रविवार, 6 जुलाई 2014

कुछ मुझमे भी हुनर नहीं था ...

कुछ मुझमें भी हुनर नहीं था कुछ उसपर इख्तयार नहीं
कुछ तो सब्र नहीं था मुझको कुछ उसको भी प्यार नहीं 

अंदर दालानों में आकर रुके मुसाफ़िर क्या समझें 
ये दिल की बारादरियां हैं पत्थर की दीवार नहीं 

कान तरसते हैं जीवन भर जाने किन आवाज़ों को  
किस को देखे बिन ये आँखें मुंदने  को तैयार नहीं 

ज़ुल्म रोक लेता है जब तक, गुस्सा जब तक आता है 
तब तक समझो हम इन्सां हैं अभी हुए बाज़ार नहीं 

खुद से बंधी हुई है हर शै,  सब के सर पर गठरी है 
अंदर खाने लाचारी है, बाहर कुछ स्वीकार नहीं 

जो कुछ मिला शुक्र है मौला, अब औरों पर रहमत कर 
कुछ हम भी मसरूफ़ इधर हैं कुछ दिल भी तैयार नहीं 

खुद को हर पल खोता जीवन, बढ़ता मंज़िल पाने को  
मिल जाना 'आनंद' डगर में, मुश्किल है दुश्वार नहीं 

- आनंद 

4 टिप्‍पणियां:

  1. वाह ! सुभानअल्लाह...बहुत प्रभावशाली लेखन..

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  2. आपकी कविताओं पे कभी कॉमेंट करने के लिये शब्द नहीं ढूंढ पाता हूँ...इतनी खूबसूरती लाजवाब कर जाती है :)

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