सोमवार, 30 मई 2011

वापसी -प्रतीक्षा के बाद....



वेटिंग रूम से ...कविता .... की अगली और अंतिम कड़ी 

याद आ रहा है मुझे
गुज़रते हुए इस
अनिश्चितकालीन प्रतीक्षा से
कहा था कभी
तुमने
कि बदलती है 
अनिश्चित प्रतीक्षा
जब 
अंतहीन प्रतीक्षा में
तब 
ऊब कर 
लौटता है 
मन
वापस  
अपने घर की ओर ...

गूँज गए हैं 
तुम्हारे शब्द 
अंतर्मन में मेरे-
"मुड़ो अपनी ओर.. 
डूबो  खुद में
मैं वहीँ हूँ
तुम्हारे भीतर
मत ढूंढो मुझे बाहर
बस खुद से मिलो ..
मिलो तो एक बार  !!!"

हाँ !!
यही कहा था तुमने...
और फिर मैंने भी
स्थगित कर दी
आगे की यात्रा,
अनिश्चित का इंतज़ार,
लौट पड़ा हूँ घर को 
तुम्हारे शब्दों में जादू है
या मेरे विश्वास में  ?
 कह नहीं सकता 
किन्तु ...
डूबने लगा हूँ मैं
खुद में..
करने लगा हूँ 
तैयारी
एक महायात्रा की...
आ रहा हूँ
तुम्हारे पास ,
इसी विश्वास के साथ 
कि
दिशा सही है अब
पाने को 
मंज़िल अपनी ....

आनंद द्विवेदी 
२७/०५/२०११

शनिवार, 28 मई 2011

वेटिंग रूम से....




प्रतीक्षालय में होना
सुखद है,
बनिस्बत 
होने के
किसी प्रतीक्षा में ..

हजारों चेहरे
और 
उनपर से गुजरते हुए 
लाखों भाव ..
किसी की आँख में 
संतोष
लगता है 
किसी अपने से 
मिलकर आ  रहा हो
वहीं  
किसी की आँखों  में 
व्यग्रता
जैसे 
उसे देर हो रही हो 
कहीं जाने की ,
एक सुरूर एक दर्प
कि कर रहा  है 
कोई इंतजार  ...

सामने 
एक जोड़ा बैठा है ...
दीन दुनिया से 
बेखबर
कहीं जाने की 
कोई जल्दी नहीं
कोई व्यग्रता नहीं
बस दो जोड़ी आँखें
उनमे चमकते जुगुनू
कुलबुलाती शरारतें
छलकता प्यार
न पैरों में 
अतीत के बंधन
न सर पर 
भविष्य का भार
कितना सुखद है
जो मेरे पास है 
उसे इस क्षण में 
पूरी तन्मयता से जीना ...!

वो कोने की सीट पर
एक लड़की बैठी है
अकेली लड़की
जो साफ-साफ  तो नहीं 
दिखाई दे रही
मगर
उसकी आँखों का 
सूनापन
चमक रहा है 
दूर से ही ..
सांसें भी 
साफ़ सुनाई दे रही हैं.
इतने शोर के बावजूद
सर्द आहें छोडती हुई 
सांसें
शायद
खोने पाने के इस खेल में
खो दिया है
उसने कुछ  !

और मेरे ठीक सामने
ये अकेले बुजुर्गवार...
जाने क्या ढूंढ रहे हैं !
हर आते-जाते 
चेहरे में
शायद वही चेहरा
जिसे ये 
जिगर का टुकड़ा 
कहते थे
जो छोड़ गया है ....
इनको इस अंतहीन
प्रतीक्षालय की 
सीढ़ियों तक ..
सोंचता हूँ
कितना सब्र होता है 
इन बुजुर्गों में
कभी उम्मीद ही नहीं छोड़ते...!

अचानक
मैं ढूँढने लगता हूँ  
तुमको ......!!
मगर
तुम नहीं हो 
इस प्रतीक्षालय में
तुम्हें नहीं है
किसी की प्रतीक्षा
शायद तुमने पा लिया है
अपना गंतव्य
मुक्त हो गए तुम 
इन छोटी मोटी बातों से..!

फिर भी
सोंचता हूँ
शायद 
दिख जाये
तुम जैसा ही कोई
इसी कोशिश में 
हर चेहरा पढ़ डाला मैंने
जीवंत  चेहरे
खिलखिलाते चेहरे
मुर्दा चेहरे
व्यापारी चेहरे
खुर्राट चेहरे
मासूम चेहरे
थके चेहरे
उफ़..!!!!
कुछ न कुछ कमी
क्यों निकल आती है सबमे
क्यों नहीं होता कोई
तुम जैसा ....!
परिपूर्ण ...!!

अचानक 
एक उद्घोषणा
गाड़ी संख्या १२७८६
नयी दिल्ली से पुरी जाने वाली
नीलांचल एक्सप्रेस गाड़ी
अनिश्चितकालीन विलम्ब से है .....

हथौड़े की तरह 
लगता है
यह शब्द
अनिश्चितकालीन  ...
तुम्हें शायद पता हो 
या  न हो
कि
प्रतीक्षा जब
अनिश्चित कालीन 
हो जाती है
तब
कितना दर्द देती है .....!!

 आनंद द्विवेदी २७/०५/२०११
नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से

बुधवार, 25 मई 2011

छू लो , पगलाई उमंग को !



आने दो , हर सहज रंग को !
छू लो ,  पगलाई उमंग को  !

शाम नशीली रात चम्पई 
दिवस सुहाने सुबह सुरमई 
पिया मिलन की आस जगी है
फिर अधरों पर प्यास जगी है
मूक शब्द क्या कह पाएंगे 
महा मिलन के मुखर ढंग को 
छू लो ,  पगलाई उमंग को  !

