शनिवार, 19 फ़रवरी 2011

फांस बनकर गले में अटकी हुई है जिंदगी



फाँस बनकर गले में अटकी हुई  है जिंदगी ,
कशमकश के शहर में भटकी हुई है जिंदगी !

वो जो पत्थर सामने है, वफ़ा का है प्यार का,
उसी पर खूब जोर से  पटकी हुई  है जिंदगी ! 

अपने टूटे पाँव लेकर जो पड़ी है खाट  पर , 
उनके दर से धूल सी झटकी हुई है जिंदगी ! 

सड़क पर की धूप से बेचैन होकर, भागकर 
छत में पंखे से यहाँ  लटकी  हुई  है जिंदगी !

छटपटाता हुआ एक 'आनंद' इसमें कैद है ,
दर्द से हर जोड़ पर चटकी हुई है जिंदगी  !!

 --आनंद द्विवेदी १९/०२/२०११