शुक्रवार, 4 जनवरी 2013

दामिनी के बहाने.... कहाँ हैं हम ?




      आज के भारतीय समाज के लिये न तो स्त्री का शोषण, उनकी स्वतंत्र चेतना का दमन कोई नया विषय है और न ही स्त्रियों द्वारा किया जाने वाला यह विरोध जिसे मैं भारत में नवजागरण के रूप में देखता हूँ । यह एक ऐसी लंबी लड़ाई है जो अब धीरे-धीरे अपने निर्णायक दौर की तरफ बढ़ रही है  और निर्णायक दौर की तरफ बढ़ने का एक संकेत भी अगर मिल सका है तो उसकी बहुत बड़ी वजह है १६ दिसंबर को दिल्ली में हुआ वह भयानक हादसा जो सिर्फ़ बलात्कार या सिर्फ़ नृशंस हत्या भर कह देने से कहीं ज्यादा स्त्री की  अस्मिता पर अब तक का बीभत्सतम हमला है । बहुत से लोगों का यह तर्क कि जो किसी हद तक वाज़िब भी लगता है कि देश के विभिन्न हिस्सों में हो रही ऐसी अनगिनत घटनाओं पर लोग चुप रहते है फिर दिल्ली की इस घटना पर इतना बवाल क्यों । पर मैं इस तर्क को खारिज़ करता हूँ  क्यों उसके कई पहलू हैं मेरी नज़र में यह एक सुनियोजित आन्दोलन नहीं था जिसमें साजिशन किसी और प्रताड़ित की अनदेखी करके दिल्ली कांड को ज्यादा हाइलाइट किया गया हो यह एक स्वतःस्फूर्त आन्दोलन है और इस घटना की विभीषिका ने ही अन्य इसी तरह की देशव्यापी घटनाओं से पीड़ित और बेहद क्षुब्ध आमजन को पलक झपकते ही सड़क पर लाकर खड़ा कर दिया । मेरा यह निश्चित मत है कि मौजूदा जनआन्दोलन केवल दामिनी के साथ हुई बर्बरता का ही परिणाम नहीं है बल्कि अनगिनत ऐसी ही चोटों का प्रतिकार है जो महिलायें सारे देश में सदियों से झेलती आ रही है और आज भी झेल रही हैं ।
    सभ्यता की यह जंग जितनी लंबी है उसे उतनी ही सूझबूझ और धैर्य के साथ लड़ने की जरूरत की माँग करती है, और जो भी खुद को इस जंग का सिपाही मानते हैं, यह जरूरी है कि वो पहले खुद का आत्मावलोकन करलें क्योंकि एक तैयार सिपाही ही किसी जंग की जीत का कारक बन सकता है । दामिनी के बलिदान (बेशक वह एक बलि हो मगर जिस अर्थों में उसने वर्तमान दौर को प्रभावित किया है उसे बलिदान कहना ज्यादा प्रासंगिक होगा) ने हमें उस जगह लाकर खड़ा कर दिया है जहाँ से समाज अब नारी की स्थिति के प्रश्न को बहुत दिन तक टाल नहीं सकता। और जैसा कि मैंने पहले ही कहा जो लोग इस बदलाव के वाहक हैं या बनना चाहते हैं उन्हें यह शुरूआत सबसे पहले खुद से और खुद के आसपास मतलब परिवार और परिवेश से ही करनी पड़ेगी, बिना इकाई के बदले राष्ट्र को बदलना नामुमकिन है, विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका पर स्वतः दबाव आ जायेगा अथवा उसकी जरूरत ही नहीं पड़ेगी जब आमजीवन में महिला को परुष की बराबरी का हक़ मिल जाएगा।  