शुक्रवार, 23 अगस्त 2013

बोल देना सच, जहाँ खतरा रहा है

बोल देना सच, जहाँ खतरा रहा है जान को
हम वहीं ले जा रहे हैं आधुनिक इंसान को

दौड़ में आगे निकलने की अजब जद्दोज़हद
दाँव पर रखने लगे हैं बेहिचक सम्मान को

वो ज़माने और थे, जब आदमी की क़द्र थी
बोझ है रख दीजिये अब ताक़ पर ईमान को

कुछ नहीं जोड़ा बुढ़ापे के लिए हमने कभी
बेवजह का दोष क्यों दें हम भला संतान को

रौनकें बिखरी पड़ी हैं हर तरफ बाज़ार में
छटपटा फिर भी रहे हैं लोग इक मुस्कान को

जो सड़क को पार करता है डरा सहमा बहुत
है वही जिसने बचाया  गाँव की पहचान को

माँ नहीं कहती कभी परदेश जाने के लिए
सौंप आती है उन्हें औलाद ही भगवान को

एक कमरा दर्द का है एक में मजबूरियाँ
सोचिये 'आनंद' रखेगा कहाँ मेहमान को

 - आनंद