मंगलवार, 29 अगस्त 2017

अवसाद -2

मैं अपने अँधेरों को घसीटकर प्रकाश में नहीं ले जाना चाहता,
न ही चाहता हूँ अपने तिमिर पर किसी भी प्रकार के उजाले का अवांछित हमला
मैंने नीम अँधेरे में फैलाया है अपना हाथ
किसी साथ के लिये
प्रकाश के लिए नहीं...

मेरे भीरु सपने
घबराते हैं चकाचौंध से
इतना,  कि
जितना घबराता होगा गर्भस्थ भ्रूण
अजन्मी मृत्यु से,
मेरे लिए सुरक्षित आश्रय था तुम्हारा प्रेम
जहाँ मैं साँझ ढले कभी भी रुक सकता था
किंतु एक दिन जब मैं बहुत थका था और हारा भी
उस दिन शाम ढली ही नहीं
तुम ने चुन लिया था प्रकाश को
निरापद,
आश्रित प्रेम किसे भाता भला

प्रकाश एक कर्म है
सूरज का उदय- अस्त होना
चंद्रमा का भी,
दीप जलाना अथवा कोई और जतन करना उजाले की
सबका सब है एक यत्न एक दौड़,
और अँधेरा... वो तो है... बस है
सायास प्रकाश है
अनायास अँधेरा है,
तुम्हारे प्रकाश वरण के बाद...
एक दिन मैंने भी मना कर दिया और दौड़ने से
अब मैं
अँधेरे के खिलाफ़ 
दुनिया के किसी भी षड़यंत्र का हिस्सा नहीं हूँ
और मेरी दुनिया में नही है
प्रकाश का कोई भी हिस्सा ।

© आनंद

अवसाद

अवसाद
――――
मुस्कराती तस्वीरों के पीछे छिपी
गहन पीड़ा सा मैं
बार बार खटखटाता हूँ
किसी अदृश्य मृत्यु का द्वार
निष्फल प्रयत्नों का लेखा जोखा इकट्ठा कर रहा है जीवन,
दुनिया तंज़ करती है ...'बस्स' ?
मेरे मुँह से निकलती है बस एक 'आआह्'...

अब दुनिया शिकारी है 
जीवन एक जंगल
जहाँ केवल ताकतवर को ही होती है
जीने की अनुमति,
मृत्यु अब मीडिया की तरह है
शिकारी शिकार करते हुए करेगा
मनोरंजन के अधिकार का उपयोग !
जंगल में मृत्यु केवल एक 'क्षण' है
घटना नहीं,
जंगल में नहीं मिलते किसी क्षण के पाँवों के निशान।

ऐसे में
केवल 'तुम' मुझे बचा सकती हो
पर तुम
कहीं नही हो !

© आनंद