शुक्रवार, 17 जुलाई 2020

सावन का झूला...

ऐसा नहीं है की सावन का झूला केवल लड़कियों को ही आकर्षित करता हो ... मुझे ठीक से याद है मेरा पहला झूला अन्दर वाली कोठरी के दरवाजे पर सांकल चढ़ाने वाली कुण्डी में पड़ा था ...बैठने की जगह पर आधी आधी तकिया दोनों तरफ लटकाई गयी थी अगले एक दो सालों में वो घर की धन्नियों से होता हुआ मुख्यद्वार तक पहुंचा और बैठने के लिये तकिया का स्थान पेढई (पाटा जिस पर बैठकर खाना खाया जाता था) ने ले लिया था ... फिर लोहारन के दरवाजे वाली नीम में पड़ने वाला पटरा ... किसकी पेंगे कितनी दूर तक जाती हैं, कौन नीम की पत्ती छूकर आता है.... झूला रुकते ही उसपर चढ़ने की मारामारी... सावन के अंतिम दिनों में तो बाकायदा नंबर लगता था ..........कितने प्रकार के गीत गए जाते थे जब महिलाओं का समय झूलने का रहता था तब, अपनी छत से ही नीम की पत्तियों का लहरा-लहरा के नाचना देखकर समझ लेते थे की झूला चल रहा है ..... कभी कभी झूले की रस्सी या झूला टूट भी जाता था ...ऐसे में जिनके हाथ में रस्सा होता था वही बचते थे बाकी सारे बदाबद गिरते भी थे ... जब गाँव से कस्बे में रहने लगा ... तो भी झूला नियमित पड़ता रहा मोहल्ले में ... बस यहीं दिल्ली में आकर ही सब छूट गया मगर छूटकर भी सारा कुछ जीवित है अन्दर ... बस आंख सी भर आती है कभी कभी। पार्क के झूले मुझे आकर्षित नहीं करते वो मुझे शहरी जीवन के प्रोटोकॉल जैसे लगते हैं।


फ़ुर्सत नहीं मिली

गीत कोई गाने की फ़ुर्सत नही मिली
मन को बहलाने की फ़ुर्सत नहीं मिली
हसरत से हर रंग ख़्वाब का देखा है
रंग में रंग जाने की फ़ुर्सत नहीं मिली
बहुत दूर थी मंज़िल सर पर बोझा था
ज्यादा सुस्ताने की फ़ुर्सत नहीं मिली
दुनिया को क्या मतलब समझे दर्द मेरा
मुझको समझाने की फ़ुर्सत नहीं मिली
कुछ अशआर मुहब्बत के थोड़ी नज़्में
शायर बन जाने की फुर्सत नहीं मिली
मरहम की उम्मीद बँधाकर चोट मिली
चोटें सहलाने की फ़ुर्सत नहीं मिली
घुटी हुई चीख़ों पर किसका ध्यान गया
ज्यादा चिल्लाने की फ़ुर्सत नहीं मिली
दिल में कुछ तस्वीरें हैं कुछ किस्से हैं
जिनको दफ़नाने की फ़ुर्सत नहीं मिली
नाम मिला 'आनंद', मगर आनंद कहाँ
ख़ुद से मिल पाने की फ़ुर्सत नहीं मिली
© आनंद