अनेक अवसरों पर हम देखते हैं कि पित्रसत्तात्मक व्यवस्था ने महिलाओं पर शोषण और टोकाटोकी में भी बड़ी ही चतुरता के साथ महिलाओं को ही आगे रखा है, जो लोग यह तर्क देते हैं कि सास, ननद, भाभी और कभी कभी माँ के रूप में महिलायें ही महिलाओं के ज्यादा आड़े आती है  वे वो  लोग हैं जो जानबूझकर समस्या को पूरी तरह से नहीं देखना चाह रहे उनके लिए यही वातावरण मुफीद है, हजारों साल से स्त्री की मानसिकता को बहुत चालाकी से एक विशेष ढर्रे पर ढाला गया है उनके चारों और एक असुरक्षा का वातावरण और हौव्वा खड़ा किया गया फिर सुरक्षा के नाम पर उनपर अनेकानेक बंदिशें और शोषण। पित्रसत्तात्मक व्यवस्था की इस साजिश को बहुत बारीकी से देखे बिना आगे का कोई भी कदम हमें आमूलचूल परवर्तन से दूर ही ले जायेगा ।
 शुरू भी हमें खुद से ही करना होगा  कोई फर्क नही है की आप महिला हैं या पुरुष हैं समाज किसी एक से नहीं बनता और मैं बड़ी विनम्रता के साथ इस बात से अपनी असहमति जाहिर करता हूँ कि यह केवल स्त्रियों की लडाई है यह लडाई तो मनुष्य होने के औचित्य की है मानवाधिकार की है यह उन पुरषों की भी उतनी ही है (जो समानता में भरोसा रखते हैं मनुष्यता में भरोसा रहते हैं) जितनी महिलाओं की है (कृपया मेरी इस बात को महिला आन्दोलन को हथियाने की एक पुरुष चाल न समझा जाए)।
      प्रायः देखने में यह आता है की जब हम समूह में होते हैं जैसे की आजकल हैं तो हमारा विरोध हमारा प्रतिरोध मुखर हो जाता है मगर जब हम अकेले होते हैं तो हम प्रतिकार की बात भूल ही जाते हैं और वहीँ पर हम शोषण को पनपने में अप्रत्यक्ष रूप से साझीदार हो जाते हैं, मदद करते हैं  तो सबसे पहली शर्त तो यही है की हमें ईमानदार होना होगा, और इस जंग को भी अभी तक छद्म नारी वादियों से ही सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है और आगे भी उन्ही से होगा, क्योंकि ऐसे लोग बड़े अच्छे नारेबाज़ होते हैं मगर अवसर पाते ही या बहुमत में होते ही स्त्री अस्मिता पर चोट करने से नहीं चूकते घरों में सार्वजनिक परिवहन में अन्य स्थानों पर स्त्री के साथ दुर्व्यवहार को काफी कम किया जा सकता है यदि हम अपना स्वार्थी संत स्वाभाव बदल लें । मैंने कई अवसरों पर ऐसा देखा है कि कोई भी लम्पट किसी भी महिला को छेड़ने से पहले एक बार आसपास जरूर देखता है, आप समझ भी जाते हैं कि वह क्या करने वाला है मगर भले बनकर कायरों की तरह मुह दूसरी तरफ घुमा लेते हैं .... बस ऐसा करके ही आप उसका हौसला अफजाई कर देते हैं, अगर आप वहीँ विरोध करने तो तत्पर हैं तो आपकी नज़र आपकी बाडी लैंग्वेज देखकर ही 50 प्रतिशत लम्पट अपना इरादा त्याग देते हैं जो पेशेवर अपराधी हैं उनकी बात अलग है, उनके लिए आप पुलिस या उपस्थित अन्य लोगों की मदद ले सकते हैं । 

