रविवार, 24 दिसंबर 2017

दिसंबर के ख़्वाब...

(१)

हमें एक सीढ़ी बनानी थी
छत पर धूप में पड़े ख़्वाबों तक पहुँचने और उन्हें सूर्यास्त से पहले ही उतार लेने के लिए,
अम्मा बाबू जी को खत में लिखा करती थीं ये बात.. कि
दिसम्बर के दिनों अगर ख़्वाबों की देखभाल ठीक हो जाये तो बसंत आने पर खिलते हैं उनमें
मनभावन फूल,
मैं अकेले बाँस तो हो सकता था किंतु सीढ़ी नहीं
हमारे भावों की एक सीढ़ी
घर की छत तक तभी पहुँच पायी
जब तुम्हारा समर्पण लग गया उसमें डंडों की तरह,
किसी का ऊपर चढ़ना या नीचे उतरना
हो सकता है एकांतिक यात्रा
किंतु
सीढियाँ हमेशा प्रतीक हैं साथ की सहचर की !

मेरी सहचरी !
तुम्हें बसंत ऋतु की हार्दिक शुभकामनाएँ !

(२)

दिसंबर के किसी ख़्वाब में घुसती हुई
नवंबर की याद और जनवरी की कल्पना को... अब
डपट देता हूँ मैं
पूस माघ वाले समय में ऐसा नहीं कर पाता मैं
तब उतरते अगहन में फागुन की कल्पना और तैयारी
दोनों सहज स्वीकार्य थीं
अंग्रेजों के आदर्श जीवन ने तो हमारे फागुन से भी फगुनहट छीन ली,
इस दिसंबर मैंने भी कोई ग्लोबल सपना नहीं देखा
न धरती को सुंदर बनाने का
न ही सुख और समृद्धि का
बस खोया रहा तुम्हारी कजरारी आँखों की शर्मीली मुस्कान में
सुना है इस बार फागुन और बसंत ने हाथ मिला लिया है
मार्च की बजट समीक्षाओं के खिलाफ़,

सुनो
इस बार फागुन का हर रंग जी लेना
और जी लेना इस साल की बसंत बहार !

© आनंद

शनिवार, 16 दिसंबर 2017

सुहानी राह है हम हैं

सुहानी राह है, हम हैं, सफर है
यहाँ से ज़िंदगी हद्दे नज़र है

मुहब्बत नाम की एक शै मिली है
मगर वो इस जहाँ से बेख़बर है

महकते गेसुओं ने ख़त लिखा है
मुसाफिर, अब ये दूरी मुख़्तसर है

ये मस्ती चाल की ये लड़खड़ाहट
ये मयख़ाना नहीं उसकी नज़र है

हमारे ग़म, हमीं को बेंच देगा
यही बाज़ार का असली हुनर है

कबीरों की न अब कोई सुनेगा
सियासत का बड़ा गहरा असर है

कहीं आनंद मिलता हो तो ले लें
ये बस्ती तो प्रदूषण है ज़हर है ।

© आनंद

सोमवार, 6 नवंबर 2017

ये समझिये

हजारों रंग की मेरी कहानी, ये समझिये
पलों में ख़ार पल में गुल्फ़िशानी ये समझिये

शरारत ये बड़ी मासूम की है ख़ुशबुओं ने
रग़ों में बह चली है रातरानी ये समझिये

पड़ेगा वक़्त तो ये रतजगे सच बोल देंगे
हुए हैं ख़्वाब कैसे जाफ़रानी ये समझिये

बहारें भी यहाँ महफूज़ रहना जानती हैं
हुए हैं रंग सारे हुक्मरानी ये समझिये

जहाँ बच्चे लगाकर मास्क साँसे ले रहे हैं
हमारे देश की है राजधानी ये समझिये

अभी मैं डर रहा हूँ हर कदम राहों में तेरी
अभी सब याद हैं बातें पुरानी ये समझिये

कभी दो चार दिन आनंद के भी संग रहिये
कठिन संग्राम सी है जिंदगानी ये समझिये

© आनंद

रविवार, 29 अक्तूबर 2017

इश्क़ की राह

मेरी ज़िद
तुम्हारे झुमके में फँसा
चुनरी का वो हिस्सा है
जिसे तुम बड़े एहतियात से छुड़ाती हो,
उस घड़ी
खीझ और धैर्य का 'प्रयाग' होता है
तुम्हारा चेहरा

तुम्हारा उलाहना
मेरी कलम का खो गया वो कैप है
जिसके बिना
खतरे में है उसका अस्तित्व
कितना भी अच्छा लिखने के बावजूद,
उस घड़ी
इश्क़ की इबारत होता है
तुम्हारा उलाहना

मेरी जिद और तुम्हारे उलाहने
दोनों से
दो कोस और रह जाता है इश्क़
जब कभी खुले बाल लेकर तुम तय करती हो
ये दो कोस की दूरी
चंपा के फूल सी महक़ उठती हैं
इश्क़ की गलियाँ !
और दुआओं सा झरता है प्यार
हमारे जीवन की देहरी पर !!

