अज़ब जद्दोजहद में जी रहे हैं
फटे हैं जिस्म, झण्डे सी रहे हैं
हमारा कान कौव्वा ले गया है
हमारे दोस्त दुःख में जी रहे हैं
अचानक देशप्रेमी बढ़ गए हैं
कुएँ में भाँग है सब पी रहे हैं
ये साज़िश और नफ़रत का जहर है
जिसे अमृत समझकर पी रहे हैं
हमारी चेतना शायद मरी है
हज़ारो साल कठपुतली रहे हैं
हमें क्यों दर्द हो इन मामलों से
कि हम विज्ञापनों में जी रहे हैं
ये फर्ज़ी मीडिया का दौर है जी
गलत को देखकर लब सी रहे हैं
अकेले हैं तो है 'आनंद' वरना
हुए जब भीड़ नरभक्षी रहे हैं ।
© आनंद
फटे हैं जिस्म, झण्डे सी रहे हैं
हमारा कान कौव्वा ले गया है
हमारे दोस्त दुःख में जी रहे हैं
अचानक देशप्रेमी बढ़ गए हैं
कुएँ में भाँग है सब पी रहे हैं
ये साज़िश और नफ़रत का जहर है
जिसे अमृत समझकर पी रहे हैं
हमारी चेतना शायद मरी है
हज़ारो साल कठपुतली रहे हैं
हमें क्यों दर्द हो इन मामलों से
कि हम विज्ञापनों में जी रहे हैं
ये फर्ज़ी मीडिया का दौर है जी
गलत को देखकर लब सी रहे हैं
अकेले हैं तो है 'आनंद' वरना
हुए जब भीड़ नरभक्षी रहे हैं ।
© आनंद
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 27 फरवरी 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंवाह, समसामयिक सृजन । हर पंक्ति अपनी कहानी खुद कहती है।
जवाब देंहटाएंअज़ब जद्दोजहद में जी रहे हैं
फटे हैं जिस्म, झण्डे सी रहे हैं
👌👌👌👌शुभकामनायें🙏🙏