष्टि की जगह, साहस को, सहनशक्ति की सीमा को
और साथ ही उनकी अद्भुत क्षमताओं को ( जो प्रकृति ने पुरुषों को नहीं दिया )
मैं हूँ तेरे साथ छाया की तरह

ओ मेरे अंदर के इंसान
ज़मीर के साथ जीते हुए
परिस्थितियों से हार जाना तुम चाहे रोज
मगर मत चुनना कभी
निर्लज्ज सुख
मैं हूँ तेरे साथ
नहीं दूंगा धोखा तुझे
तू भी मत देना किसी को
मुझको भी नहीं !

- आनंद




शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2013

चाहतों का अम्बार ...

विद्वजन कहते हैं 
कि,  प्रेम में नहीं होती कोई चाहत
विद्वजन चाहते हैं 
कि, माना जाए उनके कहे को अंतिम सच।

मुझे नहीं पता प्रेम का
नहीं जानता कब और कैसे  होता है
किसको  होता और क्यों होता है 
कभी तुम्हें  हुआ कि नहीं 
कभी हमें  हुआ कि नहीं 
कुछ पता नहीं 

हाँ मैं चाहता हूँ
कि टूटकर चाहो तुम मुझे  
बेचैन हो उठो अगर घड़ी भर भी महसूस करो 
मुझको खुद से अलग,
चाहता हूँ कि नींद न आये तुम्हें उस उस रात
जिस जिस दिन झगड़ा हो हमारा  
चाहता हूँ कि मुझे कम से कम यह पता तो रहे ही 
कि आज ऑफिस नहीं गयी हो तुम 
याकि आज सारा दिन नहीं उठा सकोगी कोई फ़ोन 
चाहता हूँ कि मुझे रोज़ पता हो कि आज तुम्हारा क्या खाने का मन है
याकि जब तुम ऑफिस से वापस आयी-चाय खुद तो नहीं बनानी पड़ी 
चाहता हूँ कि सुबह जब सोकर उठो 
तो रात का एक-एक सपना घूम जाए आँखों में पल भर को 
और मुस्करा पड़ो तुम शरमाते-शरमाते 

हाँ मैं चाहता हूँ 
कि छुट्टी के दिन लगाऊँ तुम्हारे बालों में तेल
और बार-बार बिखेर लूँ उन्हें अपने चेहरे पर 
जान जाऊं तुम्हारी हर इच्छा बिना बताये हुए 
और जरूरत पड़ने से पहले ही तुम्हें हर काम हुआ मिले हर चीज़ हाथ में हो 
वह भी तुम्हारी सबसे श्रेष्ठ पसंद के अनुरूप,
चाहता हूँ कि मुझे बेधड़क मार सको फेंककर जो भी हो तुम्हारे हाथ में 
खीझो जब भी मुझपर 
और नाच उठें आँखों में दो नन्हे आँसू अगर मुझे चोट लगे तो 
चाहता हूँ कि उसी पल निकल जाए मेरी जान 
जब न रहना संभव हो तुमको मेरी जान बनकर 

कैसे हो सकता है मुझे .... प्रेम !
इतनी सारी चाहतों के होते हुए 
इन चाहतों से ही तो जिन्दा हूँ मै 
कि चाहतों का अम्बार हूँ मैं ! 

- आनंद  

बुधवार, 6 फ़रवरी 2013

कहीं तुम भी ...?


सुबह उगते हुए सूरज को देखना
देखना ओस की कोई अकेली बूँद
खय्याम की रुबाई से रूबरू होना
या फिर गुनगुनाना मीर की ग़ज़ल
आफिस की मेज़ को बना लेना तबला
और पल भर को  जी लेना बचपन
ऐसा ही कुछ कुछ है तुम्हारा अहसास
जिसे ठीक से कह पाना असंभव
कभी सुनो मेरे ठहाकों में खुद को
कभी पढ़ो मेरे आँसुओं में अपनी कविता
कि ढूंढो मेरे अंधेरो में अपनी छाया
और लहलहाओ मेरे मौन में
बनकर सरगोशियों की फ़सल

मुद्दत से तुम्हें कहने की कोशिश में हूँ
मगर एक भी उपमा नहीं भाती मन को
रह जाते हो तुम हमेशा ही अकथ
जैसे अनकही रह गयी मेरी वेदना
जैसे अनलिखी रह गयी मेरी कविता
जैसे अनछुआ रह गया एक फूल
जैसे अनहुआ रह गया मेरा प्रेम
कि जैसे अनजिया बीत गया एक जीवन

सुनो !
कहीं तुम भी
किसी का जीवन तो नहीं ?

- आनंद






मंगलवार, 5 फ़रवरी 2013

मेरा डूबना

न जाने क्यूँ
यह मानने का मन नहीं करता
कि प्राण भारहीन होते हैं
या होते हैं सिर्फ हवा भर
क्योंकि
एक तुम्हारे न होने से
कितना हल्का हो जाता हूँ मैं
कि आ जाता हूँ एकदम सतह पर
जैसे कोई लाश
तैरने लगता हूँ धारा के साथ
बिना किसी इच्छा के
इच्छाएँ
निशानी हैं जीवन की
इनसे चिढो मत
मसलन एक ये इच्छा
कि तुम भर जाओ मुझमे एक बार
और मैं डूब जाऊं
हमेशा के लिए !


- आनंद