रविवार, 30 अप्रैल 2017

(ना)उम्मीदें

फिर से ज़ख़्म उभारोगे क्या
अपना भी कुछ हारोगे क्या

मरने से पहले कुछ जी लूँ
तुम भर आँख निहारोगे क्या

किया धरा सब इन नज़रों का 
कुछ ग़लती स्विकरोगे क्या 

ऐसे धड़कन ना रुक जाये
जिद्दी लटें, सँवारोगे क्या

मंथर शांत नदी है इस पल
अपनी नाव उतारोगे क्या

जनम जनम की बातें छोड़ो
कुछ पल साथ गुजारोगे क्या

वहशत के डर से तुम मुझको
चौखट से  ही  टारोगे क्या

बंजारा है प्रेम जगत में
थोड़े वक़्त सँभारोगे क्या

दुनिया मुझको पागल समझे
तुम भी पत्थर मारोगे क्या

जब 'आनंद' चला जायेगा
उसको कभी पुकारोगे क्या

- आनंद

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