शुक्रवार, 11 मार्च 2011

आज के दोहे !

आज से पहले मैंने कभी 'दोहे' नहीं लिखे थे ...आज सोंचा क्यूँ  न प्रयास करूं  ....मेरे पहले दोहे हैं ये ...इस आशा के साथ की "छमिहन्हि  सज्जन मोरि ढिठाई , सुनिहन्हि  बाल बचन मन लाई"!



सड़कों पर अब आ गए, आस्तीन के सांप 
इंटरनेट पर बैठकर, लिखते रहिये आप !

मन में अब उठता नहीं, पुण्य पाप का द्वन्द 
सब हैं डूबे प्रेम में, हैं सब ही  स्वच्छंद  !

चंहुदिसि हाहाकार पर दुनिया अपने रंग  
कविवर बैठे देखते,  मृगनयनी के अंग  !

जीवन की रस्साकशी,  पीती रहती खून ,
फागुन अब आता नहीं, बारौ महिने जून ! 

बिछुड़  गए संगी सखा , छूट  गए अरमान ,
जब से छोड़ा गाँव को, चली गयी पहचान!

'गुड़िया' 'फगुई' खो गयीं, आया नहीं बसंत,
पंडित जी की पीर  का, कोई  आदि न अंत !

            --आनंद द्विवेदी १/०३/२०११

9 टिप्‍पणियां:

  1. प्रिय बंधुवर आनन्द द्विवेदी जी
    सादर सस्नेहाभिवादन !

    सच सच बताएं …
    आज से पहले मैंने कभी 'दोहे' नहीं लिखे थे ...आज सोचा क्यूँ न प्रयास करूं
    ....मेरे पहले दोहे हैं ये

    आपका यह सब कहना होली की मजाक ही है न ?

    प्रभु , इतने परिपक्व दोहे … !
    मैं सच कहता हूं , केंद्रीय अकादमी से पुरस्कृत ऐसे कवि रचनाकारों को मैं बहुत नज़दीक से जानता हूं ,
    जो बिचारे साहित्य के सर्वोच्च पुरस्कार पा चुकने तक भी दोहा रचना भी सरस्वती से ले नहीं पाए ।
    लक्ष्मी जी को घेर कर ज़रूर ले गए … :(

    साहित्य का नसीब !!

    बहरहाल पूर्ण लय के साथ , गति-यति का निर्वहन करते हुए
    आपने भाव और कथ्य के दृष्टिकोण से भी दोहे के शिल्प को सम्हाला है … बधाई !

    हर दोहा पूर्ण है , इसलिए किसी एक को उद्धृत नहीं कर रहा ।

    क्षमा कर देंगे इस विश्वास के साथ एक दोहे का उल्लेख करूंगा -

    अंतिम दोहे में शिल्प नाम मात्र डगमगाया है ,
    'पंडित जी की व्यथा का ' के स्थान पर पंडितजी की पीर का ( दर्द का ) करलें , आप स्वयं पहचान लेंगे कि लय सहज हो गई है …



    हार्दिक बधाई !

    मंगलकामनाएं !!

    ♥होली की अग्रिम शुभकामनाएं !!!♥


    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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  2. आदरणीय राजेंद्र भाई जी, आपका आशीर्वाद मिला ....मुझे तो वैसे ही ये किसी अकादमी पुरकार से कम नही है ....भाई जी मैंने संसोधन कर लिया है ...और आप ऐसे संकोच युक्त भाषा का प्रयोग भविष्य में न ही करें तो कितना अच्छा रहेगा ...मुझ पर अपना आशीर्वाद बनायें रक्खें !

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  3. ab rajendra sir ne jo bat kah di........to fir ham jaise chhutt bhaiye blogger ki kya aukat jo kuch kahen..:D

    dohe lajabab........aur vyagya ka put liye hue hai!

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  4. thanks mere bhai...apka yahan aana hi bahut badi baat hai mere liye.

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  5. आद. द्विवेदी जी ,
    यह बात अलग है कि आपने पूर्व में 'दोहा' न लिखा हो किन्तु आपके दोहों को पढने के बाद मुझे भी
    भाई राजेन्द्र स्वर्णकार जी की तरह होली का मज़ाक ही लगा |
    आपके सभी दोहे भावपूर्ण एवं अर्थपूर्ण हैं |

    "बिछुड़ गए संगी सखा , छूट गए अरमान |
    जब से छोड़ा गाँव को , चली गयी पहचान |
    क्या कहना ....बहुत सुन्दर

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  6. Surendra bhai ji....abhi tak man ko aapke na aane ka malaal tha....dhanyavaad bhai..jab koi shaishav-avastha me hota hai to use jyada dekhbhal ki jaroorat hoti hai.

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  7. आनंद जी, आज अचानक दोहों की समसामयिकता विषय पर खोज करते हुए आपके दोहों तक पहुंचा जा सका । क्या बात है! आपने मन को भीतर तक छू लिया । आपने आज के संदर्भ में अपनी बात बहुत शुद्ध रूप से रखी है । हार्दिक शुभकामनाएं ।

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