मंगलवार, 29 मार्च 2011

दो क्षणिकाएं ...

१- मेरा प्यार ...

मैं ..
किसी दूसरे का था 
वो..
किसी दूसरे के थे 
मगर वो दूसरा  भी 
किसी दूसरे का था...
जो 
उनका था वो कोई
दूसरा  ही था ...!
फिर भी वो हमारे थे
हम उनके थे 
ऐसा था मेरा प्यार 
जैसे .....
आम सहमति पर आधारित 
किसी राजनैतिक पार्टी का घोषणा पत्र !!



२- कभी सोंचा है ..?

गरीब का खून 
जैसे नीम्बू  का रस ..
आखिरी बूँद तक निचोड़ो 
और फेंक दो ..
कूड़े  के ढेर में ...सूखने के लिए 
अब तक तो 
पतन हो जाता इस देश का 
किन्तु यह टिका है 
गरीब के कन्धों पर ....
यह भी कभी सोंचा है ??

--आनंद द्विवेदी २९/०३/२०११

सोमवार, 28 मार्च 2011

एक क्षण के लिए ...


मुझे आज तुझसे
सच में प्यार हो गया है
हमेशा ही पास से कतराकर
निकल जाने वाली ..
मेरे आंसुओं से ही
खुद को गुलजार रखने वाली ..
मेरी बेबसी पर जश्न ...
और मेरी जरा सी भूल पर
आसमान सर पर उठा लेने वाली ..
मेरी हर चाहत को  कुचलकर
अट्टहास करने वाली
ऐ मेरी बेशर्म जिंदगी
मुझे आज तुझसे
सच में प्यार हो गया है...


ये प्यार होता ही है ऐसा
जब होता है तब 
नहीं देखता दोस्त और दुश्मन
कोई बुराई नजर ही नहीं आती
अँधा कहीं का !
नहीं सुनता किसी और की आवाज़
ताने, व्यंग , षड्यंत्रों की सरगोशियाँ
कुछ बुरा सुनाई ही नहीं देता इसको
बहरा कहीं का !
चुपचाप सह लेता है
हर जुल्म ज़माने का भी और तेरा भी
अपने में ही खोया
एक बार भी उफ़ नहीं करता
गूंगा कहीं का ...........
पर एक बात कहूँ? 
ऐसा जब भी होता है
जीवन  का वो लम्हा
उस सारे जीवन से
और ...
सदियों से भी  ज्यादा कीमती  होता है
क्योंकि उस एक क्षण
श्रृष्टि होती है...
अपने सबसे सुन्दरतम रूप में !     
     
  --आनंद द्विवेदी  २८/०३/२०११

सोमवार, 21 मार्च 2011

खुद जली, दिल जला गयी होली



फिर अदावत निभा गयी होली ,
खुद जली, दिल जला गयी होली !

रंग बरसा न फुहारें बरसीं ,
टीस मन में जगा गयी होली !

दर्द के श्याम, पीर की राधा,  
रंग ऐसा दिखा गयी होली  !

राह तकता रहा अबीर लिए ,
वो न आये, क्यूँ  आ गयी होली ?

उम्र भर तुम भी जलो, मेरी तरह 
बोलकर यह  सजा गयी होली !

वाह 'आनंद' की किस्मत देखो ,
दर्द को कर दवा गयी,  होली  !!

      --आनंद द्विवेदी  

शुक्रवार, 18 मार्च 2011

होली और फाग!

गाँव में जब तक रहा ...होली के एक महीने पहले से ही फाग शुरू हो जाता था ...गाँव में कई मंडलियाँ होती थी ...फाग गाने वाली !! मैं अक्सर गाने के साथ ढोलक भी बजाया करता था ....बहुत सरे  गीत जुबानी याद थे........अब होली आते ही....मन वही सब ढूँढने लगता है....अब इसको कौन समझाए कि ......खैर मुझे कुछ गीत अभी भी आधे अधूरे याद हैं...मैं आपसे शेयर कर रहा हूँ.....जो लोग लोकसंस्कृति से जुड़े हैं ...वो शायद मुझे बेहतर समझ सकेंगे !!..
फाग इस प्रकार है
..
..
मोहि नीका न लागे गोकुल मा
मन बसे म्वार वृन्दावन   मा   !!

वृन्दावन बेली चंपा  चमेली गरुदावाली गुलाबों में
गेंदा, गुल मेहदी, गुलाबास , गुलखैरा फूल हजारों में
 कदली, कदम्ब, अमरुद तूत फूले 'रसाल' सब साखन मा
भंवरा गुलज़ार विहार करैं रस लेहें फूल फल पातन मा 


मन बसे म्वार वृन्दावन मा


वृन्दावन  की बन बागन मा लटकैं झटकें फल लागत दाक छुहारन मा

फूली फुलवारी लौंग सुपारी व्यापारी व्यापारन  मा 
मालिन के लड़के तोड़ें तड़के बेचें हाट बजारन मा
सौदा कर ले सुख श्याम सुंदरी जौन होय जाके मन मा !!