ऐ सुनो न..
क्या मैं भी इस जनम में
ये दो कोस चल पाउँगा कभी ?

© आनंद

सोमवार, 16 अक्तूबर 2017

बातें की हैं

अपने बिसरे हुए किरदार से बातें की हैं
मुद्दतों बाद किसी यार से बातें की हैं

जिंदगी, देखिये अब किस गली में मुड़ती है
रात भर उसने बड़े प्यार से बातें की हैं

उसने बोला है, कोई ख़्वाब नहीं मारेगी
मैंने खुद वक़्त की तलवार से बातें की हैं

तभी से काट रहा हूँ चिकोटियाँ खुद को
जब से कल अपने तलबगार से बातें की हैं

आज भी घर तेरी ख़ुश्बू को याद करता है
मैंने जब तब दरो दीवार से बातें की हैं

हाय वो शख़्स भी दिल की जुबान रखता है
जिसने हरदम महज़ अधिकार से बातें की हैं

आप आनंद की बातों पे यकीं करना तो
ये न कहना किसी मयख्वार से बातें की हैं

© आनंद

मंगलवार, 10 अक्तूबर 2017

तड़प उठता हूँ

एक भी शेर सुनाने से तड़प उठता हूँ
अब ये सौगात लुटाने से तड़प उठता हूँ

मेरा हर ज़ख्म किसी यार की निशानी है
एक भी दाग़ मिटाने से तड़प उठता हूँ

तुम किसी चोट पे मरहम लगा के हटती हो
मैं किसी और बहाने से तड़प उठता हूँ

उम्र जिस ख़्वाब की ताबीर बनाते गुजरी
मैं वही ख़्वाब मिटाने से तड़प उठता हूँ

लोग यादों में तड़पते हुए मिल जाते हैं
और मैं याद न आने से तड़प उठता हूँ

एक 'आनंद' ही ले दे के बचा रक्खा था
अब वही दाँव लगाने से तड़प उठता हूँ

© आनंद

शुक्रवार, 6 अक्तूबर 2017

उसी किरदार में अटका हुआ हूँ

दरो दीवार में अटका हुआ हूँ
अभी संसार में अटका हुआ हूँ

किसी ग़ुल ने लुटा दी जिंदगानी
मैं अब तक ख़ार में अटका हुआ हूँ

वो मेरी रूह से सटकर खड़ी है
मैं बस सिंगार में अटका हुआ हूँ

किसी का हाथ अब तक हाथ में है
इसी त्योहार में अटका हुआ हूँ

यहाँ है डूबना ही पार जाना
मगर मँझधार में अटका हुआ हूँ

अधूरी ख्वाहिशों का पीर हूँ मैं
ग़म-ओ-आज़ार में अटका हुआ हूँ

वो करके क़त्ल फिर से म्यान में है
मैं जिसकी धार में अटका हुआ हूँ

मुसलसल फ़क्कड़ी है इश्क़ यारों
मैं लोकाचार में अटका हुआ हूँ

अभी 'आनंद' से मिलना हुआ है
उसी किरदार में अटका हुआ हूँ

© आनंद

गुरुवार, 5 अक्तूबर 2017

होता जा रहा हूँ...

धुन-ए-रुबाब होता जा रहा हूँ
बड़ा नायाब होता जा रहा हूँ

धड़कता हूँ किसी की धडकनों में
किसी का ख़्वाब होता जा रहा हूँ

फितरतन हूँ नहीं बेसब्र फिर भी
इधर बेताब होता जा रहा हूँ

तुम्हारे इश्क़ ने जब से छुआ है
मैं चश्म-ए-आब होता जा रहा हूँ

हुज़ूर-ए-अंजुमन में आ गया हूँ
पर-ए-सुर्खाब होता जा रहा हूँ

न यूँ हसरत से ताको आसमाँ को
मैं माहेताब होता जा रहा हूँ

वो इतनी नाज़ुकी से मिल रहे हैं
मैं खुद आदाब होता जा रहा हूँ

तिरे 'आनंद' की इक बूँद भर हूँ
जो अब सैलाब होता जा रहा हूँ

© आनंद

बुधवार, 27 सितंबर 2017

प्रेम के रंग

सबसे खूबसूरत होता है ये संसार
जब डूबा होता है प्रेम के रंगों में
उदात्त और उत्कृष्ट होता जाता है ,
हर रंग कुछ और निखरता जाता है
जब घुलता है नेह के साथ समर्पण भी.

अधिकार सबसे बड़ा शत्रु है
जो न जाने कब
संवेदनाओं में छुपकर सेंध लगा लेता
दिल की दुनिया में.

