शनिवार, 7 अगस्त 2021

जिसने थोड़ा थोड़ा करके..

जिसने थोड़ा थोड़ा करके मुझको इतना किया खराब
कहता रहा उसे ही अबतक दुनिया में सबसे नायाब 

जिसनें देखा नहीं पलटकर मेरी दुनिया कैसी है
उसके ही दर रहे पहुँचते अक़्सर मेरे पगले ख़्वाब 

याद किया जब पिछली बातें, दोनों ही झूठे निकले
उसने मुझको कहा ज़िंदगी मैंने उसको कहा शराब 

'मछला रानी' जैसा जादू, कुछ उसने कर रक्खा था
'पिंजरे का तोता' होकर भी ख़ुद को समझा किये नवाब 

आख़िर को यह बहती किश्ती अपने ही तट लगनी है
लहरें चाहे कुछ भी कर लें,  कितनी पैदा हों गिर्दाब 

शांत हो गयी महफ़िल सारी, नग़्मे, किस्से, शिक़वे, शोर
धीरे-धीरे लौट रहे हैं, अपने-अपने घर अहबाब 

छोड़ो भी 'आनंद',  मियाँ अब क्या रक्खा इन बातों में 
किससे कितने काँटे पाये, किसने कितने दिए ग़ुलाब। 

© आनंद 
गिर्दाब  = भँवर
अहबाब = मित्र









4 टिप्‍पणियां:

  1. वाह ! यथार्थवादी लेखन ! एक न एक दिन मन की असलियत खुल ही जाती है, जिसे सर पे चढ़ाया था हर वह हसरत जब बोझ बन जाती है

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  2. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में बुधवार 11 अगस्त 2021 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  3. मानव मन प्रभाव सर रहित कब होता है?
    बहुत ही सुंदर सृजन हृदयस्पर्शी अभिव्यक्ति।
    सादर

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