मन बसे म्वार वृन्दावन  मा

मोहि नीका भला मोहि नीका  मोहि नीका न लागे गोकुल मा
मन बसे म्वार वृन्दावन मा !!

मंगलवार, 15 मार्च 2011

अकेलापन !






कितना सुखद है  
कुछ नहीं सुनना
बहरापन ....
सन्नाटा 
नीरवता 
शून्य!
कोलाहल से दूर भाग जाना 
कितना अच्छा होता है न ?
सुना ही नहीं मैंने ...
मौत घट रही थी कहीं गहरे अन्दर 
या फिर शांति थी यह
मेले में समाधि थी
या फिर
मेरा  निपट सूनापन  !!
जितने बहाने थे मेरे पास
मैंने सब को आजमा लिया
क्या कमी है ..
सब तो है मेरे पास
हर रिश्ता
हर 'सुख'
जरूरत की हर सामान
जीवन आराम से गुजारने लायक
फिर क्यूँ
चिड़ियों की चहचहाहट नहीं सुनाई देती
पास से निकलती हुई हवा
क्यूँ दूसरे देश की लगती है
सोंच में हूँ की
ऐसा क्यूँ हुआ है
इच्छाएं तो है
उम्मीद भी है
चाहत भी है ...
फिर ये सूनापन क्यूँ
अकेलापन क्यूँ भाता है
कहीं से कोई उत्तर नहीं
शायद कुछ प्रश्न...
हमेशा ही अनुत्तरित रहते हैं ..
आपको भी  ..
शांति चाहिए... तो बहरे हो जाओ
जीना है.... तो गूंगे हो जाओ ...
चाहते हो कोई हाथ पकड ले
सहारे के लिए
तो
अंधे हो जाओ
मेरी तरह
क्योंकि दुनिया ...
गिरते को तो थाम लेती है
मगर समर्थ को गिराने का
कोई अवसर नहीं छोड़ती !

 ---आनंद द्विवेदी १५/०३/२०११

शुक्रवार, 11 मार्च 2011

आज के दोहे !

आज से पहले मैंने कभी 'दोहे' नहीं लिखे थे ...आज सोंचा क्यूँ  न प्रयास करूं  ....मेरे पहले दोहे हैं ये ...इस आशा के साथ की "छमिहन्हि  सज्जन मोरि ढिठाई , सुनिहन्हि  बाल बचन मन लाई"!



सड़कों पर अब आ गए, आस्तीन के सांप 
इंटरनेट पर बैठकर, लिखते रहिये आप !

मन में अब उठता नहीं, पुण्य पाप का द्वन्द 
सब हैं डूबे प्रेम में, हैं सब ही  स्वच्छंद  !

चंहुदिसि हाहाकार पर दुनिया अपने रंग  
कविवर बैठे देखते,  मृगनयनी के अंग  !

जीवन की रस्साकशी,  पीती रहती खून ,
फागुन अब आता नहीं, बारौ महिने जून ! 

बिछुड़  गए संगी सखा , छूट  गए अरमान ,
जब से छोड़ा गाँव को, चली गयी पहचान!

'गुड़िया' 'फगुई' खो गयीं, आया नहीं बसंत,
पंडित जी की पीर  का, कोई  आदि न अंत !

            --आनंद द्विवेदी १/०३/२०११

मंगलवार, 8 मार्च 2011

आओ कुछ और करें ..






क्रांति कर दिया हमने तो
अरे महिलाओं की बात कर रहा हूँ.....
एकदम बराबरी का दर्ज़ा  दे दिया जी
कई कानून बना दिए इसके लिए
अब औरत को दहेज़ के लिए नहीं जलाया जा सकता
कार्यालयों में उसके साथ छेड़खानी नहीं की जा सकती
उसके कहीं आने जाने पर पाबन्दी नहीं है
और तो और ...
हमने सेनाओं में भी उसके लिए द्वार खोल दिया हैं
वगैरह वगैरह!
वो जरा सी अड़चन है नहीं तो
उसे ३० प्रतिशत आरक्षण भी देने वाले हैं 'हम '
दोस्तों!
न जाने क्यूँ मुझे लगता है
कि नाटक कर रहे हैं हम
बढती हुई नारी शक्ति से हतप्रभ हम
उसे किसी न किसी तरीके से
बहलाए रखना चाहते हैं...
उसे उसकी स्वाभाविक स्थिति से
आखिर कब तक रोकेंगे हम ...?
वो जाग गयी है अब 
और हमने पुरुष होने का टप्पा बांधा हुआ है आँखों पर,
गुजारिश है कि अब हम
उसे कुछ और न  ही दें तो अच्छा है.
वो वैसे ही बहुत कृतज्ञ है हमारी
हर जगह हमारी भूखी निगाहों से बचते हुए 
बगल से निकल जाने पर बे वजह धक्का खाते हुए
बसों में ट्रेनों में ,
स्कूल जाते हुए, आफिस जाते हुए
बाज़ार जाते हुए,
"उधर से नहीं उधर सड़क सुनसान है "
 जरा सा अँधेरा हो जाये तो ...
 ऊपर से सामान्य पर अन्दर से कांपते हुए ...
वो हर समय
हमारी कृतज्ञता महसूस करती है...