अधिकार से उपजी अपेक्षाएँ
अपेक्षाओं से जन्मी नादानियों में
माफ नहीं किये जाते प्रेमी
न ही खुद के और न ही प्रेम के द्वारा

सायास चुप्पियां,
बेवजह की व्यस्तता,
नपा-तुला जवाब..कितना कुछ होता है ऐसा
जो बता देता है कि सफल हुआ शत्रु का वार
प्रेम पर विजयी हुआ अधिकार

नियत है फिर छटपटाहट
ये सजा भी है और सीख भी
कि प्रेम में उतार वाली सीढ़ियों पर
बढ़ाया गया कदम होती है अपेक्षाएँ

सुनो भोलेराम !
प्रेम में लापरवाही से मत चलाना
रंग भरी एक भी कूची
समर्पण को ही रखना सर्वोच्च
भावों के पुष्प चुनने में रखना खास ख़्याल
कि उनके रंग और महक़ से प्रीतम को होती रहे
साफ, ताजी और खुली हवा का अहसास !

© आनंद

शुक्रवार, 22 सितंबर 2017

गालों का गुलाल

एक दिन जब
मुस्कराता हुआ ईश्वर
मेरी रूह पर वैधानिक चेतावनी सा
गोद रहा था ..प्रेम
मैं उसके हाथ से फिसल कर गिरा तुम्हारी मुंडेर पर
जहाँ तुमने धूप में डाल रखे थे अपने सतरंगी सपने
खुश्बुओं के परिंदों के लिए बिखेरे हुए थे
खिलखिलाहटों के दाने
उड़ते हुए दुपट्टे पर तैर रही थी
खुशियों और शैतानियों की जुगलबंदियाँ
तुम्हारी पलकों की गीली कोरों पर फँसी एक नन्ही बूँद
मेरी राह में आकर बोली
ऐ मुसाफ़िर... मैं ही हूँ तुम्हारी मंजिल
और आहिस्ता आहिस्ता नसों में उतर गया
तुम्हारे सुर्ख़ गालों का सारा ग़ुलाल
फिर एक दिन मैंने देखा
रुमाल में टँके गुलाब के नीचे अपने नाम का पहला अक्षर!

ओ मेरी जिंदगी
ले चल मुझे वहीं, जहाँ तूने कभी बो दिए थे
रेशमी बटुए से निकाल कर अपने अरमान
इससे पहले कि निर्मोही समय
हाथ छुड़ाकर निकलने की कोशिश करे
मुझे लौटानी हैं, किसी की उम्र भर की अमानतें
किताबों के बीच छुपाये गए बेशकीमती अहसास
आँखों मे कुछ चुलबुले ख़्वाब
और ढेर सारी नादानियों और शोखियों से भरी उसकी तमाम तस्वीरें ।

चल जल्दी चल
कि हमें रोपने हैं अभी भरोसे के कई पौधे 
और चहचहाते पंछियों से लेनी हैं
ढेर सारी दुआएँ !!

© आनंद

मंगलवार, 19 सितंबर 2017

नशेड़ी आँखें


इन दिनों
नशेड़ी सपनों का
अड्डा हो गयी हैं
चश्मे के पीछे डरी हुई दुबकी रहने वाली मेरी आँखें,
उम्र
समाज
धर्म और कर्तव्य जैसे
कई नशामुक्ति केंद्रों का चक्कर काटने के बाद
अंततः मैंने रख दिया है इन्हें
तुम्हारी राहों पर
तुम्हारी हर आहट पर झूमने के लिए स्वतंत्र ।

© आनंद

सोमवार, 18 सितंबर 2017

पहला क़दम

याद है वो दिन ?
जब तुम पहली बार आयीं थीं
मेरे दिल की दहलीज पर
जरा सा खोलकर दरवाजे का पल्ला
झाँकी भर थीं
और बाकी बनी रही थीं चौखट के बाहर ही

जितनी अंदर आयीं वो भी प्रेम नहीं..प्रश्न लेकर
जैसे पहचानने की कोशिश कर रही हो
कि क्या यही है वो दर
जहाँ मुझे हमेशा से होना चाहिए था?
जैसे पूछना चाह रही हो
कि क्या यही है वो शख्स
जिसे बरसों पहले से मेरा होना चाहिए था?

संयोग था या नियति
या फिर मिल गया था
आसरा तुम्हारे सवालों को,
ठिकाना तुम्हारी तलाश को

न जाने कैसे और कब
चौखट से बाहर ठहरे तुम्हारे हिस्से ने
तुमसे ही बगावत कर दी
जिसमें शामिल था तुम्हारा दिल भी
और बढ़ा दिया था तुमने अपना पहला कदम
मेरे मन के वीरान आँगन में

अब जबकि
मेरे सीने के सफेद बाल
मुनादी कर रहे हैं मेरे परिपक्व प्रेम की
तुम कह देती हो अक्सर
'टीनएज हो गए हो तुम बिल्कुल'

सुनो !
मत बोला करो न ऐसे
एकदम लजा जाता हूँ मैं

क्या करूँ मैं
जो अब भी
सूना रहता है मेरा संसार
तुम्हारी पायल के संगीत बिना
खुशियां रहती हैं अधूरी
तुम्हारी मुस्कान के गीत बिना

तुम नहीं होतीं तो सब कुछ रहता है आस-पास ज्यों के त्यों
केवल मैं ही नहीं रह पाता
कहीं भी चैन से !