तन में वृन्दावन आने दो 
मन को मधुवन हो जाने दो 
फिर से मनिहारी मोहन को 
बरसाने तक आ जाने दो 
तन वीणा के तार बन गया 
बजने दो अविरल मृदंग  को 
छू लो, पगलाई उमंग को  !

मैं पूजा की थाल सजाये 
कब से बैठा आस लगाये 
सदियों बीत गए हों जैसे 
कान्हा को नवनीत चुराए 
सुन लो फिर वंसी का जादू
खिल जाने दो अंग-अंग को 
आने दो हर सहज रंग को !
छू लो  पगलाई उमंग को  !!

  आनंद द्विवेदी १५-०५-२०११

सोमवार, 23 मई 2011

मोह न मोहन ....!



रात में ३.४५  बजे के आसपास एक गाड़ी ब्रजमंडल से होकर गुजरती है मथुरा आने वाला है ...देह साधती है ब्रज भूमि को और मन साधता है उस सांवरे की यादों को...जिसने निमिष मात्र में ही जीवन बदल दिया, भर दिया मेरे अणु अणु को प्रकाश से .....!
राधा माधव  ... माधव राधाकिसी भी नाम से बुला लो दोनों चितचोर दोनों रसिया क्यों की दोनों दो नहीं एक ही हैं  ....




तन राधा के रंग रंगा, मन वृन्दावन धाम !
एक रात मैं क्या रुका, बरसाना के ग्राम  !!

साँस साँस चन्दन हुई, धड़कन हुई अधीर !
जब से मन में बस गयी, बृज बनिता की पीर !!

एक बूँद ने कर दिया, जीवन में यह फर्क  !
झूठे सब लगने लगे, उद्धव जी के तर्क  !!

व्याकुलता पूजा  हुई, श्रद्धा हो गयी प्यास !
जाने जीवन को मिला, ये कैसा मधुमास  !!

धड़कन यमुना तट हुयी, दिल कदम्ब की डार !
सारे तन में हो गया,    कान्हा का विस्तार  !!



सोमवार, 16 मई 2011

एक बार होना चाहिए ...



जिंदगी में कम से कम एक बार होना चाहिए
मेरी ख्वाहिश है सभी को प्यार होना चाहिए !

इश्क में और जंग में हर दांव जायज़ है, मगर
आदमी पर सामने से,   वार होना चाहिए   !

नाम भी मजनूँ का गाली बन गया इस दौर में
बोलो,     कितना और बंटाधार होना चाहिए  !

लैस है, 'वृषभान की बेटी' नयी तकनीक से ,
'सांवरे' का भी नया अवतार होना चाहिए  !

हाय क्या मासूमियत, क्या क़त्ल करने का हुनर
आपका तो नाम ही ,   तलवार होना चाहिए  !

आँख भी जब बंद हो और वो तसव्वुर में न हो
ऐसे लम्हों पे तो बस,   धिक्कार होना चाहिए  !

जिंदगी तुझसे कभी कुछ,  और मांगूंगा नही
जिस तरह भी हो, विसाल-ए-यार  होना चाहिए

खासियत क्या इश्क की 'आनंद' से पूछो ज़रा
सच बता देगा मगर,  ऐतबार होना चाहिए  !!

           -आनंद द्विवेदी  १३-०५-२०११


मंगलवार, 10 मई 2011

मुझको वादे कुछ मिले थे मैंने पाया और कुछ



अपने स्कूलों  से तो, पढ़कर मैं आया और कुछ ,
जिंदगी जब भी मिली, उसने सिखाया और कुछ!

शख्त असमंजश में हूँ बच्चों को क्या तालीम दूँ  ,
साथ लेकर कुछ चला था, काम आया और कुछ !

आज फिर मायूस होकर, उसकी महफ़िल से उठा,
मुझको मेरी बेबसी ने ,   फिर रुलाया और कुछ  !

इसको भोलापन कहूं या, उसकी होशियारी कहूं?
मैंने पूछा और कुछ,   उसने बताया और कुछ  !

सब्र का फल हर समय मीठा ही हो, मुमकिन नहीं,
मुझको वादे कुछ मिले थे,   मैंने पाया और कुछ !

आज तो  'आनंद' के,    नग्मों की रंगत और है ,
आज दिल उसका किसी ने फिर दुखाया और कुछ

              आनंद द्विवेदी  १०/०५/२०११

बुधवार, 4 मई 2011

मुस्कराओ तो दर्द होता है....!




गीत गाओ तो दर्द होता है,    गुनगुनाओ तो दर्द होता है,
ये भी क्या खूब दौर है जालिम, मुस्कराओ तो दर्द होता है!

ख्वाहिशों को बुला के लाया था, ख्वाब सारे जगा के आया था,
तेरी महफ़िल से भी सितम के सिवा, कुछ न पाओ तो दर्द होता है !
  
तेरी मनमानियां भी अपनी हैं, तेरी नादानियाँ भी अपनी हैं,
गैर के सामने यूँ अपनों से,    चोट खाओ तो दर्द होता है  !

उस सितमगर ने हाल पूछा है,  जिंदगी का मलाल पूछा है,
कुछ छुपाओ तो दर्द होता है, कुछ बताओ तो दर्द होता है  !

जिंदगी को हिसाब क्या दूंगा,  आईने को जबाब क्या दूंगा 
एक भी चोट ठीक से न लगे,    टूट जाओ तो दर्द होता है  !

ये सितम बार-बार मत करना, हो सके तो करार मत करना
पहले 'आनंद' लुटा दो सारा, फिर सताओ तो  दर्द  होता है


         --आनंद द्विवेदी  ४-०५-२०११