गुरुवार, 24 नवंबर 2011

रंग दे ..छलिया !

अब ... जब तक हमारे बीच से शब्द एकदम ख़तम नहीं हो जाते..... ये "तू तू मैं मैं" तो चलती ही रहेगी यही सोंच कर आज से इस सीरीज की शुरुआत कर रहा हूँ ....केवल अपने लिए है यह ..अगर इस जन्म में पा लिया उन्हें तो कोई और पढ़ेगा ये मीठी यादें ..और अभी कई और जन्म लेने पड़े तो मैं फिर लौट कर आऊंगा और पढूंगा इन सब कवितों को एक बार फिर .......

रंग दे ..छलिया !

जैसा
तेरा नाम है न
वैसा ही
तेरा रंग !
और जब तू पीला-पीला
पीताम्बर पहनता है ना
बाई गाड
दूर से ही चमकता है |
यार तुझे भी ना
जरा भी ड्रेस सेन्स  नहीं है ...
ऊपर से ये
'बरसाने वाली'...
ध्यान ही नहीं रखती
किसी बात का !!

सर्दियाँ आ गयी हैं
अब तू
थोडा टाइम दे
तो
सीख लूं मैं
स्वेटर बुनना
अपनी पसंद के सारे रंग
बुन दूं मैं
तेरे लिए
तू पहनेगा ना ..
मेरा बुना हुआ झगोला ..?

अरे सुन !
तुझे वो गाना आता है क्या ..
'रंगरेज़ा.. .रंगरेज़ा'  वाला
बजा रे... बजा ना एक बार
देखूं  बांसुरी पर ..
कैसा लगता है
रंगरेज़ा रंग मेरा तन मेरा मन 
ले ले रंगाई चाहे तन चाहे मन ......

रंग दे छलिया
क्यों तड़पाता है अब  !!

२४-११-२०११