© आनंद

शनिवार, 16 सितंबर 2017

भूख

सूरज साँझ की मुनादी कर आगे बढ़ गया
घोसलों की ओर उड़ चले पंक्षी
रसोई के धुएँ से लाल हो उठी आँखें लिए
चौखट से बाहर निहारती है एक स्त्री
जिंदगी का बोझ और फावड़ा
बाहर रख देता है पति
चौके में पाटे पर बैठा है अभावग्रस्त प्रेम
होरी और धनिया
अब नहीं बनते किसी कहानी के पात्र

देह
रोग से भरी है
देश तरक्की से
और प्रेम भरा है सूफ़ियाने से
भूख के लिए नहीं है कोई जगह
प्रेम में भी !

© आनंद

शुक्रवार, 15 सितंबर 2017

डगर पनघट की


जो खुशी में खुलकर नाच न सके
दुःख में न बहा सके ज़ार ज़ार आँसू
किसी के कष्ट में
तकलीफ से तड़प न उठे
होगा कोई संत,परमहंस
दुनिया के किस काम का

प्रियतम से नज़रें मिलने के बाद भी
जिसके दिल की गति रहे सामान्य
होठों पर न मचले आह,
न ही नाचे वाह
बेसुध होकर कर न बैठे कुछ का कुछ
होगा कोई विश्वजीत,इंद्रियजीत नरेश
प्रेम के किस काम का

नीर भरी झिलमिलाती आँखों से
एकटक
प्रियतम की तस्वीर को पहरों निहारना
उसे देखकर हँसना, रोना,गाना
ध्यान की कक्षा का पहला पाठ है
और उससे बातें...
मौन से संवाद का प्रवेशद्वार !

प्रेम में नहीं हुआ जा सकता
किस्मत को कोसते हुए
थके कदम लेकर
या कि हानि लाभ का विचार करते हुए
नपे तुले सधे कदम लिए
कोई ज्ञानी ध्यानी बनकर

विवेक और विचार के लिए
सारी दुनिया पड़ी है जान!
अर्थशास्त्र
समाजशास्त्र
और नीतिशास्त्र की,
प्रेम तो एक छलाँग है मीत
जिसने लगा दिया
वही पा सका खुद को
जैसे मैं पा लेता हूँ
तुम्हारी मदिर उन्मीलित आँखों में
अपना सच्चा ठिकाना
अपना अस्तित्व

सुनो !
तुम्हारे होने से
अब जरा भी कठिन नहीं है
डगर पनघट की !

© आनंद

मंगलवार, 12 सितंबर 2017

सुकून


तकली की तरह नाचती जिंदगी में
गट्ठर भर कपास लिए
दूर बैठा है ईश्वर
इधर हलक में अटकी हुई है मेरी जान
ईश्वर और जोर से नचाता है तकली
मेरी नज़र बस धागे पर है
कच्चे सूत सा हमारा प्रेम
अब एक लापरवाह ईश्वर के हाथों में है
पर सुकून ये है कि
ईश्वर और मेरे इस लफड़े में
इस बार
मेरे साथ हो
तुम !

© आनंद

रविवार, 10 सितंबर 2017

इश्क़

वो किसी फ़क़ीर की दुआ सा होता है
ठिठुरन भरी सर्दी में अलाव की आँच सा..
इतना ताक़त से लबरेज़
कि उसी से क़ोकहन अपनी शीरी के लिए काट देता है पहाड़
और मुलायम इतना
कि जैसे हवा में उड़ता हुआ कपास का फूल,

कन्नौज के इत्र की खुशबू सा अहसास लिए
वह
दबे पाँव उतरता है एक एक सीढ़ी
पहले आँखों में एक ख़्वाब की तरह
फिर सारे जिस्म में माँ के दूध की तरह
जाँ में उतरता है वो महबूब का तसव्वुर बनकर
और फिर रूह में वंशी की तान की तरह

देखते ही देखते
बदल जाती है ये समूची दुनिया
इश्क़ मुकम्मल कर देता है इंसान को
वो वह नहीं रह जाता
जो वो पहले था ।

बहुत नर्म मिज़ाज़
सलीकेदार,
राह चलते खुशियाँ बाँटने वाला
ख़ुशबू छलकाता हुआ, बेवजह डबडबाई आँखों वाला,
ऐसा कोई शख्स कभी मिले
तो जान लेना उसे प्रेम में
और करना उसके महबूब के लिए
ढेर सारी दुआएँ !

ये दुआ किसी किसी को नसीब होती है
ये ख़ुशबू एक खास इत्र में ही होती है
जिसे चुनता है ईश्वर स्वयं !