अगर सच में हमें कुछ करना है
तो क्यूँ न  हम यह करें ...कि
दाता होने का ढोंग छोड़ कर
उनसे कुछ लेने कि कोशिश करें
मन से उनको नेतृत्त्व सौप दें
कर लेने दें उन्हें अपने हिसाब से
अपनी दुनिया का निर्माण
तय कर लेने दें उन्हें अपने कायदे
छू लेने दें उन्हें आसमान
और हम उनके सहयात्री भर रहें ...
दोस्तों !
आइये ईमानदारी से इस विषय में सोंचें !!

            ----आनंद द्विवेदी ०८/०३/२०११

शनिवार, 5 मार्च 2011

वक्त का हालात का मैं हर तमाचा सह गया







प्यार की जंजीर में जकड़ा खड़ा, मैं रह गया ,
एक ही झोंके में वो प्यारा घरौंदा ढह  गया  !

एक मुद्दत बाद कल साहिल मुझे छूने को था,
एक ऊँची लहर आयी, दूर तक मैं बह गया !

अब न कोई दांव इस मासूम दिल का खेलना,
वक़्त जाते हुए मेरे कान में, यह कह गया !

एक सपना था, कि कोई आंसुओं की बूंद थी ? 
जो भी था वो आँख में ही झिलमिलाता रह गया !

घर हमारा है मगर, दीवारें औरों की हुयीं ,
एक बड़ा प्यारा अजनबी चंद रातें रह गया !

पहले जब हालात इतने तंगदिल कातिल न थे,
'प्यार करता हूँ तुम्हे' मैं भी किसी से कह गया!

टूट जाता कभी का, लेकिन वफ़ा के नाम पर  ,
वक़्त का हालात का, मैं हर तमाचा सह गया  !!

     --आनंद द्विवेदी ०१/०५/२००८ 

गुरुवार, 3 मार्च 2011

तुमको क्या लिखूं ?

१९९२ की गर्मियों का लिखा गीत लगभग विस्मृत हो गया था ...कल अचानक हाथ लगा तो ऐसा लगा जैसे कोई फिक्स डिपाजिट  मेच्योर हुआ पड़ा हो और हमें खबर भी न हो.... खैर आज से लगभग २० साल पहले का सौन्दर्य बोध ...आपके समक्ष  है.....है कैसा ये आप जानें ! 


तुम चन्दन वन के समीर सी 
झोंका बन बस गयी हिया में ,
भीनी खुसबू, निश्छल यौवन 
वह अनुपम सौंदर्य जिया में !

कोटिक कोकिल कंठों का
कलरव, तेरी उन्मुक्त हंसी है,
तेरी अनुपम केशराशि  में 
ज्यों सावन की घटा बसी है 
सुधा सोम युत तेरे मादक,
नयनों का रसपान किया मैं !....
तुम चन्दन वन के समीर सी, झोंका बन बस गयी हिया में !

नूतन तरु कोंपल सी कोमल
शीतलता में शरद जुन्हाई  ,
मन के बंद कपाट खोलकर 
तेरी छवि मन में गहराई ,
मीठे सपनों के आँगन में 
उन यादों के साथ जिया मैं !.....
तुम चन्दन वन के समीर सी, झोंका बन बस गयी हिया में !

शुभ्र हिमालय से ज्यादा तुम
सागर से भी अधिक गहनतम,
तेरी चितवन में जीवन है
स्वर तेरा वीणा की  सरगम,
तेरी सुधि के साथ बैठकर 
निठुर ठिठोली बहुत किया मैं !.....
तुम चन्दन वन के समीर सी, झोंका बन बस गयी हिया मे
भीनी खुसबू, निश्छल यौवन वह अनुपम सौंदर्य जिया में !

      -- आनंद द्विवेदी 

मंगलवार, 1 मार्च 2011

एक मित्र के जन्मदिन पर !


जीवन का एक और बसंत बीत गया
बसंत ऋतु के इस बासंतिक  जन्म दिन पर
अनुराग मिश्रित 
शुभकामनायें !
कामना विराट को छूने की 
कामना विराट होने की ...
विराट के सृजन की,
अपरिहार्य नहीं है गगन होना
पर गगन को 
छूने की कोशिश अपरिहार्य है,
कामना है नव सृजन की
पर पूर्व सृजन को सहेजने की अभिलाषा भी 
उतनी ही उत्कृष्ट है,
कामना है तुम्हारे निर्णय कालजयी हों
कंटक विहीन पथ हो,
श्रम हो,  .... पर संधि न हो
सम्मान हो पर मृदुलता भी हो
गर्व हो पर दर्प न हो !
इच्छित प्राप्त करो पर इच्छाएं नियंत्रित हों
भोग करो पर किसी का 'भाग' हरण मत करो
असीम बनो पर
सीमाओं का मान करो ,
सब की पहचान बनो..पर
सबको पहचानो भी
ऐसी ही है ऊटपटांग मेरी शुभकामना आपके जन्मदिन पर
आपके एक नूतन जन्म की 
अस्तु !

       --आनंद द्विवेदी ०१/०३/२०११