मंगलवार, 5 अप्रैल 2011

नया ब्लेड




कल देखा है तुम्हें बहुत गौर से
मैने अपनी कविता में
तुम खड़े थे
तुम हंस रहे थे 
तुम मुस्करा रहे थे
तुम कुछ कह रहे थे शायद
मैं केवल सुन रहा था और सोंचे जा रहा था कि
जज्बात तो हैं ....संभालना इन्हें.....खेलना मत
बढ़ते जाना
पैरों के नीचे मत देखना कभी भी
वहां रूकावट होती है ....पैरों के पास
किसी के कुचले जाने का डर भी
दर्द की चादर ओढ़े रहना
दर्द को जीना नही
चादर उतारने में ज्यादा सहूलियत होती है.
जीवन बदलने की बनिस्बत!

फिर बाद में जब  तुमने ठुकराया न 
मुझे... 
तभी अचानक मुझे भी 
समझ में आगया था 
कि विद्वान लोग 'अटैचमेंट ' को 
इतना बुरा क्यूँ कहते हैं
पहली बार  दर्द से जीत गया मैं 
थैंक्स अ लाट आपको
मुझे जरा  भी दर्द नहीं  हुआ 
जैसे एकदम नया ब्लेड निगल लिया हो 
बड़ी सफाई  से अन्दर तक  काटा है
बिना कोई दर्द दिए 
ये कला भी सब के पास कहाँ होती है 
पर एक बात है
मैं भी बहुत ढीठ आदमी हूँ.
देखना फिर पडूंगा अटैचमेंट के चक्कर में
मैंने कब कहा कि...
मैंने  प्यार करना छोड़ दिया है
मैंने कोई चादर थोड़े ओढ़ी थी
जो उतार दूँ
तुम एक  नया ब्लेड लेकर रख लो
मैं जल्दी ही फिर आऊंगा !

      --आनंद द्विवेदी ०६/०४/२०११

मुझे 'आनंद' होना था...




मुझे होशियार लोगों  को कभी ढोना नहीं आया
मुझे उनकी तरह बेशर्म भी होना नहीं आया 

मैं यूँ ही घूमता था नाज़ से, उसकी मोहब्बत पर 
मेरे हिस्से में उसके दिल का इक कोना नहीं आया 

अगर सुनते न वो हालात मेरे,  कितना अच्छा था
ज़माने भर का गम था, पर उन्हें  रोना नहीं आया 

ज़माने   को बहुत ऐतराज़,  है मेरे उसूलों पर
वो  जैसा चाहता है, मुझसे वो होना नहीं आया

नहीं हासिल हुई रौनक, तो उसकी कुछ वजह ये है 
बहुत पाने की चाहत थी मगर  खोना नहीं आया  

मैं अक्सर खिलखिलाता हूँ, मगर ये रंज अब भी है
मुझे  'आनंद' होना था ...मगर होना  नहीं  आया  |

             -आनंद द्विवेदी ०६/०४/२०११