© आनंद

रविवार, 3 सितंबर 2017

मेरे अपने

वाह भाई वाह,
ऐसे कैसे कह दूँ कि कोई नहीं है मेरा
भगवान ने दो हाथ पैर दिए हैं
वो भी सलामत,
एक पूरी दुनिया है
(वो दीगर बात है कि बिना तुम्हारे ये दुनिया बेकार लगे...पर है तो)
रिश्ते नाते हैं
(वो दीगर बात है कि बिना तुम्हारे सारे नाते केवल माँग और पूर्ति के नियम की श्रंखला भर हैं... पर हैं तो)
ख़्वाब हैं
(वो बात दीगर है कि तुम्हें पास से छूकर देखने का पहला ख़्वाब आज तक अधूरा है...पर है तो)
आँखें हैं
(वो बात दीगर है कि आँखें खुशियों के नन्हे जुगुनू समेटने की जगह खारे पानी का बेमतलब झरना भर हैं... पर हैं तो)
आँसुओं से अच्छा याद आया
अपने तो सिर्फ़ आँसू हैं,
उतना ही तुम्हें देखकर छलकते हैं 
जितना न देखकर
राम जाने कैसे रह लेते हैं
ग़म और ख़ुशी दोनों के एक से वफ़ादार
काश मैं इनसे सीख पाता कोई सबक ...

काश आँसुओं से भरी अपनी आँखें
मैं
चूम पाता एक बार !

© आनंद

मंगलवार, 29 अगस्त 2017

अवसाद -2

मैं अपने अँधेरों को घसीटकर प्रकाश में नहीं ले जाना चाहता,
न ही चाहता हूँ अपने तिमिर पर किसी भी प्रकार के उजाले का अवांछित हमला
मैंने नीम अँधेरे में फैलाया है अपना हाथ
किसी साथ के लिये
प्रकाश के लिए नहीं...

मेरे भीरु सपने
घबराते हैं चकाचौंध से
इतना,  कि
जितना घबराता होगा गर्भस्थ भ्रूण
अजन्मी मृत्यु से,
मेरे लिए सुरक्षित आश्रय था तुम्हारा प्रेम
जहाँ मैं साँझ ढले कभी भी रुक सकता था
किंतु एक दिन जब मैं बहुत थका था और हारा भी
उस दिन शाम ढली ही नहीं
तुम ने चुन लिया था प्रकाश को
निरापद,
आश्रित प्रेम किसे भाता भला

प्रकाश एक कर्म है
सूरज का उदय- अस्त होना
चंद्रमा का भी,
दीप जलाना अथवा कोई और जतन करना उजाले की
सबका सब है एक यत्न एक दौड़,
और अँधेरा... वो तो है... बस है
सायास प्रकाश है
अनायास अँधेरा है,
तुम्हारे प्रकाश वरण के बाद...
एक दिन मैंने भी मना कर दिया और दौड़ने से
अब मैं
अँधेरे के खिलाफ़ 
दुनिया के किसी भी षड़यंत्र का हिस्सा नहीं हूँ
और मेरी दुनिया में नही है
प्रकाश का कोई भी हिस्सा ।

© आनंद

अवसाद

अवसाद
――――
मुस्कराती तस्वीरों के पीछे छिपी
गहन पीड़ा सा मैं
बार बार खटखटाता हूँ
किसी अदृश्य मृत्यु का द्वार
निष्फल प्रयत्नों का लेखा जोखा इकट्ठा कर रहा है जीवन,
दुनिया तंज़ करती है ...'बस्स' ?
मेरे मुँह से निकलती है बस एक 'आआह्'...

अब दुनिया शिकारी है 
जीवन एक जंगल
जहाँ केवल ताकतवर को ही होती है
जीने की अनुमति,
मृत्यु अब मीडिया की तरह है
शिकारी शिकार करते हुए करेगा
मनोरंजन के अधिकार का उपयोग !
जंगल में मृत्यु केवल एक 'क्षण' है
घटना नहीं,
जंगल में नहीं मिलते किसी क्षण के पाँवों के निशान।

ऐसे में
केवल 'तुम' मुझे बचा सकती हो
पर तुम
कहीं नही हो !

© आनंद

मंगलवार, 15 अगस्त 2017

देखेंगे

कुछ दिन बिना सहारे चलकर देखेंगे
खुद को थोड़ा और बदल कर देखेंगे

तुम को तो आता है मुझे सिखा दो ना
हम भी दुनिया भेष बदल कर देखेंगे

सपनों के हत्यारे निर्मम जीवन को
अपने सारे ख़्वाब कुचल कर देखेंगे

सीखेंगे ये हुनर तुम्ही से सीखेंगे
आग लगाकर साफ निकल कर देखेंगे

दर्द बहुत है लेकिन यही तमाशा हम
पंजों के बल उछल उछल कर देखेंगे

हमने भी 'आनंद' गँवाया, तुमने भी
अब क्या होगा खाक़ संभल कर देखेंगे

साँसों के रुकने तक चलना पड़ता है
हम भी सारे छल-बल करके देखेंगे

© आनंद




रविवार, 25 जून 2017

थोड़ी दूर अकेले चलने की सोचें

थोड़ी दूर अकेले चलने की सोचें
आख़िर क्यों साँचे में ढलने की सोचें

सब अपनी अपनी राहों से जाएँगे
हम क्यों तेरी राह बदलने की सोचें

जितने गहरे जाना था हम डूब चुके
अब कोई तरकीब निकलने की सोचें

तेरी संगदिली भी एक मसळआ है
लेकिन हम क्यों संग पिघलने की सोचें

क्या जाने कब ज़ख़्मी हो ले मूरख दिल
इन ज़ख़्मों के साथ संभलने की सोचें

आशिक़ तो बेचारा खुद ही मिट लेगा
हम क्यों कोई रस्म बदलने की सोचें

कहते हैं 'आनंद' मिलेगा जलने में
ऐसा हो तो हम भी जलने की सोचें

– आनंद

बुधवार, 14 जून 2017

मिलन के छंदमुक्त छंद

मिलन के छंदमुक्त छंद

तुम आ गए हो, नूर आ गया है...

