शुक्रवार, 29 नवंबर 2013

बिन कहे

तुम हमेशा कहते हो
"बातें तो कोई तुमसे ले ले'
शब्द बुनना तुम्हारा काम है"
पर तुम्हीं देखो
शब्द कितने विवश हैं,
बिन कहे ही लुटाया तुमने
मुझ पर हर रंग,
बिन कहे ही दिन रात धोया मैंने
आँसुओं से तुम्हारी मूर्ति,
बिन कहे ही  चुपचाप करता हूँ
अपने हर सपने का श्रृंगार,
जब जब बिना कहे तुम तोड़ देते हो
एक बारीक धागा ...
मैं रात रात कातता हूँ सूत
और बिना कुछ कहे
बना लेता हूँ एक झोली
अल सुबह बिना कुछ कहे
फैला देता हूँ तुम्हारे सामने
बिन कहे तुम बरसा देते हो उसमें
प्यार या तिरस्कार...
स्वयं की इच्छानुसार,

मेरे अन्दर एक भागीरथ है
बिन कहे ही वो ले आएगा
एक दिन ...तुमको
जन्मों से बंजर
मेरे वज़ूद  की पथरीली ज़मीन पर

मगर सुनो !
क्या तुम नहीं समझ सकते
एक बात  बिन कहे
कि
तुम्हारे बिना
न मेरा कोई अस्तित्व है
न कोई जीवन !

- आनंद





4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (30-11-2013) "सहमा-सहमा हर इक चेहरा" “चर्चामंच : चर्चा अंक - 1447” पर होगी.
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है.
    सादर...!

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