सोमवार, 9 अप्रैल 2012

ऐसे ही नहीं आग लगाते रहे हैं लोग




ऐसे ही नहीं  आग  लगाते रहे  हैं लोग, 
जलने का सलीका भी सिखाते रहे हैं लोग 

थोड़ी बहुत तो मेरी फिकर भी रही उन्हें
अपने तमाम फ़र्ज़ निभाते रहे  हैं लोग 

क्या कीजिये जो कोई दुआ काम न करे,
मेरे  लिए  तो  हाथ  उठाते रहे  हैं लोग

मैं चल न पडूँ उनकी तरफ, डर था उन्हें भी,
क़दमों के निशाँ तक को, मिटाते रहे हैं लोग 

चलना फ़ना की राह तो फिर ये हिसाब क्या
किस किस तरह से मुझको सताते रहे हैं लोग 

'आनंद' कहाँ खो गया  जिससे  भी  पूछिए
दिल्ली कि तरफ हाथ उठाते  रहे हैं लोग

आनंद 
९ अप्रेल २०१२.