नूर का तो नहीं पता पर तुम एकदम सही वक्त पर आए हो
उम्मीद की लौ बस अभी अभी बुझी भर थी कि तुमने आकर कह दिया 'धीरज नहीं है तुमको'
इस बात पर झगड़ा हो सकता है कि तुमने मेरे धीरज का पैमाना इतना बड़ा और बढ़ा कर क्यों रखा है
पर इस बात को तो तुम भी मानती हो कि मेरे जीवन में ऋतुएँ तुम्हारे आने और जाने से ही बदलती हैं,
जब तुमने कहा कि 'मुझे लगा था कि तुम अब बड़े हो गए हो पर नहीं तुम एकदम बच्चे हो'
उसी समय मैंने कायनात को शुक्रिया कहा
मुझे इस तरह से देखने के लिए,

पता है कल तुमने मुझे अनगिनत बार 'पागल' कहा और मैं उतनी ही बार इतराया खुद पर,
मुझे इस तरह की खुशी से नवाज़ने के लिए शुक्रिया ,
शुक्रिया इस चादर को अपनी पसंद के हर रंग से रंगने के लिए,
मुझे न ये खुशी क़ैद करनी है, न ये पल और न ही ये ख़ुश्बू,
सब जिस कायनात का हिस्सा हैं उसी को अर्पित,

कोई एक पल भी मेरे साथ रह लेता है न... जोकि असल में वो तुम्हारे साथ ही रहता है क्योंकि मेरा मुझमें है ही क्या बाहर भीतर हर जगह तो तुम ही मिलती हो उसे...
वो फिर बड़ी दूर तक महक़ता हुआ जाता है प्रेम की खुशबू से,

सुनो!
फिर देखो एक बार ठीक से
पागल कौन है
मैं या तुम ... ।

- आनंद

मंगलवार, 13 जून 2017

शब्दों से भय ...

मैं कुछ लिखने के लिए कलम उठाता हूँ
फिर रख देता हूँ
ये सोचकर कि
शब्द मौन की हत्या है
मैं मृत्यु से भयभीत नहीं हूँ
डरता हूँ प्रेम के अनुवाद से
दर्द का एक ही मतलब है दर्द
उसकी व्याख्या करना छल है प्रेम से,

प्रेम का जिक्र करना
उस लाक्षागृह में आग लगा देना है
जिसमें धोखे से ठहराए गए हैं कुछ सपने
मैं आग से भयभीत नहीं हूँ
डरता हूँ सपनों की मासूमियत से
मेरा मौन लाक्षागृह की सुरंग है

शायद बच निकलें कुछ सपने
शब्दों की दहकती आग से

'भरोसा' सबसे बड़ा धोखेबाज शब्द है ।

 - आंनद

रविवार, 30 अप्रैल 2017

(ना)उम्मीदें

फिर से ज़ख़्म उभारोगे क्या
अपना भी कुछ हारोगे क्या

मरने से पहले कुछ जी लूँ
तुम भर आँख निहारोगे क्या

किया धरा सब इन नज़रों का 
कुछ ग़लती स्विकरोगे क्या 

ऐसे धड़कन ना रुक जाये
जिद्दी लटें, सँवारोगे क्या

मंथर शांत नदी है इस पल
अपनी नाव उतारोगे क्या

जनम जनम की बातें छोड़ो
कुछ पल साथ गुजारोगे क्या

वहशत के डर से तुम मुझको
चौखट से  ही  टारोगे क्या

बंजारा है प्रेम जगत में
थोड़े वक़्त सँभारोगे क्या

दुनिया मुझको पागल समझे
तुम भी पत्थर मारोगे क्या

जब 'आनंद' चला जायेगा
उसको कभी पुकारोगे क्या

- आनंद

शनिवार, 29 अप्रैल 2017

एक सिपाही की ग़ज़ल

दुनिया की सरकारों मुझको
चलो दाँव पर डारो मुझको

मैं फौजी अनुशासन मे हूँ
आप जुए में हारो मुझको

मैं जवान हूँ , मैं किसान हूँ
मारो  मारो,  मारो मुझको

जब भी हक़ की बात करूँ तो
चौखट से दुत्कारो मुझको

उल्टे सीधे प्रश्न करुँ तो
चलो जेल में डारो मुझको

कोई काम बनाना हो जब
धीरे से  पुचकारो मुझको

मेरे हिस्से फूल कहाँ हैं
काँटों तुम्ही सँवारो मुझको

धन्नासेठों की रक्षा में
नाहक आप उतारो मुझको

घर की जंग लड़ी न जाये
सरहद पर ललकारो मुझको

- आनंद

गुरुवार, 27 अप्रैल 2017

तुम्हारी जय होवै ..

