मंगलवार, 6 मार्च 2012

मोहब्बत के खुदा से एक प्यारी सी भेंट ...( एक संक्षिप्त रिपोर्ट )



फरवरी २०१२ की २७ तारीख..एक बजे ऑफिस से निकल पड़ता हूँ प्रगति मैदान की तरफ , दो बजे से अनुपमा त्रिपाठी  जिन्हें मैं अनुपमा दी बोलता हूँ की पुस्तक अनुभूति का विमोचन था .. तदुपरांत मेरी एक और ब्लागर मित्र  अंजू (अनु० ) चौधरी की पुस्तक 'क्षितिज़ा' का विमोचन होना था ५.०० बजे से |  २५ मिनुत के अन्दर ही पार्किंग और टिकट से फारिग होकर मैं हाल संख्या १२ के सामने खड़ा हुआ था | 
हाल संख्या ११ में हिंद युग्म प्रकाशन के स्टाल पर एक काव्य संग्रह भी रखा हुआ था "अनुगूंज" नाम से उस के २८ कवियों की जमात में मेरा भी नाम था ...यही वजह थी कि कदम सबसे पहले ११ नंबर हाल कि तरफ ही बढे ...खैर दो घंटे एक हाल में ही घूमने के बाद जेब और कुछ और पुस्तकें उठा सकने कि क्षमता दोनों के जबाब देने के बाद ये सोंचता हुआ कि एक दिन में एक ही पवैलियन ठीक से देखा जा सकता है, बाहर निकल पड़ा मैं |
एक दिन पहले जनवादी कवि भाई 'अशोक कुमार पाण्डेय' जी ने सभी साहित्यिक प्रेमियों और सामाजिक सरोकारों से खुद को जुड़ा महसूस करने वालो की एक एक औपचारिक बैठक रखी थी हाल संख्या १२ के सामने लान में ही जो उनकी ही व्यस्तता के कारण निरस्त भी हो गयी थी ..मगर फेसबुक अपडेट से ये पता था कि वो आज यानी २७ को नियत स्थान पर आने वाले हैं ...मैंने सोंचा कि चलो एक बार देख लेते हैं शायद वो मिल ही जाएँ ..और मेरा सौभाग्य कि वो वहीं बैठे दिख गए ..उनसे मुलाकात भी एक सुखद याद रहेगी हमेशा|  बहुत नेक इंसान लगे मुझे .. उनका हाल ही में प्रकाशित और चर्चित काव्य संग्रह "लगभग अनामंत्रित" भी मुझे लेना था जब मैंने उनसे इस बात का जिक्र किया तो वो बड़ी सरलता से मुझे शिल्पायन के स्टाल तक ले गए जहाँ उनकी पुस्तक उपलभ्ध थी |
 बहरहाल  इन सबके बीच मेरी मित्र वंदना गुप्ता जी (मशहूर ब्लागर) का फोन कई बार आ चुका था कि वो मेरा इंतज़ार हाल संख्या ६ में कर रही हैं ...जहाँ पर अनुपमा दी की पुस्तक के विमोचन का कार्यक्रम चल रहा था ...और मैं लगभग ३.३० बजे वहाँ पहुँच पाया ...
       अनुपमा दी का कार्यक्रम  समाप्त होने के बाद वही कोई ४.३० के आसपास हम सभी वंदना जी , अंजू चौधरी जी , सुनीता शानू जी, राजीव तनेजा जी, और अन्य बहुत से मित्र गण सभागार से सामने ही गप्पे मार रहे थे और अगले होने वाले कार्यक्रम की प्रतीक्षा में थे कि सहसा मेरी नज़र ..एक सज्जन पर पड़ती है ...वो एक जगह पर ऐसे खड़े थे जैसे साक्षात् शांति आकार उस जगह ठहर गयी हो , याकि शांति ने ही मनुज का वेश धारण कर लिया हो !

मैंने कभी उनको नहीं देखा था सिवाए अपने अनुज मुकेश कुमार सिन्हा की एल्बम में उनकी एक तस्वीर के ...मगर मेरे मुह से अनायास ही निकल पड़ा अरे वो देखो इमरोज़ जी ...डर भी लग रहा था ...मैंने साथियों से पूछा कि कोई उन्हें मिला है  कोई ठीक से पहचानता है तो सबने कहा नहीं... सुनीता शानू जी ने कहा मेरे पास उनका नंबर है मैं मिला कर देखती हूँ ...वो जब तक फोन मिलाएं हम उनके पास पहुँच चुके थे !
और फिर ....पांव ही तो छूना मुझे समझ में आता है जब भाव नहीं सँभालते तो डाल देता हूँ उन्हें सामने वाले के क़दमों में ...और जब सामने राँझा हो तो .... वंदना जी का और मेरा दोनों का हाल लगभग एक जैसा ही था ...धीरे धीरे लोग छंटने लगे ...सबके जिम्मे जिम्मेदारियों का पहाड़ होता है ... हम और वंदना जी ही बचे वहाँ ....पर मैं तो खुद को सागर तट पर पा रहा था ....

