सोमवार, 6 अगस्त 2012

टूटे न ख्वाबों की लड़ी



मुझे तुम्हारी आहट सुनाई पड़ी थी
पर मैं नींद में था
मैंने सोंचा भी कि आये हो तो
ख़्वाब तक तो आओगे ही
और मैं निश्चिन्त था
पर तुम कम थोड़े हो,
बाहर से ही लौट गए न
चलो अच्छा हुआ
वर्ना तुम जान लेते कि
किसी की पलकों में आकार ठहरना
किसी का सपना बन जाना
कैसा लगता है
मैं दुखी हूँ तुम्हारे लिए
पर मैं खुश हूँ हमारे लिए

न तुम बदले
न मैं
और न नींद के पक्ष में खड़ी
ये दुनिया !
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मुझे नींद में चलने की आदत है 
कई बार मैं 
वहाँ चला जाता हूँ 
जहाँ मुझे नहीं जाना चाहिए 
और कई बार तो 
वहाँ तक ... जहाँ से 
लौटना नामुमकिन है ! 
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मुंदी पलकों पर 
तुम्हारे होठों का एक एहतियात भरा खत... 
कुछ लिपियाँ 
बंद आँखों के लिए ही ईज़ाद की गयी हैं 

आँख खोलो तो 
सारे कमरे में हिना की खुशबू 
ख़्वाब और महक की यह जुगलबंदी ...? 

झूठे !
तुम अभी भी ख्वाबों में आते हो न !

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- आनंद  

३-६ अगस्त  २०१२