देशी कृपानिधान तुम्हारी जय होवै
निकल रही है जान, तुम्हारी जय होवै

जेड श्रेणी जेड प्लस श्रेणी वाले भगवन
पत्थर खाय जवान तुम्हारी जय होवै

अन्न उगाने वाला तिल तिल मरता है
पीता मूत किसान तुम्हारी जय होवै

योग भोग मदिरा मोटर, वैभव वालों
खा लेना इंसान तुम्हारी जय होवै

ये सारे जयकारे गाली हैं, जब तक
दुखी किसान जवान तुम्हारी जय होवै

हे जनसेवक हे दुखभंजन हे अवतारी
कहाँ आँख और कान तुम्हारी जय होवै !

- आनंद

गुरुवार, 6 अप्रैल 2017

तन्हा क़दम बढ़ाना आया

तन्हा क़दम बढ़ाना आया
समझो दर्द भगाना आया

जिसने खुद ही राह बनायी
उसके साथ ज़माना आया

तुम क्यों इतनी दूर खड़े थे
जब जब ठौर ठिकाना आया

उस दिल पर क्या गुजरी होगी
जिसको धोखा खाना आया

कुछ तो ख़्वाब यार ने तोड़े
खुद कुछ भरम मिटाना आया

बरसों खुद से लड़ा मुक़दमा
तब जाकर मुस्काना आया

इक पूरे जीवन के बदले
दो पल का हर्ज़ाना आया

हमने ही ये आग चुनी है
तुमको कहाँ जलाना आया

जीवन भर का हासिल ये है
बस मन को समझाना आया

ये 'आनंद' उसी का हक़ है
जिसको भाव लगाना आया

- आनंद

मंगलवार, 28 मार्च 2017

झूठ या सच राम जानें...

झूठ या सच राम जानें, मुस्कराना आ गया
ज़िन्दगी आखिर तेरा हर ग़म उठाना आ गया

कौन हो-हल्ला करे किसको पुकारे साथ को
अब मुझे तनहाइयों से घर सजाना आ गया

इसमें रत्ती भर हमारे यार की गलती नहीं
अपनी उम्मीदें ही बैरी थीं, मिटाना आ गया

आज भी आँखें छलक आयीं किसी के नाम से
मैने समझा था मुझे सबकुछ भुलाना आ गया

शोखि़यों के ज़िक्र से अब भी बहक सकता हूँ मैं
फ़र्क इतना है बहक कर होश आना आ गया

आजकल सुर्खाब के पर लग गये हैं देश को
तन्त्र को अब लोक की भेड़ें चराना आ गया

शायरों में भी सियासत की कदर बढ़ने लगी
अब मुखौटे शायरी को भी लगाना आ गया

प्यार के दो बोल सुनने को तरसता उम्र भर
जब चला 'आनंद' मातम को जमाना आ गया

- आनंद

बुधवार, 22 मार्च 2017

तुम्हारा साथ

'और तुम्हारा साथ...? '

मैं प्रतीक्षा को समय से मापता हूँ
और समय को जीवन से
जीवन को मापता हूँ तुम्हारे साथ से
और तुम्हारा साथ ... ?
छोड़ो
मैं फिर से प्रतीक्षा पर लौटता हूँ  !

मैं दुख को देह से मापता हूँ
और देह को आयु से
आयु को मापता हूँ तुम्हारे साथ से
और  तुम्हारा साथ...?
छोड़ो
मैं फिर से दुख पर लौटता हूँ

मैं मृत्यु को शान्ति से मापता हूँ
और शान्ति को प्रेम से
प्रेम को मापता हूँ  तुम्हारे साथ से
और तुम्हारा साथ...  ?
छोड़ो
मैं फिर से मृत्यु पर लौटता हूँ !

- आनंद

शनिवार, 25 फ़रवरी 2017

अपने समय की चाल से आगे...

अपने समय की चाल से आगे निकल गया
इन्सान जरूरत की मशीनों में ढल गया

हम इंतज़ार ओढ़ के सोये थे ठाठ से
भगदड़ में कोई ख़्वाब हमारे कुचल गया

बाहर से ठीक ठाक है, अंदर लहूलुहान
ये देश मेरा गुड़ भरा हंसिया निगल गया

आता कहाँ से ज़िन्दगी के खेल का मज़ा
जब जब मैं जीतने लगा पाला बदल गया

दोनों ने ख़्वाब वस्ल के देखे ये कम है क्या
अब क्या करें जो वस्ल का मौसम निकल गया

अपने ही भरमजाल में उलझी थी ज़िन्दगी
फ़ुर्सत मिली तो उम्र का सूरज ही ढल गया

ये क्या कि बात बात में आँसू छलक पड़ें
'आनंद' तेरा दर्द तमाशा निकल गया

- आनंद

गुरुवार, 9 फ़रवरी 2017

विरही बसंत ...