     मैं ऐसे अपराधों के लिए बहुत से अन्य कारणों में से जो दो सबसे प्रमुख कारण मानता हूँ उनमे से पहला है कि हम अपने परिवार के किसी सदस्य के साथ यदि कोई अनुचित व्यव्हार हुआ है तो उसे दबाने को तत्पर रहते हैं और आजतक हमारी इसी प्रवत्ति का फायदा सबसे ज्यादा अपराधी तत्वों, आदमखोरों, छद्मरिश्तेदारों,कानून के रखवालों और राज्य ने उठाया है, हम जब तक इस तरह की बातों को चरित्र से जोड़ते रहेंगे हम स्त्री को कैसे सँभलने का मौका देंगे हम कब यह बात समझेंगे कि दुर्घटनाओं का चरित्र से कोई लेना देना नहीं है .... दूसरा कारण है यौन शिक्षा का नितांत अभाव अरे सेक्स मानव जीवन के लिए उतना ही महत्वपूर्ण है जितना रहने के लिए मकान या रोटी के लिए धंधा या नौकरी  मकान और नौकरी की तैयारी के लिए तो हम बच्चे को दो साल का भी नहीं होने देते और उसपर किताबों का बोझ लाद  देते हैं, मगर सेक्स की बात को जितना छुपा सकते हैं छुपाते हैं बचा सकते हैं बचते हैं , जितना बच्चे को उससे दूर रख सकते हैं रखते हैं इसके लिए हम क्या शब्द प्रयोग करते हैं "गंदी बात" या गलत बात" और परिणाम यह होता है की हम अपने बच्चे के मन में सेक्स को लेकर या तो एक गलत धारणा डालते हैं या एक प्रकार की फैंटेसी । यहाँ केवल इतनी सावधानी बरतनी चाहिए की जब हम बच्चे को सेक्स की शिक्षा दें तो विषय और पाठ्यक्रम का चयन करते समय विशेषज्ञ जो बालमन और किशोर मन के जानने वाले हों वो पेशवर उसे डिजायन करें ताकि बच्चा सहजता से ही वह सब सीख जाए जो उसे जानना जरूरी है स्त्री पुरुष संबंधो और सेक्स के बारे में ।  
एक पहलू जिस पर और ध्यान देने की जरूरत है जिसे मैं पहले भी कह चुका हूँ कि बलात्कृत अथवा भुक्तभोगी के साथ हुई घटना को उसके चरित्र से जोड़ देने का न केवल खुलकर विरोध करें बल्कि इसे महिला के प्रति एक साजिश समझें  एक ऐसी साजिश जिसमें एक अपराध को पीड़ित के शरीर के साथ  साथ उसकी आत्मा में भी रोपित किया जाता है जिस से फिर पीड़िता का उबरना लगभग नामुमकिन ही हो जाता है यह घृणित है इस मानसिकता पर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है और ऐसी पीड़ित महिला को तत्काल काउंसलिंग देनी चाहिए भले उसे लग रहा हो कि उसे उसकी जरूरत नहीं है और यदि कोई पेशेवर इस काम के लिए न हो तो स्थानीय स्तर पर ऐसी महिलाओं को चिन्हित किया जाए जो न केवल  दबी जुबान से होने वाले खुसुर-पुसुर के खिलाफ खुलकर बोलें बल्कि पीड़ित में एक बार फिर से साहस और जीवन का संचार कर सकें और सौभाग्य से आज हमारे आसपास ऐसी महिलाओं की कमी नहीं है और दिन पर दिन ऐसी साहसी महिलाओं की संख्या बढती ही जा रही है जो चेतना से लबरेज़ है यही एक बात इस सारे परिदृश्य में सबसे अधिक आशावान भी है !
अंत में अपने पुरुष साथियों से अपील करती हुई अपनी बहुत पुरानी कविता का एक हिस्सा :

"अगर सच में हमें कुछ करना है
तो क्यूँ न  हम यह करें ...कि
दाता होने का ढोंग छोड़ कर
उनसे कुछ लेने कि कोशिश करें
मन से उनको नेतृत्त्व सौप दें
कर लेने दें उन्हें अपने हिसाब से
अपनी दुनिया का निर्माण
तय कर लेने दें उन्हें अपने कायदे
छू लेने दें उन्हें आसमान
और हम उनके सहयात्री भर रहें ...
दोस्तों !
आइये ईमानदारी से इस विषय में सोचें !"

- आनंद