शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2013

चाहतों का अम्बार ...

विद्वजन कहते हैं 
कि,  प्रेम में नहीं होती कोई चाहत
विद्वजन चाहते हैं 
कि, माना जाए उनके कहे को अंतिम सच।

मुझे नहीं पता प्रेम का
नहीं जानता कब और कैसे  होता है
किसको  होता और क्यों होता है 
कभी तुम्हें  हुआ कि नहीं 
कभी हमें  हुआ कि नहीं 
कुछ पता नहीं 

हाँ मैं चाहता हूँ
कि टूटकर चाहो तुम मुझे  
बेचैन हो उठो अगर घड़ी भर भी महसूस करो 
मुझको खुद से अलग,
चाहता हूँ कि नींद न आये तुम्हें उस उस रात
जिस जिस दिन झगड़ा हो हमारा  
चाहता हूँ कि मुझे कम से कम यह पता तो रहे ही 
कि आज ऑफिस नहीं गयी हो तुम 
याकि आज सारा दिन नहीं उठा सकोगी कोई फ़ोन 
चाहता हूँ कि मुझे रोज़ पता हो कि आज तुम्हारा क्या खाने का मन है
याकि जब तुम ऑफिस से वापस आयी-चाय खुद तो नहीं बनानी पड़ी 
चाहता हूँ कि सुबह जब सोकर उठो 
तो रात का एक-एक सपना घूम जाए आँखों में पल भर को 
और मुस्करा पड़ो तुम शरमाते-शरमाते 

हाँ मैं चाहता हूँ 
कि छुट्टी के दिन लगाऊँ तुम्हारे बालों में तेल
और बार-बार बिखेर लूँ उन्हें अपने चेहरे पर 
जान जाऊं तुम्हारी हर इच्छा बिना बताये हुए 
और जरूरत पड़ने से पहले ही तुम्हें हर काम हुआ मिले हर चीज़ हाथ में हो 
वह भी तुम्हारी सबसे श्रेष्ठ पसंद के अनुरूप,
चाहता हूँ कि मुझे बेधड़क मार सको फेंककर जो भी हो तुम्हारे हाथ में 
खीझो जब भी मुझपर 
और नाच उठें आँखों में दो नन्हे आँसू अगर मुझे चोट लगे तो 
चाहता हूँ कि उसी पल निकल जाए मेरी जान 
जब न रहना संभव हो तुमको मेरी जान बनकर 

कैसे हो सकता है मुझे .... प्रेम !
इतनी सारी चाहतों के होते हुए 
इन चाहतों से ही तो जिन्दा हूँ मै 
कि चाहतों का अम्बार हूँ मैं ! 

- आनंद