                                         (इन स्मृतियों को कैमरे में कैद करने के लिए वंदना जी का शुक्रिया )

मैं शायद उनको देखता ही रहता अगर वंदना जी ने बात ना शुरू कर दिया होता ...वही बातें आप तो इस धरती पर मोहब्बत का रूप हैं , सच भी है, बड़ा सौभाग्य कि आज आपके दर्शन हुए ...आज का दिन बहुत कि अच्छा है यादगार है वो सुनते रहे बीच बीच में कुछ बोलते रहे रहे ...मगर मैं तो जैसे कुछ ज्यादा ही पी गया था ... बस आँखों से देखे ही जा रहा था अपलक उनको ..इतने आत्मीय इतने मृदु ..सच में प्रेम ऐसा ही होता होगा ...मुझे होश तब आया जब जब वंदना जी ने किसी और से मिलने के लिए मुझसे पूछा तो .... मेरा जबाब था कि अब और मुझे किससे मिलना बाकी रह गया ...इमरोज़ जी को मिलकर फिर और किसी इंसान से मिलने कि तमन्ना ...मेरे लिए जरा मुश्किल थी ...मेरा जबाब सुनकर पहली बार इमरोज़ जी ने मुझे ध्यान से देखा ..उसी क्षण बस एक क्षण को लगा कि मेरे अंदर प्रेम का जो तत्व है वो उनसे मिल गया है ...सहसा उनकी आँखों में अपनेपन का भाव आ गया ...तब केवल हम दो थे वहाँ पर .....या शायद वहाँ केवल प्रेम था ना मैं था न इमरोज़ जी 

उन्हें शायद मेरी दशा का भान  हो गया था...बात का सिरा अपने हाथों में लिया  उन्होंने ...और पहला शब्द उनके मुह से निकला अमृता .... "अमृता ने कभी अपनी किसी किताब की प्रस्तावना किसी से नहीं लिखवाई "  "उन्हें ये सब पसंद ही नहीं था " ...क्योंकि जो भी कुछ लिखता है वो उसकी कीमत वसूलने की कोशिश करता है ..और अमृता को ये सब पसंद नहीं था वो अपने धुन कि पक्की थी !
मैंने मुह खोला कि कुछ ब्लोग्स के सौजन्य से आपकी कुछ नज्में पढ़ी हैं मैंने ...और अमृता जी की कवितायेँ तो खैर पढ़ता ही हूँ मैं ...
वो बोले कि मैं लिखता कहाँ हूँ ..बस ऐसे ही कभी किसी ने कह दिया या कभी कुछ मन हो गया तो ...
मैंने कहा मैंने आपके बहुत सारे चित्र देखे हैं ... आपके चित्रों की नारी ...कितनी कोमल लगती है .... वो मुस्कराए ..केवल मुस्कराए 
थोड़ा रुक कर बोले ... वह  जगह जहाँ से आप चीज़ों को देखते हैं सब की  अलग अलग होती है !
मैंने कहा मुझे यकीं नहीं हो रहा कि मैं प्रेम के मूर्त रूप के सामने खड़ा हूँ ..फिर प्यार से देखा उन्होंने मुझे ..बड़े ही प्यार से ..बोले प्रेम कितने लोग करते हैं आज ??? बातें २४ घंटे प्रेम की ही होती हैं ..सारे पंजाब में हीर और राँझा केवल एक ही क्यों थे ?  नहीं होता ये सबसे ....!  ..... तुम्हें पता है हमने और अमृता ने कभी एक दूसरे को 'आई लव यू ' नहीं कहा ... कहने की  जरूरत ही नहीं पड़ी कभी ...(और मैं सोंच रहा था खुद के बारे में ...मानव का मन भी ना कितनी जल्दी तुलना करने लगता है...कितना जल्दी होती है उसे शिखर तक पहुँचने की )..
   अचानक ही उन्होंने ने पूछ लिया की आप भी लिखते हैं ?  ...मैंने जरा सा संकोच करते हुए कहा हाँ लिखता तो हूँ पर अभी तक कहीं छपा नहीं है ..शायद उन्होंने मेरे संकोच को भांप लिया था एकदम तपाक से बोले कबीर को किसने छापा था  ?? बस लिखते जाओ जो भी लिखो बस दिल से लिखना ...अगर दिल से लिखोगे तो पढ़ने वाले के दिल तक जरूर पहुंचेगा , और जिसको छापना होगा छापेगा तुम इसकी परवाह मत करना ! मैं क्या कहता आज भी उनकी मीठी आवाज में कहे ये शब्द मेरे कानों में गूँज रहे हैं ...
 इसके बाद  दुनियादारी पर कुछ इधर उधर की बातें हुई ..और तब तक हीर जी,... हाँ जी सच कह रहा हूँ आज के युग कि हीर सुश्री हरकीरत हीर जी  वहाँ  आ गयीं . उनकी कविताओं का संग्रह दर्द की महक जो कि अमृता प्रीतम और इमरोज़ जी को ही समर्पित थी ..उसका लोकार्पण करने ही तो इमरोज़ जी आये हुए थे उस कार्यक्रम में !

मैं हरकीरत जी कविताओं का (अब आप कविताओं या चाहें तो यूँ कह लीजिए कि उनके दर्द,... कविताओं के अंदर के दर्द का, बड़ा प्रसंसक रहा हूँ ) और  चूँकि हीर जी का ब्लाग नियमित पढ़ता रहता हूँ और उनसे एक दो बार मेल का आदान प्रदान भी हुआ है इस लिए वो मुझे नाम लेते ही पहचान गयीं ! मैंने भी हीर जी को सुनाते हुए इमरोज़ जी से कहा कि  ये लो आ गयीं...मुझे तो  रुलाने का सारा जिम्मा इन्होने संभाल रखा है ...मेरी इस बात पर  दोनों खूब ठहाका लगा कर हँसे !..
इस तरह हम सब ने सभाभवन कि ओर साथ ही प्रस्थान किया ! सारे कार्क्रम के दौरान इमरोज जी जब भी मुझे देखते बड़े प्यार से देखते कार्क्रम के अंत में जाते हुए जब वो मेरी बगल से गुजरे रुक गए मैं भी खड़ा हो गया ... हमने एक दूसरे को देखा  बस वही एक नज़र मेरे लिए बहुत कीमती है उसकी व्याख्या मैं चाह कर भी नहीं कर पाऊंगा !

-आनंद द्विवेदी
६ मार्च २०१२ .