इंतज़ार मत कर सूरज का
खुद ही जलने की कोशिश कर
गिरने पर शर्मिंदा मत हो
सिर्फ सँभलने की कोशिश कर
ये हैं हमारे समय के शायर 'अमर नदीम' साहब और मैं रूबरू हूँ इस वक़्त उनके हाल ही में 'दख़ल प्रकाशन' से प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह "मैं ना कहता था" से ।
संग्रह की भूमिका लिखते हुए 'आशुतोष कुमार' जी कहते हैं और क्या खूब कहते हैं कि ; "अमर नदीम की ये गज़लें हमारे अपने समय और राजनीति का ऐसा शफ्फाक़ आईना हैं जिसमें हम आज की उदासी और पस्तहिम्मती की तस्वीर भी देख सकते हैं तो कल की उम्मीदों के कोलाज़ भी। यह उर्दू के रूमान और हिंदी के यथार्थवाद से मिलकर बना दोआब है जिसमें इंक़लाब और मनुष्य की बेहतरी का ख्वाब झिलमिलाता है।"
जब वो जिंदगी को कह रहे होते हैं तो उसका फ़लसफ़ा कुछ इस तरह से कहते हैं ;
मैं बतलाऊँ कैसा बन जा
बिलकुल अपने जैसा बन जा
सर्दी में सूरज बन कर जल
जेठ तपे तो साया बन जा
समझदार बनकर क्या होगा
चल 'नदीम' फिर बच्चा बन जा
या फिर
जो कुछ भी करना है कर ले
इसी जनम में जी ले मर ले
वेद-कुरानों के बदले में
गिनती के 'ढाई आखर' ले
जब वो रूढ़ियों पर चोट करते हैं तो एकदम निष्पक्ष खड़े साफ़ दीखते हैं वो जितनी साफ़गोई से धार्मिक आडम्बर पर चोट करते हैं मसलन ;
ये शंकर के मुरीदों की क़तारें काँवरों वाली
कभी रोटी की खातिर भी तो सड़कों पर उतर आयें
उतनी ही शिद्दत से आज के वामपंथ से लाभ लेने वालों पर भी चोट करते हैं ;
शर्ट पहन चे गुएवरा की
उसका सपना राम हवाले
जब भी सुख से मन उकताए
गीत सर्वहारा के गाले
कमरे में ए.सी. के ऊपर
लेनिन की तस्वीर सजा ले
पतिवर्तन होगा तब होगा
इस सिस्टम में जगह बना ले
इसी तरह जब वो व्यवस्था पर चोट करते हैं तो केवल राजनैतक व्यवस्था पर ही चोट नहीं करते हैं वरन उसी समय वो हमारी सोच पर भी चोट कर रहे होते हैं ;
कभी हिंदुत्व पर संकट कभी इस्लाम खतरे में
ये लगता है कि जैसे हैं सभी अक़वाम ख़तरे में
उधर फ़तवा कि खेलें सानिया सलवार में टेनिस
ज़मीनों के लिए हैं, इस तरफ़ श्रीराम ख़तरे में
या फिर
हों ऋचायें वेद की या आयतें क़ुरआन की
खो गयी इन जंगलों में अस्मिता इंसान की
कैसी तन्हाई मेरे घर महफ़िलें सजती हैं रोज़
सूर, तुलसी, मीर, ग़ालिब-जायसी रसखान की
कितने होटल, मॉल, मल्टीप्लैक्स उग आये यहाँ
कल तलक हँसती थी इन खेतों में फ़सलें धान की
या फिर
बेटी की शादी का ऐसे कर्ज़ चुकाया छोटू ने
सोनू पिंकी दोनों का इस्कूल छुड़ाया छोटू ने
पिंकी अब दो चार घरों में बर्तन मलने जाती है
सोनू को भी किसी फैक्ट्री में लगवाया छोटू ने
घरवाली थी अस्पताल में घर पर थे भूखे बच्चे
बस पूछो मत कैसे कैसे काम चलाया छोटू ने
जब वो अवाम से मुख़ातिब होते हैं तो उसी समय वो खुद से भी मुखातिब होते हैं
कब तलक चाँद सितारों को निहारा जाये
कुछ समय गलियों मुहल्लों में गुज़ारा जाये
ना तो अवतार न आएगा मसीहा कोई
चलिए खुद अपने मुकद्दर को सँवारा जाये
इन खुदाओं की खुदाई का ज़माना गुज़रा
खींचकर अब इन्हें सड़कों पे उतारा जाये
और नदीम साहब जब प्रेम को कहते हैं तो लगता है तत्व को कह रहे हैं उनके अशआर नहीं प्रेम का पूरा फलसफ़ा हैं ;
जीवन भर पछताये कौन
ऐसी लगन लगाए कौन
उस नगरी में सारे सुख
उस नगरी में जाए कौन
मन ही मन का बैरी है
और भला भरमाये कौन
एक झलक ये भी कि …
सारे रिश्तों की हक़ीक़त न परखने लगना
कुछ भरम जीने की खातिर भी बचाये रखना
उसके आने का भरोसा तो नहीं फिर भी 'नदीम'
एक दिया आस का देहरी पे जलाये रखना
नदीम साहब और उनकी चुनी हुई 52 गजलों के इस छोटे से दीवान से होकर गुजरना अपने आप में एक पूरे ज़माने से होकर गुजरना है।
ग़ज़ल चाहने वालीं के लिए अमर नदीम का यह दीवान एक नायाब संग्रह है जिसकी कीमत है 75 रूपये इसे मंगवाने के लिए dakhalprakashan@gmail.com पर मेल कर सकते हैं या फिर फेसबुक पर भाई अशोक कुमार पाण्डेय से संपर्क कर सकते हैं।
-सुंदर रचना...
जवाब देंहटाएंआपने लिखा....
मैंने भी पढ़ा...
हमारा प्रयास हैं कि इसे सभी पढ़ें...
इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना...
दिनांक 17/04/ 2014 की
नयी पुरानी हलचल [हिंदी ब्लौग का एकमंच] पर कुछ पंखतियों के साथ लिंक की जा रही है...
आप भी आना...औरों को बतलाना...हलचल में और भी बहुत कुछ है...
हलचल में सभी का स्वागत है...
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन भंडारा - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंक्लिष्ट शब्दों के प्रयोग के बिना अपनी बात को गहराई से कह देना एक अद्भुत कला है...नदीम जी ने अपना कायल बना दिया...सुन्दर चर्चा के लिए आपको साधुवाद...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर पुस्तक समीक्षा। .
जवाब देंहटाएंअमर नदीम जी को हार्दिक बधाई
प्रस्तुति हेतु आपका धन्यवाद !
खूबसूरत समीक्षा
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