शनिवार, 25 फ़रवरी 2017

अपने समय की चाल से आगे...

अपने समय की चाल से आगे निकल गया
इन्सान जरूरत की मशीनों में ढल गया

हम इंतज़ार ओढ़ के सोये थे ठाठ से
भगदड़ में कोई ख़्वाब हमारे कुचल गया

बाहर से ठीक ठाक है, अंदर लहूलुहान
ये देश मेरा गुड़ भरा हंसिया निगल गया

आता कहाँ से ज़िन्दगी के खेल का मज़ा
जब जब मैं जीतने लगा पाला बदल गया

दोनों ने ख़्वाब वस्ल के देखे ये कम है क्या
अब क्या करें जो वस्ल का मौसम निकल गया

अपने ही भरमजाल में उलझी थी ज़िन्दगी
फ़ुर्सत मिली तो उम्र का सूरज ही ढल गया

ये क्या कि बात बात में आँसू छलक पड़ें
'आनंद' तेरा दर्द तमाशा निकल गया

- आनंद

गुरुवार, 9 फ़रवरी 2017

विरही बसंत ...

उन तक भी अब जाएगा इस दिल का संवाद
ऋतु बासंती कर रही पीड़ा का अनुवाद

पीली सरसों की लहक, चहक पखेरू केरि
लिये उदासी ह्रदय में, रहीं उन्हें ही टेरि

'वैलेंटाइन' संत जी, उधर बजाएं ढोल
इत फागुन बैरी हुआ रहि रहि करे ठिठोल

कब तक रखें हौसला कैसे रखें आस
नन्हें नन्हें ख़्वाब थे जिन्हें मिला वनवास

झूठ बोलते हैं सभी, दिल से दिल की रीत
पत्थर दिल कैसे हुए मेरे मन के मीत

उलटे हैं आनंद सब जीवन के व्याख्यान
जिसको देखा तक नहीं उसको दे दी जान

 - आनंद