उन तक भी अब जाएगा इस दिल का संवाद
ऋतु बासंती कर रही पीड़ा का अनुवाद

पीली सरसों की लहक, चहक पखेरू केरि
लिये उदासी ह्रदय में, रहीं उन्हें ही टेरि

'वैलेंटाइन' संत जी, उधर बजाएं ढोल
इत फागुन बैरी हुआ रहि रहि करे ठिठोल

कब तक रखें हौसला कैसे रखें आस
नन्हें नन्हें ख़्वाब थे जिन्हें मिला वनवास

झूठ बोलते हैं सभी, दिल से दिल की रीत
पत्थर दिल कैसे हुए मेरे मन के मीत

उलटे हैं आनंद सब जीवन के व्याख्यान
जिसको देखा तक नहीं उसको दे दी जान

 - आनंद





शनिवार, 28 जनवरी 2017

नहीं चहिये भाई..

घर के किस्से आम, नहीं चहिये भाई
बद अच्छा, बदनाम, नहीं चहिये भाई

कुछ साथी बस साथ खड़े हों जीवन में
ज्यादा दुआ सलाम, नहीं चहिये भाई

शायर क्या जो मन का शाहँशाह न हो
पूँछ हिलाकर नाम नहीं चहिये भाई

औरों को दुख देकर अपना काम बने
मुझको ऐसा काम नहीं चहिये भाई

बेटी गर्भ गिराया, बेटा पाने को
उनसे सीताराम नहीं चहिये भाई

दो लफ़्जों में दिल की बातें होती हैं
ज्यादा बड़ा कलाम नहीं चहिये भाई

जीवन में आनंद , भले थोड़ा कम हो
जीवन में कोहराम नहीं चहिये भाई

- आनंद

गुरुवार, 26 जनवरी 2017

अपना दर्द किनारे रख.

जितना संभव टारे रख
अपना दर्द किनारे रख

दिखता है सो बिकता है
बाहर जीभ निकारे रख

अंदर केवल जय जय है
अपने प्रश्न दुआरे रख

अंदर अंदर भोंक छुरी
ऊपर से पुचकारे रख

अच्छा मौसम आयेगा
यूँ ही राह निहारे रख

बे परवाह न हो कुर्सी
सत्ता को ललकारे रख

दुनिया कुछ तो बदलेगी
पत्थर पे सर मारे रख

जीवन में आनंद न हो
तो भी खीस निकारे रख

- आनंद

रविवार, 22 जनवरी 2017

सबको ज़ख्म दिखाने निकले

सबको ज़ख्म दिखाने निकले
हम भी क्या बेगाने निकले

पहले क़त्ल किया यारों ने
पीछे दीप जलाने निकले

जब पहुँचे हम हाल सुनाने
वो दिल को बहलाने निकले

उनकी इशरत* मेरी किस्मत
दोनों एक ठिकाने निकले

उनके बस का रोग नहीं ये
रह रह कर पछ्ताने निकले

दिल तो पहले ही उनका था
अब महसूल* चुकाने निकले

जीवन का हासिल क्या होता
हम केवल परवाने निकले

आप हश्र की चिंता करिये
हम तो धोखा खाने निकले

बिन देखे ही उम्र कट गयी
हम भी खूब दिवाने निकले

जिसे चाहिए वो ले जाये
हम आनंद लुटाने निकले

- आनंद

इशरत = मनोरंजन
महसूल = टैक्स, शुल्क

शुक्रवार, 20 जनवरी 2017

खुद को

तेरा दर्द सुख़न कर बैठा
मैं खुद को निर्धन कर बैठा

तेरा साथ खैर क्या मिलता
मैं खुद को दुश्मन कर बैठा

अमृत के किस्सों में पड़कर
मैं तो गरल वरण कर बैठा

ऐ दिल अब नुक्ताचीनी क्यों
जब खुद को अर्पण कर बैठा

पत्थर नहीं पिघलने वाले
मैं भी लाख जतन कर बैठा

'असल' दर्द का वापस दुनिया
थोड़ा  सूद ग़बन कर बैठा

दर्द  न देखा गया यार से
मुझको जिला-वतन कर बैठा

जाने किस सुख की चाहत में
मैं आनंद हवन कर बैठा

- आनंद



रविवार, 15 जनवरी 2017

ग़मों की सरपरस्ती में...

गज़ब का लुत्फ़ होता है दिल-ए-पुर-खूँ की मस्ती में
ज़िगर पर चोट खाये बिन मुकम्मल कौन हस्ती में

न जाने किस भरोसे पर मुझे माँझी कहा उसने
कई सूराख़ पहले से हैं इस जीवन की कश्ती में

हमारी देह का रावन तुम्हारी नेह की सीता
'लिविंग' में साथ रहते हैं नई दिल्ली की बस्ती में

तुम्हारी साझेदारी का कोई सामान क्यों बेचूँ
पड़ी रहने दो सब ग़ज़लें ये ग़म खुशियाँ गिरस्ती में

हमारे शहर् मत आना यहाँ सब काम उल्टे हैं
यहाँ 'आनंद' जिंदा है ग़मों की सरपरस्ती में

- आनंद